ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 46 से 47 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 46 से 47
"(श्लोक-४६)
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥
यदि = अगर (ये), शस्त्रपाणयः हाथोंमें शस्त्र-अस्त्र लिये हुए, धार्तराष्ट्राः = धृतराष्ट्रके पक्षपाती लोग, रणे युद्धभूमिमें, अप्रतीकारम् = सामना न करनेवाले, अशस्त्रम् = (तथा) शस्त्ररहित, माम् मुझे, हन्युः मार भी दें (तो), तत् = वह, मे = मेरे लिये, क्षेमतरम् बड़ा ही हितकारक, भवेत् - होगा।
व्याख्या- 'यदि माम्....... क्षेमतरं भवेत्'- अर्जुन कहते हैं कि अगर मैं युद्धसे सर्वथा निवृत्त हो जाऊँगा, तो शायद ये दुर्योधन आदि भी युद्धसे निवृत्त हो जायँगे। कारण कि हम कुछ चाहेंगे ही नहीं, लड़ेंगे भी नहीं, तो फिर ये लोग युद्ध करेंगे ही क्यों? परन्तु कदाचित् जोशमें भरे हुए तथा हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए ये धृतराष्ट्रके पक्षपाती लोग 'सदाके लिये हमारे रास्तेका काँटा निकल जाय, वैरी समाप्त हो जाय' - ऐसा विचार करके सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मेरेको मार भी दें, तो उनका वह मारना मेरे लिये हितकारक ही होगा। कारण कि मैंने युद्धमें गुरुजनोंको मारकर बड़ा भारी पाप करनेका जो निश्चय किया था, उस निश्चयरूप पापका प्रायश्चित्त हो जायगा, उस पापसे मैं शुद्ध हो जाऊँगा। तात्पर्य है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तो मैं भी पापसे बचूँगा और मेरे कुलका भी नाश नहीं होगा।
[जो मनुष्य अपने लिये जिस किसी विषयका वर्णन करता है, उस विषयका उसके स्वयंपर असर पड़ता है। अर्जुनने भी जब शोकाविष्ट होकर अट्ठाईसवें श्लोकसे बोलना आरम्भ किया, तब वे उतने शोकाविष्ट नहीं थे, जितने वे अब शोकाविष्ट हैं। पहले अर्जुन युद्धसे उपरत नहीं हुए, पर शोकाविष्ट होकर बोलते-बोलते अन्तमें वे युद्ध शोक बाहर आ जाय, भीतरमें कोई शोक बाकी न रहे, तभी मेरे वचनोंका उसपर असर होगा। अतः भगवान् बीचमें कुछ नहीं बोले ।]
विशेष बात
अबतक अर्जुनने अपनेको धर्मात्मा मानकर युद्धसे निवृत्त होनेमें जितनी दलीलें, युक्तियाँ दी हैं, संसारमें रचे-पचे लोग अर्जुनकी उन दलीलोंको ही ठीक समझेंगे और आगे भगवान् अर्जुनको जो बातें समझायेंगे, उनको ठीक नहीं समझेंगे! इसका कारण यह है कि जो मनुष्य जिस स्थितिमें हैं, उस स्थितिकी, उस श्रेणीकी बातको ही वे ठीक समझते हैं; उससे ऊँची श्रेणीकी बात वे समझ ही नहीं सकते। अर्जुनके भीतर कौटुम्बिक मोह है और उस मोहसे आविष्ट होकर ही वे धर्मकी, साधुताकी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कह रहे हैं। अतः जिन लोगोंके भीतर कौटुम्बिक मोह है, उन लोगोंको ही अर्जुनकी बातें ठीक लगेंगी। परन्तु भगवान् की दृष्टि जीवके कल्याणकी तरफ है कि उसका कल्याण कैसे हो ? भगवान् की इस ऊँची श्रेणीकी दृष्टिको वे (लौकिक दृष्टिवाले) लोग समझ ही नहीं सकते। अतः वे भगवान् कीबातोंको ठीक नहीं मानेंगे, प्रत्युत ऐसा मानेंगे कि अर्जुनके लिये युद्धरूपी पापसे बचना बहुत ठीक था, पर भगवान् ने उनको युद्धमें लगाकर ठीक नहीं किया !
वास्तवमें भगवान् ने अर्जुनसे युद्ध नहीं कराया है, प्रत्युत उनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है। युद्ध तो अर्जुनको कर्तव्यरूपसे स्वतः प्राप्त हुआ था। अतः युद्धका विचार तो अर्जुनका खुदका ही था; वे स्वयं ही युद्धमें प्रवृत्त हुए थे, तभी वे भगवान् को निमन्त्रण देकर लाये थे। परन्तु उस विचारको अपनी बुद्धिसे अनिष्टकारक समझकर वे युद्धसे विमुख हो रहे थे अर्थात् अपने कर्तव्यके पालनसे हट रहे थे। इसपर भगवान् ने कहा कि यह जो तू युद्ध नही करना चाहता, यह तेरा मोह है। अतः समयपर जो कर्तव्य स्वतः प्राप्त हुआ है, उसका त्याग करना उचित नहीं है।
कोई बद्रीनारायण जा रहा था; परन्तु रास्तेमें उसे दिशाभ्रम हो गया अर्थात् उसने दक्षिणको उत्तर और उत्तरको दक्षिण समझ लिया। अतः वह बद्रीनारायणकी तरफ न चलकर उलटा चलने लग गया। सामनेसे उसको एक आदमी मिल गया। उस आदमीने पूछा कि 'भाई! कहाँ जा रहे हो ?' वह बोला- 'बद्रीनारायण'। वह आदमी बोला कि 'भाई! बद्रीनारायण इधर नहीं है, उधर है। आप तो उलटे जा रहे हैं!' अतः वह आदमी उसको बद्रीनारायण भेजनेवाला नहीं है; किन्तु उसको दिशाका ज्ञान कराकर ठीक रास्ता बतानेवाला है। ऐसे ही भगवान् ने अर्जुनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है, युद्ध नहीं कराया है।
स्वजनोंको देखनेसे अर्जुनके मनमें यह बात आयी थी कि मैं युद्ध नहीं करूँगा- 'न योत्स्ये' (२।९), पर भगवान् का उपदेश सुननेपर अर्जुनने ऐसा नहीं कहा कि मैं युद्ध नहीं करूंगा; किन्तु ऐसा कहा कि मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा - 'करिष्ये वचनं तव' (१८। ७३) अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करूँगा। अर्जुनके इन वचनोंसे यही सिद्ध होता है कि भगवान् ने अर्जुनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है।
वास्तवमें युद्ध होना अवश्यम्भावी था; क्योंकि सबकी आयु समाप्त हो चुकी थी। इसको कोई भी टाल नहीं सकता था। स्वयं भगवान् ने विश्वरूपदर्शनके समय अर्जुनसे कहा है कि 'मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सबका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। अतः तेरे युद्ध किये बिना भी ये विपक्षमें खड़े योद्धालोग बचेंगे नहीं' (ग्यारहवें अध्यायका बत्तीसवाँ श्लोक)। इसलिये यह नरसंहार अवश्यम्भावी होनहार ही था। यह नरसंहार अर्जुन युद्ध न करते, तो भी होता। अगर अर्जुन युद्ध नहीं करते, तो जिन्होंने माँकी आज्ञासे द्रौपदीके साथ अपने सहित पाँचों भाइयोंका विवाह करना स्वीकार कर लिया था, वे युधिष्ठिर तो माँकी युद्ध करनेकी आज्ञासे युद्ध अवश्य करते ही। भीमसेन भी युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते; क्योंकि उन्होंने कौरवोंको मारनेकी प्रतिज्ञा कर रखी थी। द्रौपदीने तो यहाँतक कह दिया था कि अगर मेरे पति (पाण्डव) कौरवोंसे युद्ध नहीं करेंगे तो, मेरे पिता (द्रुपद), भाई (धृष्टद्युम्न) और मेरे पाँचों पुत्र तथा अभिमन्यु कौरवोंसे युद्ध करेंगे*।
* यदि भीमार्जुनौ कृष्ण कृपणौ सन्धिकामुकौ। पिता मे योत्स्यते वृद्धः सह पुत्रैर्महारथैः ॥ पञ्च चैव महावीर्याः पुत्रा मे मधुसूदन । अभिमन्युं पुरस्कृत्य योत्स्यन्ते कुरुभिः सह ।।
(महाभारत, उद्योग० ८२।३७-३८)
इस तरह ऐसे कई कारण थे, जिससे युद्धको टालना सम्भव नहीं था। होनहारको रोकना मनुष्यके हाथकी बात नहीं है; परन्तु अपने कर्तव्यका पालन करके मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है और कर्तव्यच्युत होकर अपना पतन कर सकता है। तात्पर्य है कि मनुष्य अपना इष्ट-अनिष्ट करनेमें स्वतन्त्र है। इसलिये भगवान् ने अर्जुनको कर्तव्यका ज्ञान कराकर मनुष्यमात्रको उपदेश दिया है कि उसे शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार अपने कर्तव्यके पालनमें तत्पर रहना चाहिये, उससे कभी च्युत नहीं होना चाहिये।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें अर्जुनने अपनी दलीलोंका निर्णय सुना दिया। उसके बाद अर्जुनने क्या किया- इसको संजय आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
"सञ्जय उवाच
(श्लोक-४७)
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ।॥
संजय बोले-
शोकाकुल धनुषका, एवम् = ऐसा, उक्त्वा कहकर, शोकसंविग्नमानसः मनवाले, अर्जुनः अर्जुन, सशरम् बाणसहित, चापम् विसृज्य = त्याग करके, सङ्ख्ये युद्धभूमिमें, रथोपस्थे = रथके मध्यभागमें, उपाविशत् = बैठ गये।
युद्ध करना व्याख्या - 'एवमुक्त्वार्जुनः ..... शोकसंविग्नमानसः' सम्पूर्ण अनर्थोंका मूल है, युद्ध करनेसे यहाँ कुटुम्बियोंका नाश होगा, परलोकमें नरकोंकी प्राप्ति होगी आदि बातोंको युक्ति और प्रमाणसे कहकर शोकसे अत्यन्त व्याकुल मनवाले अर्जुनने युद्ध न करनेका पक्का निर्णय कर लिया। जिस रणभूमिमें वे हाथमें धनुष लेकर उत्साहके साथ आये थे, उसी रणभूमिमें उन्होंने अपने बायें हाथसे गाण्डीव धनुषको और दायें हाथसे बाणको नीचे रख दिया और स्वयं रथके मध्यभागमें अर्थात् दोनों सेनाओंको देखनेके लिये जहाँपर खड़े थे, वहींपर शोकमुद्रामें बैठ गये।
अर्जुनकी ऐसी शोकाकुल अवस्था होनेमें मुख्य कारण है- भगवान् का भीष्म और द्रोणके सामने रथ खड़ा करके अर्जुनसे कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहना और उनको देखकर अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहका जाग्रत् होना। मोहके जाग्रत् होनेपर अर्जुन कहते हैं कि युद्धमें हमारे कुटुम्बी मारे जायँगे। कुटुम्बियोंका मरना ही बड़े नुकसानकी बात है। दुर्योधन आदि तो लोभके कारण इस नुकसानकी तरफ नहीं देख रहे हैं। परन्तु युद्धसे कितनी अनर्थ परम्परा चल पड़ेगी- इस तरफ ध्यान देकर हमलोगोंको ऐसे पापसे निवृत्त हो ही जाना चाहिये। हमलोग राज्य और सुखके लोभसे कुलका संहार करनेके लिये रणभूमिमें खड़े हो गये हैं- यह हमने बड़ी भारी गलती की ! अतः युद्ध न करते हुए शस्त्ररहित मेरेको यदि सामने खड़े हुए योद्धालोग मार भी दें, तो उससे मेरा हित ही होगा। इस तरह अन्तःकरणमें मोह छा जानेके कारण अर्जुन युद्धसे उपरत होनेमें एवं अपने मर जानेमें भी हित देखते हैं और अन्तमें उसी मोहके कारण बाणसहित धनुषका त्याग करके विषादमग्न होकर बैठ जाते हैं। यह मोहकी ही महिमा है कि जो अर्जुन धनुष उठाकर युद्धके लिये तैयार हो रहे थे, वही अर्जुन धनुषको नीचे रखकर शोकसे अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं!"
"ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप इस प्रकार ॐ, तत्, सत् - इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें 'अर्जुनविषादयोग' नामक पहला अध्याय पूर्ण
हुआ ॥ १ ॥ प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिपर महर्षि वेदव्यासजीने जो उपर्युक्त पुष्पिका लिखी है, इसमें श्रीमद्भगवद्गीताका विशेष माहात्म्य और प्रभाव ही प्रकट
किया गया है।
'ॐ, तत्, सत् *'- ये तीनों सच्चिदानन्दघन परमात्माके पवित्र नाम हैं। * द्रष्टव्य-गीता-सत्रहवें अध्यायके तेईसवेंसे सत्ताईसवें श्लोकतक ।
ये मात्र जीवोंका कल्याण करनेवाले हैं। इनका उच्चारण परमात्माके सम्मुख करता है और शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मोंके अंग-वैगुण्यको मिटाता है। अतः गीताके अध्यायका पाठ करनेमें श्लोक, पद और अक्षरोंके उच्चारणमें जो-जो भूलें हुई हैं, उनका परिमार्जन करनेके लिये और संसारसे सम्बन्ध- विच्छेदपूर्वक भगवत् सम्बन्धकी याद आनेके लिये प्रत्येक अध्यायके अन्तमें 'ॐ तत्सत्' का उच्चारण किया गया है।
महर्षि वेदव्यासजीके द्वारा अध्यायके अन्तमें 'ॐ' के उच्चारणका तात्पर्य है कि मेरी रचनाका अंग-वैगुण्य मिट जाय, 'तत्' के उच्चारणका तात्पर्य है कि मेरी रचना भगवत्प्रीत्यर्थ हो जाय और 'सत्' के उच्चारणका तात्पर्य है कि मेरी रचना सत् अर्थात् अविनाशी फल देनेवाली हो जाय। 'इति'- बस, मेरा यही प्रयोजन है। इसके सिवाय मेरा व्यक्तिगत और कोई प्रयोजन नहीं है।
जो 'श्रीमत्' अर्थात् सर्वशोभासम्पन्न हैं और जिनमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- ये छः 'भग' नित्य विद्यमान रहते हैं, उन भगवान् के मुखसे निकली हुई होनेके कारण इसको 'श्रीमत् भगवत्' कहा गया है।
जब मनुष्य मस्तीमें, आनन्दमें होता है, तब उसके मुखसे स्वतः गीत निकलता है। भगवान् ने इसको मस्तीमें आकर गाया है, इसलिये इसका नाम 'गीता' है। यद्यपि संस्कृत व्याकरणके नियमानुसार इसका नाम 'गीतम्' होना चाहिये था, तथापि उपनिषद्-स्वरूप होनेसे स्त्रीलिंग शब्द 'गीता' का प्रयोग किया गया है।
इसमें सम्पूर्ण उपनिषदोंका सारतत्त्व संगृहीत है और यह स्वयं भी भगवद्वाणी होनेसे उपनिषद्-स्वरूप है, इसलिये इसे 'उपनिषद्' कहा गया है। वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका आग्रह न रखकर प्राणिमात्रका कल्याण करनेवाली सर्वश्रेष्ठ विद्या होनेके कारण इसका नाम 'ब्रह्मविद्या' है। इस ब्रह्मविद्यास्वरूप गीतामें कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि योगसाधनोंकी शिक्षा दी गयी है, जिससे साधकको परमात्माके साथ अपने नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाय। इसलिये इसे 'योगशास्त्र' कहा गया है।
यह साक्षात् पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और भक्तप्रवर अर्जुनका संवाद है। अर्जुनने निःसंकोच-भावसे बातें पूछी हैं और भगवान् ने उदारतापूर्वक उनका उत्तर दिया है। इन दोनोंके ही भाव इसमें हैं। अतः इन दोनोंके नामसे इस गीताशास्त्रकी विशेष महिमा होनेके कारण इसे 'श्रीकृष्णार्जुनसंवाद' नामसे कहा गया है।
इस पहले अध्यायमें अर्जुनके विषादका वर्णन है। यह विषाद भी भगवान् अथवा सन्तोंका संग मिल जानेपर संसारसे वैराग्य उत्पन्न करके कल्याण करनेवाला हो जाता है। यद्यपि दुर्योधनादिको भी विषाद हुआ है, तथापि उनमें भगवान् से विमुखता होनेके कारण उनका विषाद 'योग' नहीं हुआ। केवल अर्जुनका विषाद ही भगवान् की सम्मुखता होनेके कारण 'योग' अर्थात् भगवान् के नित्य-सम्बन्धका अनुभव करानेवाला हो गया। इसलिये इस अध्यायका नाम 'अर्जुनविषादयोग' रखा गया है।
प्रत्येक अध्यायके अन्तमें पुष्पिका देनेका तात्पर्य है कि अगर साधक एक अध्यायका भी ठीक तरहसे मनन-विचार करे, तो उस एक ही अध्यायसे उसका कल्याण हो जायगा।
परिशिष्ट भाव-गीताकी पुष्पिकामें 'ब्रह्मविद्यायाम्', 'योगशास्त्रे' और 'श्रीकृष्णार्जुनसंवादे'- ये तीन पद तो एकवचनमें आये हैं, पर 'श्रीमद्भगवद्गीतासु' और 'उपनिषत्सु' - ये दो पद बहुवचनमें आये हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवद्वाणी सम्पूर्ण उपनिषदोंमें श्रीमद्भगवद्गीता भी एक उपनिषद् है, जिसमें 'ब्रह्मविद्या' (ज्ञानयोग), 'योगशास्त्र' (कर्मयोग) और 'श्रीकृष्णार्जुनसंवाद' (भक्तियोग) - तीनों आये हैं।
गीतामें 'श्रीकृष्णार्जुनसंवाद' का आरम्भ और अन्त भक्तिमें ही हुआ है। आरम्भमें अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर भगवान् के शरण होते हैं। 'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्' (२। ७) और अन्तमें भगवान् के द्वारा 'मामेकं शरणं व्रज' पदोंसे पूर्ण शरणागतिकी प्रेरणा करनेपर अर्जुन पूर्णतया शरणागत हो जाते हैं। 'करिष्ये वचनं तव' (१८। ७३) । अर्जुनने अपने श्रेय (कल्याण) का उपाय पूछा था (२।७, ३।२, ५।१), इसलिये भगवान् ने गीतामें 'ज्ञानयोग' और 'कर्मयोग' का भी वर्णन किया है।
पहले अध्यायके पद, अक्षर और उवाच
(१) इस अध्यायमें 'अथ प्रथमोऽध्यायः' के तीन, 'धृतराष्ट्र उवाच' 'सञ्जय उवाच' आदि पदोंके बारह, श्लोकोंके पाँच सौ अट्ठावन और पुष्पिकाके तेरह पद हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण पदोंका योग पाँच सौ छियासी है। (२) इस अध्यायमें 'अथ प्रथमोऽध्यायः' के सात, 'धृतराष्ट्र उवाच' 'सञ्जय उवाच' आदि पदोंके सैंतीस, श्लोकोंके एक हजार पाँच सौ चार और पुष्पिकाके अड़तालीस अक्षर हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण अक्षरोंका योग एक हजार पाँच सौ छियानबे है। इस अध्यायके सभी श्लोक बत्तीस अक्षरोंके हैं। (३) इस अध्यायमें छः 'उवाच' हैं- एक 'धृतराष्ट्र उवाच', तीन 'सञ्जय उवाच' और दो 'अर्जुन उवाच'।
पहले अध्यायमें प्रयुक्त छन्द
इस अध्यायके सैंतालीस श्लोकोंमेंसे- पाँचवें और तैंतीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें तथा तैंतालीसवें श्लोकके तृतीय चरणमें 'रगण' प्रयुक्त होनेसे 'र- विपुला'; और पचीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें तथा नवें श्लोकके तृतीय चरणमें 'नगण' प्रयुक्त होनेसे 'न-विपुला' संज्ञावाले छन्द हैं। शेष बयालीस श्लोक ठीक 'पथ्यावक्त्र' अनुष्टुप् छन्दके लक्षणोंसे युक्त हैं।"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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