ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 1 से 3 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge

 


श्री हरि

"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""

भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 1 से 3

"अथ द्वितीयोऽध्यायः

अवतरणिका

दुर्योधनने द्रोणाचार्यसे दोनों सेनाओंकी बात कही, पर द्रोणाचार्य कुछ भी बोले नहीं। इससे दुर्योधन दुःखी हो गया। तब दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये भीष्मजीने जोरसे शंख बजाया । भीष्मजीका शंख बजनेके बाद कौरव और पाण्डव-सेनाके बाजे बजे। इसके बाद (बीसवें श्लोकसे) श्रीकृष्णार्जुनसंवाद आरम्भ हुआ।

अर्जुनने भगवान् से अपने रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा करनेके लिये कहा। भगवान् ने दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म, द्रोण आदिके सामने रथको खड़ा करके अर्जुनसे कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहा। दोनों सेनाओंमें अपने ही स्वजनों- सम्बन्धियोंको देखकर अर्जुनमें कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हुआ, जिसके परिणाममें अर्जुन युद्ध करना छोड़कर बाणसहित धनुषका त्याग करके रथके मध्यभागमें बैठ गये।

इसके बाद विषादमग्न अर्जुनके प्रति भगवान् ने क्या कहा- यह बात धृतराष्ट्रको सुनानेके लिये संजय दूसरे अध्यायका विषय आरम्भ करते हैं।

१-१० अर्जुनकी कायरताके विषयमें संजयद्वारा भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादका वर्णन

सञ्जय उवाच

(श्लोक-१)

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् । विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥

संजय बोले-

तथा वैसी, कृपया = कायरतासे, आविष्टम् व्याप्त हुए, तम् = उन अर्जुनके प्रति, विषीदन्तम् = जो कि विषाद कर रहे हैं (और), अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् = आँसुओंके कारण जिनके नेत्रोंकी देखनेकी शक्ति अवरुद्ध हो रही है, मधुसूदनः भगवान् मधुसूदन, इदम् यह (आगे कहे जानेवाले), वाक्यम् = वचन, उवाच = बोले ।

व्याख्या-'तं तथा कृपयाविष्टम्' - अर्जुन रथमें सारथिरूपसे बैठे हुए भगवान् को यह आज्ञा देते हैं कि हे अच्युत ! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये, जिससे मैं यह देख लूँ कि इस युद्धमें मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं? अर्थात् मेरे जैसे शूरवीरके साथ कौन-कौन-से योद्धा साहस करके लड़ने आये हैं? अपनी मौत सामने दीखते हुए भी मेरे 
लड़नेकी उनकी हिम्मत कैसे हुई? इस प्रकार जिस अर्जुनमें युद्धके लिये इतना उत्साह था, वीरता थी, वे ही अर्जुन दोनों सेनाओंमें अपने कुटुम्बियोंको देखकर उनके मरनेकी आशंकासे मोहग्रस्त होकर इतने शोकाकुल हो गये हैं कि उनका शरीर शिथिल हो रहा है, मुख सूख रहा है, शरीरमें कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथसे धनुष गिर रहा है, त्वचा जल रही है, खड़े रहनेकी भी शक्ति नहीं रही है और मन भी भ्रमित हो रहा है। कहाँ तो अर्जुनका यह स्वभाव कि 'न दैन्यं न पलायनम्' और कहाँ अर्जुनका कायरताके दोषसे शोकाविष्ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ जाना ! बड़े आश्चर्यके साथ संजय यही भाव उपर्युक्त पदोंसे प्रकट कर रहे हैं।

पहले अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें भी संजयने अर्जुनके लिये 'कृपया परयाविष्टः' पदोंका प्रयोग किया है।

'अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्' - अर्जुन-जैसे महान् शूरवीरके भीतर भी कौटुम्बिक मोह छा गया और नेत्रोंमें आँसू भर आये! आँसू भी इतने ज्यादा भर आये कि नेत्रोंसे पूरी तरह देख भी नहीं सकते।

'विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः - इस प्रकार कायरताके कारण विषाद करते हुए अर्जुनसे भगवान् मधुसूदनने ये (आगे दूसरे तीसरे श्लोकोंमें कहे जाने वाले) वचन कहे।

यहाँ 'विषीदन्तमुवाच' कहनेसे ही काम चल सकता था, 'इदं वाक्यम्' कहनेकी जरूरत ही नहीं थी; क्योंकि 'उवाच' क्रियाके अन्तर्गत ही 'वाक्यम्' पद आ जाता है। फिर भी 'वाक्यम्' पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् का यह वचन, यह वाणी बड़ी विलक्षण है। अर्जुनमें धर्मका बाना पहनकर जो कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आ गयी थी, उसपर यह भगवद्वाणी सीधा आघात पहुँचानेवाली है। अर्जुनका युद्धसे उपराम होनेका जो निर्णय था, उसमें खलबली मचा देनेवाली है। अर्जुनको अपने दोषका ज्ञान कराकर अपने कल्याणकी जिज्ञासा जाग्रत् करा देनेवाली है। इस गम्भीर अर्थवाली वाणीके प्रभावसे ही अर्जुन भगवान् का शिष्यत्व ग्रहण करके उनके शरण हो जाते हैं (दूसरे अध्यायका सातवाँ श्लोक)।

संजयके द्वारा 'मधुसूदनः' पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण 'मधु नामक' दैत्यको मारनेवाले अर्थात् दुष्ट स्वभाववालोंका संहार करनेवाले हैं। इसलिये वे दुष्ट स्वभाववाले दुर्योधनादिका नाश करवाये बिना रहेंगे नहीं।

सम्बन्ध-भगवान् ने अर्जुनके प्रति कौन से वचन कहे- इसे आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।"
"श्रीभगवानुवाच (श्लोक-२)

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥

श्रीभगवान् बोले-

अर्जुन = हे अर्जुन !, विषमे इस विषम अवसरपर, त्वा तुम्हें, इदम् = यह, कश्मलम् = कायरता, कुतः कहाँसे, समुपस्थितम् = प्राप्त हुई (जिसका कि), अनार्यजुष्टम् = श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, अस्वर्ग्यम् = (जो) स्वर्गको देनेवाली नहीं है (और), अकीर्तिकरम् कीर्ति करनेवाली भी नहीं है। १- यहाँ 'भगवान्' पदमें 'भग' शब्दमें जो 'मतुप्' प्रत्यय किया गया है, वह नित्ययोगमें किया गया है; क्योंकि समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- ये छहों 'भग' भगवान्

में नित्य रहते हैं।

व्याख्या-'अर्जुन'- यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि तुम स्वच्छ, निर्मल अन्तःकरणवाले हो। अतः तुम्हारे स्वभावमें कालुष्य - कायरताका आना बिलकुल विरुद्ध बात है। फिर यह तुम्हारेमें कैसे आ गयी ?

'कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्'- भगवान् आश्चर्य प्रकट करते हुए अर्जुनसे कहते हैं कि ऐसे युद्धके मौकेपर तो तुम्हारेमें शूरवीरता, उत्साह आना चाहिये था, पर इस बेमौकेपर तुम्हारेमें यह कायरता कहाँसे आ गयी !

आश्चर्य दो तरहसे होता है- अपने न जाननेके कारण और दूसरेको चेतानेके लिये। भगवान् का यहाँ जो आश्चर्यपूर्वक बोलना है, वह केवल अर्जुनको चेतानेके लिये ही है, जिससे अर्जुनका ध्यान अपने कर्तव्यपर चला जाय।

'कुतः' कहनेका तात्पर्य यह है कि मूलमें यह कायरतारूपी दोष तुम्हारेमें (स्वयंमें) नहीं है। यह तो आगन्तुक दोष है, जो सदा रहनेवाला नहीं है।

'समुपस्थितम्' कहनेका तात्पर्य है कि यह कायरता केवल तुम्हारे भावोंमें और वचनोंमें ही नहीं आयी है; किन्तु तुम्हारी क्रियाओंमें भी आ गयी है। यह तुम्हारेपर अच्छी तरहसे छा गयी है, जिसके कारण तुम धनुष-बाण छोड़कर रथके मध्यभागमें बैठ गये हो।

'अनार्यजुष्टम् - समझदार श्रेष्ठ मनुष्योंमें जो भाव पैदा होते हैं, वे अपने कल्याणके उद्देश्यको लेकर ही होते हैं।

२-'अनार्यजुष्टम्' पदमें जो 'नञ्' समास है, वह 'आर्यैर्जुष्टमार्यजुष्टम्'- इस तृतीया समासके बाद ही करना चाहिये; जैसे- 'न आर्यजुष्टम् अनार्यजुष्टम्।' अगर 'नञ्' समास तृतीया समासके पहले किया जाय कि 'न आर्या अनार्याः अनार्यैर्जुष्टमनार्यजुष्टम्' तो यहाँ यह कहना बनता ही नहीं; क्योंकि अनार्य पुरुषोंके द्वारा जिसका सेवन किया जाता है, वह दूसरोंके

लिये आदर्श नहीं होता।

इसलिये श्लोकके उत्तरार्धमें भगवान् सबसे पहले उपर्युक्त पद देकर कहते हैं कि तुम्हारेमें जो कायरता आयी है, उस कायरताको श्रेष्ठ पुरुष स्वीकार नहीं करते। कारण कि तुम्हारी इस कायरतामें अपने कल्याणकी बात बिलकुल नहीं है। कल्याण चाहनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंमें अपने कल्याणका ही उद्देश्य रखते हैं। उनमें अपने कर्तव्यके प्रति कायरता उत्पन्न नहीं होती। परिस्थितिके अनुसार उनको जो कर्तव्य प्राप्त हो जाता है, उसको वे कल्याणप्राप्तिके उद्देश्यसे उत्साह और तत्परतापूर्वक सांगोपांग करते हैं। वे तुम्हारे-जैसे कायर होकर युद्धसे या अन्य किसी कर्तव्य कर्मसे उपरत नहीं होते। अतः युद्ध-रूपसे प्राप्त कर्तव्य-कर्मसे उपरत होना तुम्हारे लिये कल्याणकारक नहीं है।

'अस्वर्ग्यम्'- कल्याणकी बात सामने न रखकर अगर सांसारिक दृष्टिसे भी देखा जाय, तो संसारमें स्वर्गलोक ऊँचा है। परन्तु तुम्हारी यह कायरता स्वर्गको देनेवाली भी नहीं है अर्थात् कायरतापूर्वक युद्धसे निवृत्त होनेका फल स्वर्गकी प्राप्ति भी नहीं हो सकता।

'अकीर्तिकरम्' - अगर स्वर्गप्राप्तिका भी लक्ष्य न हो, तो अच्छा माना जानेवाला पुरुष वही काम करता है, जिससे संसारमें कीर्ति हो। परन्तु तुम्हारी यह जो कायरता है, यह इस लोकमें भी कीर्ति (यश) देनेवाली नहीं है, प्रत्युत अपकीर्ति (अपयश) देनेवाली है। अतः तुम्हारेमें कायरताका आना सर्वथा ही अनुचित है।

भगवान् ने यहाँ 'अनार्यजुष्टम्' 'अस्वर्ग्यम्' और 'अकीर्तिकरम्'- ऐसा क्रम देकर तीन प्रकारके मनुष्य बताये हैं- (१) जो विचारशील मनुष्य होते हैं, वे केवल अपना कल्याण ही चाहते हैं। उनका ध्येय, उद्देश्य केवल कल्याणका ही होता है। (२) जो पुण्यात्मा मनुष्य होते हैं, वे शुभ-कर्मोंके द्वारा स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं। वे स्वर्गको ही श्रेष्ठ मानकर उसकी प्राप्तिका ही उद्देश्य रखते हैं। (३) जो साधारण मनुष्य होते हैं, वे संसारको ही आदर देते हैं। इसलिये वे संसारमें अपनी कीर्ति चाहते हैं और उस कीर्तिको ही अपना ध्येय मानते हैं।

उपर्युक्त तीनों पद देकर भगवान् अर्जुनको सावधान करते हैं कि तुम्हारा जो यह युद्ध न करनेका निश्चय है, यह विचारशील और पुण्यात्मा मनुष्योंके ध्येय-कल्याण और स्वर्गको प्राप्त करानेवाला भी नहीं है, तथा साधारण मनुष्योंके ध्येय-कीर्तिको प्राप्त करानेवाला भी नहीं है। अतः मोहके कारण तुम्हारा युद्ध न करनेका निश्चय बहुत ही तुच्छ है, जो कि तुम्हारा पतन करनेवाला, तुम्हें नरकोंमें ले जानेवाला और तुम्हारी अपकीर्ति करनेवाला होगा।

सम्बन्ध-कायरता आनेके बाद अब क्या करें? इस जिज्ञासाको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं- "
"(श्लोक-३)

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ।।

पार्थ = हे पृथानन्दन अर्जुन !, क्लैब्यम् इस नपुंसकताको, मा स्म गमः = मत प्राप्त हो; (क्योंकि), त्वयि तुम्हारेमें, एतत् यह, न उपपद्यते = उचित नहीं है, परन्तप हे परन्तप !, क्षुद्रम्, हृदयदौर्बल्यम् = हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका, त्यक्त्वा त्याग करके (युद्धके लिये), उत्तिष्ठ खड़े हो जाओ।

व्याख्या- 'पार्थ' *- माता पृथा (कुन्ती) के सन्देशकी याद दिलाकर अर्जुनके अन्तःकरणमें क्षत्रियोचित वीरताका भाव जाग्रत् करनेके लिये भगवान् अर्जुनको 'पार्थ' नामसे सम्बोधित करते हैं *।

* पृथा (कुन्ती) के पुत्र होनेसे अर्जुनका एक नाम 'पार्थ' भी है। 'पार्थ' सम्बोधन भगवान् की अर्जुनके साथ प्रियता और घनिष्ठताका द्योतक है। गीतामें भगवान् ने अड़तीस बार 'पार्थ' सम्बोधनका प्रयोग किया है। अर्जुनके अन्य सभी सम्बोधनोंकी अपेक्षा 'पार्थ' सम्बोधनका प्रयोग अधिक हुआ है। इसके बाद सबसे अधिक प्रयोग 'कौन्तेय' सम्बोधनका हुआ है, जिसकी आवृत्ति कुल चौबीस बार हुई है।

भगवान् को अर्जुनसे जब कोई विशेष बात कहनी होती है या कोई आश्वासन देना होता है या उनके प्रति भगवान् का विशेषरूपसे प्रेम उमड़ता है, तब भगवान् उन्हें 'पार्थ' कहकर पुकारते हैं। इस सम्बोधनके प्रयोगसे मानो वे स्मरण कराते हैं कि तुम मेरी बुआ (पृथा- कुन्ती) के लड़के तो हो ही, साथ-ही-साथ मेरे प्यारे भक्त और सखा भी हो (गीता ४। ३)। अतः मैं तुम्हें विशेष गोपनीय बातें बताता हूँ और जो कुछ भी कहता हूँ, सत्य तथा केवल तुम्हारे हितके लिये कहता हूँ।

* कुन्तीका सन्देश था-

एतद् धनञ्जयो वाच्यो नित्योद्युक्तो वृकोदरः ॥ यदर्थं क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः ।

(महा०, उद्यो० १३७।९-१०) 'तुम अर्जुनसे तथा युद्धके लिये सदा उद्यत रहनेवाले भीमसे यह कहना कि जिस कार्यके लिये क्षत्रियमाता पुत्र उत्पन्न करती है, अब उसका समय आ गया है।'

तात्पर्य है कि अपनेमें कायरता लाकर तुम्हें माताकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये।

'क्लैब्यं मा स्म गमः' अर्जुन कायरताके कारण युद्ध करनेमें अधर्म और युद्ध न करनेमें धर्म मान रहे थे। अतः अर्जुनको चेतानेके लिये भगवान् कहते हैं कि युद्ध न करना धर्मकी बात नहीं है, यह तो नपुंसकता (हिजड़ापन) है। इसलिये तुम इस नपुंसकताको छोड़ दो।

'नैतत्त्वय्युपपद्यते'- तुम्हारेमें यह हिजड़ापन नहीं आना चाहिये था; क्योंकि तुम कुन्ती-जैसी वीर क्षत्राणी माताके पुत्र हो और स्वयं भी शूरवीर हो। तात्पर्य है कि जन्मसे और अपनी प्रकृतिसे भी यह नपुंसकता तुम्हारेमें सर्वथा अनुचित है।

'परन्तप' - तुम स्वयं 'परन्तप' हो अर्थात् शत्रुओंको तपानेवाले, भगानेवाले हो, तो क्या तुम इस समय युद्धसे विमुख होकर अपने शत्रुओंको हर्षित करोगे ?

'क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ' यहाँ 'क्षुद्रम्' पदके दो अर्थ होते हैं - (१) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छताको प्राप्त करानेवाली है अर्थात् मुक्ति, स्वर्ग अथवा कीर्तिको देनेवाली नहीं है। अगर तुम इस तुच्छताका त्याग नहीं करोगे तो स्वयं तुच्छ हो जाओगे; और (२) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छ चीज है। तुम्हारे-जैसे शूरवीरके लिये ऐसी तुच्छ चीजका त्याग करना कोई कठिन काम नहीं है। तुम जो ऐसा मानते हो कि मैं धर्मात्मा हूँ और युद्धरूपी पाप नहीं करना चाहता, तो यह तुम्हारे हृदयकी दुर्बलता है, कमजोरी है। इसका त्याग करके तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ अर्थात् अपने प्राप्त कर्तव्यका पालन करो।

यहाँ अर्जुनके सामने युद्धरूप कर्तव्य कर्म है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि 'उठो, खड़े हो जाओ और युद्धरूप कर्तव्यका पालन करो'। भगवान् के मनमें अर्जुनके कर्तव्यके विषयमें जरा-सा भी सन्देह नहीं है। वे जानते हैं कि सभी दृष्टियोंसे अर्जुनके लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है। अतः अर्जुनकी थोथी युक्तियोंकी परवाह न करके उनको अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये चट आज्ञा देते हैं कि पूरी तैयारीके साथ युद्ध करनेके लिये खड़े हो जाओ।

परिशिष्ट भाव-इस बातका विस्तार भगवान् ने आगे इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्लोकतक किया है।

सम्बन्ध-पहले अध्यायमें अर्जुनने युद्ध न करनेके विषयमें बहुत-सी युक्तियाँ (दलीलें) दी थीं। उन युक्तियोंका कुछ भी आदर न करके भगवान् ने एकाएक अर्जुनको कायरतारूप दोषके लिये जोरसे फटकारा और युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा दे दी। इस बातको लेकर अर्जुन भी अपनी युक्तियोंका समाधान न पाकर एकाएक उत्तेजित होकर बोल उठे-"

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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