ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 18 #BhagavadGita #Spi...
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 18
"(श्लोक-१८)
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।
अनाशिनः = अविनाशी, अप्रमेयस्य जाननेमें न आनेवाले (और), नित्यस्य = नित्य रहनेवाले, शरीरिणः = इस शरीरीके, इमे = ये, देहाः = देह, अन्तवन्तः अन्तवाले, उक्ताः = कहे गये हैं, तस्मात् = इसलिये, भारत हे अर्जुन ! (तुम), युध्यस्व = युद्ध करो।
व्याख्या' अनाशिनः ' - किसी कालमें, किसी कारणसे कभी किंचिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम 'अनाशी' अर्थात् अविनाशी है।
'अप्रमेयस्य' - जो प्रमा (प्रमाण) का विषय नहीं है अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियोंका विषय नहीं है, उसको 'अप्रमेय' कहते हैं।
जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और सन्त-महापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और सन्तमें श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और सन्तके वचनोंको मानता है। इसलिये यह तत्त्व केवल श्रद्धाका विषय है, प्रमाणका विषय नहीं।
१-आरम्भमें तो यह तत्त्व श्रद्धाका विषय है, पर आगे चलकर जब इसका प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है, तब यह श्रद्धाका विषय नहीं रहता।
शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। अगर वह शास्त्र और सन्तके वचनोंमें श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय नहीं है।
'नित्यस्य'- यह नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। किसी कालमें यह न रहता हो-ऐसी बात नहीं है अर्थात् यह सब कालमें सदा ही रहता है।
'अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः' - इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरीके सम्पूर्ण संसारमें जितने भी शरीर हैं, वे सभी अन्तवाले कहे गये हैं। अन्तवाले कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अन्त हो रहा है। इनमें अन्तके सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अन्त-ही-अन्त है।
उपर्युक्त पदोंमें शरीरीके लिये तो एकवचन दिया है और शरीरोंके लिये बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणीके स्थूल, सूक्ष्म और कारण- ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसारके सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोकमें भी इसको 'सर्वगतः' पदसे सबमें व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जानेवाले सम्पूर्ण शरीर नाशवान् हैं। जैसे अविनाशीका कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान् को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान् का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात् उसका तो नाश ही होगा।
विशेष बात
यहाँ 'अन्तवन्त इमे देहाः' कहनेका तात्पर्य है कि ये जो देह देखनेमें आते हैं, ये सब के सब नाशवान् हैं। पर ये देह किसके हैं ? 'नित्यस्य', 'अनाशिनः'- ये देह नित्यके हैं, अविनाशीके हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्वने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना माननेका अर्थ है कि अपनेको शरीरमें रख दिया और शरीरको अपनेमें रख लिया। अपनेको शरीरमें रखनेसे 'अहंता' अर्थात् 'मैं' पन पैदा हो गया और शरीरको अपनेमें रखनेसे 'ममता' अर्थात् 'मेरा' पन पैदा हो गया।
यह स्वयं जिन-जिन चीजोंमें अपनेको रखता चला जाता है, उन- उन चीजोंमें 'मैं' पन होता ही चला जाता है; जैसे- अपनेको धनमें रख दिया तो 'मैं धनी हूँ'; अपनेको राज्यमें रख दिया तो 'मैं राजा हूँ'; अपनेको विद्यामें रख दिया तो 'मैं विद्वान् हूँ'; अपनेको बुद्धिमें रख दिया तो 'मैं बुद्धिमान् हूँ'; अपनेको सिद्धियोंमें रख दिया तो 'मैं सिद्ध हूँ'; अपनेको शरीरमें रख दिया तो 'मैं शरीर हूँ'; आदि-आदि। यह स्वयं जिन-जिन चीजोंको अपनेमें रखता चला जाता है, उन- उन चीजोंमें 'मेरा' पन होता ही चला जाता है; जैसे-कुटुम्बको अपनेमें रख लिया तो 'कुटुम्ब मेरा है'; धनको अपनेमें रख लिया तो 'धन मेरा है'; बुद्धिको अपनेमें रख लिया तो 'बुद्धि मेरी है'; शरीरको अपनेमें रख लिया तो 'शरीर मेरा है'; आदि-आदि।
जडताके साथ 'मैं' और 'मेरा' पन होनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं (स्वयं) दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परन्तु जो इस विवेकको आदर देते हैं, महत्त्व देते हैं, वे पण्डित होते हैं। ऐसे पण्डितलोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है-इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है।
'तस्मात् युध्यस्व'- भगवान् अर्जुनके लिये आज्ञा देते हैं कि सत्-असत् को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात् प्राप्त कर्तव्यका पालन करो।
२-यहाँ 'तस्मात्' पद युक्ति समझनेमें आया है अर्थात् युक्ति समझमें आ गयी तो अब युद्ध करो। इसी तरह गीतामें 'तस्मात्' पदका प्रयोग प्रायः प्रकरणकी समाप्तिपर अथवा युक्तिकी समाप्तिपर किया गया है; जैसे दूसरे अध्यायके तीसवें, तीसरे अध्यायके उन्नीसवें, आठवें अध्यायके सातवें तथा सत्ताईसवें आदि श्लोकोंमें 'तस्मात्' पद प्रकरणकी समाप्तिके लिये आया है और दूसरे अध्यायके पचीसवें, सत्ताईसवें, सैंतीसवें, अड़सठवें तथा ग्यारहवें अध्यायके तैंतीसवें आदि श्लोकोंमें 'तस्मात्' पद युक्तिकी समाप्तिके लिये आया है।
तात्पर्य है कि शरीर तो अन्तवाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों-शरीर-शरीरीकी दृष्टिसे शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोकका त्याग करके युद्ध करो।
विशेष बात
यहाँ सत्रहवें और अठारहवें - इन दोनों श्लोकोंमें विशेषतासे सत्- तत्त्वका ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरणमें भगवान् का लक्ष्य सत् का बोध करानेमें ही है। सत् का बोध हो जानेसे असत् की निवृत्ति स्वतः हो जाती है।
फिर किसी प्रकारका किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। इस प्रकार सत् का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्यका पालन करना चाहिये। इस विवेचनसे यह बात सिद्ध होती है कि सांख्ययोग एवं कर्मयोगमें किसी विशेष वर्ण और आश्रमकी आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याणके लिये चाहे सांख्ययोगका अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोगका अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्यकी पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु व्यावहारिक काम करनेमें वर्ण और आश्रमके अनुसार शास्त्रीय विधानकी परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोगके अनुसार सत्-असत् का विवेचन करते हुए भगवान् युद्ध करनेकी अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।
आगे तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया गया है, वहाँ भी 'असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदार-गृहादिषु' (१३। ९) कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदिकी आसक्तिका निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्य- योगके अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदिमें आसक्ति-रहित होनेके लिये कहनेकी आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासीके पुत्र-स्त्री आदि होते ही नहीं।
इस तरह गीतापर विचार करनेसे सांख्ययोग एवं कर्मयोग-दोनों परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रमपर किंचिन्मात्र भी अवलम्बित नहीं हैं।
परिशिष्ट भाव - भगवान् ने अपने उपदेशके आरम्भमें 'गतासून्' (मृत) और 'अगतासून्' (जीवित) - दोनों प्राणियोंको अशोच्य बताया। फिर बारहवें तेरहवें श्लोकोंमें 'गतासून्' को अशोच्य बतानेके लिये 'सत्' (नित्य) का वर्णन किया और चौदहवें-पन्द्रहवें श्लोकोंमें 'अगतासून्' को अशोच्य बतानेके लिये 'असत्' (अनित्य) का वर्णन किया। फिर सत् और असत्- दोनोंका वर्णन सोलहवें श्लोकमें किया। इसके बाद सत् के भाव और असत् के अभावका विवेचन मुख्यरूपसे सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें करके एक प्रकरण पूरा करते हैं।
यद्यपि भाव (होनापन) आत्माका ही है, शरीरका नहीं, तथापि मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह पहले शरीरको देखकर फिर उसमें आत्माको देखता है, पहले आकृतिको देखकर फिर भावको देखता है। ऊपर लगायी हुई पालिश कबतक टिकेगी ? साधकको विचार करना चाहिये कि आत्मा पहले थी या शरीर पहले था ? विचार करनेपर सिद्ध होता है कि आत्मा पहले है, शरीर पीछे है; भाव पहले है, आकृति पीछे है। इसलिये साधककी दृष्टि पहले भावरूप आत्मा या स्वयंकी तरफ जानी चाहिये, शरीरकी तरफ नहीं।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी बात कही। अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये, जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते, उनकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं।"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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