ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 25 से 26 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 25 से 26
"(श्लोक-२५)
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।
अयम् = यह देही, अव्यक्तः प्रत्यक्ष नहीं दीखता, अयम् यह, अचिन्त्यः = चिन्तनका विषय नहीं है, अयम् (और) यह, अविकार्यः निर्विकार, उच्यते = कहा जाता है, तस्मात् अतः, एनम् इस देहीको, एवम् = ऐसा, विदित्वा = जानकर, अनुशोचितुम् शोक, न नहीं, अर्हसि करना चाहिये।
व्याख्या 'अव्यक्तोऽयम्'- जैसे शरीर संसार स्थूलरूपसे देखनेमें आता है, वैसे यह शरीरी स्थूलरूपसे देखनेमें आनेवाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल सृष्टिसे रहित है।
'अचिन्त्योऽयम्'- मन, बुद्धि आदि देखनेमें तो नहीं आते, पर चिन्तनमें आते ही हैं अर्थात् ये सभी चिन्तनके विषय हैं। परन्तु यह देही चिन्तनका भी विषय नहीं है; क्योंकि यह सूक्ष्म सृष्टिसे रहित है।
'अविकार्योऽयमुच्यते' - यह देही विकाररहित कहा जाता है अर्थात् इसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है, उस कारणभूत प्रकृतिमें भी विकृति होती है। परन्तु इस देहीमें किसी प्रकारकी विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टिसे रहित है।
यहाँ चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य - इन आठ विशेषणोंके द्वारा इस देहीका निषेधमुखसे और नित्य, सर्वगत, स्थाणु और सनातन- इन चार विशेषणोंके द्वारा इस देहीका विधिमुखसे वर्णन किया गया है। परन्तु वास्तवमें इसका वर्णन हो नहीं सकता; क्योंकि यह वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते हैं, उस देहीको वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं ? अतः इस देहीका ऐसा अनुभव करना ही इसका वर्णन करना है।
'तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ' - इसलिये इस देहीको अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि जान लें अर्थात् ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो ही नहीं सकता।
सम्बन्ध- अगर शरीरीको निर्विकार न मानकर विकारी मान लिया जाय (जो कि सिद्धान्तसे विरुद्ध हैं), तो भी शोक नहीं हो सकता- यह बात आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।"
"(श्लोक-२६) अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् । तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।।
इस देहीको, नित्य, मृतम् = महाबाहो - हे महाबाहो !, अथ अगर (तुम), एनम् नित्यजातम् = नित्य पैदा होनेवाला, वा अथवा, नित्यम् मरनेवाला, च = भी, मन्यसे मानो, तथापि तो भी, त्वम् तुम्हें, एवम् = इस प्रकार, शोचितुम् शोक, न नहीं, अर्हसि = करना चाहिये।
व्याख्या' अथ चैनं ...शोचितुमर्हसि भगवान् यहाँ पक्षान्तरमें 'अथ च' और 'मन्यसे' पद देकर कहते हैं कि यद्यपि सिद्धान्तकी और सच्ची बात यही है कि देही किसी भी कालमें जन्मने मरनेवाला नहीं है (गीता- दूसरे अध्यायका बीसवाँ श्लोक), तथापि अगर तुम सिद्धान्तसे बिलकुल विरुद्ध बात भी मान लो कि देही नित्य जन्मनेवाला और नित्य मरनेवाला है, तो भी तुम्हें शोक नहीं होना चाहिये। कारण कि जो जन्मेगा, वह मरेगा ही और जो मरेगा, वह जन्मेगा ही- इस नियमको कोई टाल नहीं सकता। अगर बीजको पृथ्वीमें बो दिया जाय, तो वह फूलकर अंकुर दे देता है और वही अंकुर क्रमशः बढ़कर वृक्षरूप हो जाता है। इसमें सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय कि क्या वह बीज एक क्षण भी एकरूपसे रहा? पृथ्वीमें वह पहले अपने कठोररूपको छोड़कर कोमलरूपमें हो गया, फिर कोमलरूपको छोड़कर अंकुररूपमें हो गया, इसके बाद अंकुररूपको छोड़कर वृक्षरूपमें हो गया और अन्तमें आयु समाप्त होनेपर वह सूख गया। इस तरह बीज एक क्षण भी एकरूपसे नहीं रहा, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलता रहा। अगर बीज एक
क्षण भी एकरूपसे रहता, तो वृक्षके सूखनेतककी क्रिया कैसे होती ? उसने पहले रूपको छोड़ा-यह उसका मरना हुआ, और दूसरे रूपको धारण किया - यह उसका जन्मना हुआ। इस तरह वह प्रतिक्षण ही जन्मता-मरता रहा। बीजकी ही तरह यह शरीर है। बहुत सूक्ष्मरूपसे वीर्यका जन्तु रजके साथ मिला। वह बढ़ते-बढ़ते बच्चेके रूपमें हो गया और फिर जन्म गया। जन्मके बाद वह बढ़ा, फिर घटा और अन्तमें मर गया। इस तरह शरीर एक क्षण भी एकरूपसे न रहकर बदलता रहा अर्थात् प्रतिक्षण जन्मता-मरता रहा।
भगवान् कहते हैं कि अगर तुम शरीरकी तरह शरीरीको भी नित्य जन्मने मरनेवाला मान लो, तो भी यह शोकका विषय नहीं हो सकता।"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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