ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 27 से 28 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 27 से 28
"""(श्लोक-२७)
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्भुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
हि = कारण कि, जातस्य पैदा हुएकी, ध्रुवः जरूर, मृत्युः मृत्यु होगी, च = और, मृतस्य मरे हुएका, ध्रुवम् = जरूर, जन्म जन्म होगा, तस्मात् = अतः, अपरिहार्ये (इस जन्म-मरण रूप परिवर्तनके प्रवाहका ) निवारण नहीं हो सकता, अर्थे (अतः इस विषयमें, त्वम् = तुम्हें, शोचितुम् = शोक, न नहीं, अर्हसि करना चाहिये। व्याख्या- 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च' - पूर्वश्लोकके अनुसार अगर शरीरीको नित्य जन्मने और मरनेवाला भी मान लिया जाय, तो भी वह शोकका विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर जन्मेगा। 'तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि' इसलिये कोई भी इस जन्म- मृत्युरूप प्रवाहका परिहार (निवारण) नहीं कर सकता; क्योंकि इसमें किसीका किंचिन्मात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्म-मृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकालतक चलता रहेगा। इस दृष्टिसे तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं है।
ये धृतराष्ट्रके पुत्र जन्में हैं, तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जायँगे, वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बातका ?
शोक उसीका कीजिये, जो अनहोनी होय। अनहोनी होती नहीं, होनी है सो होय ॥
जैसे, इस बातको सब जानते हैं कि सूर्यका उदय हुआ है, तो उसका अस्त होगा ही और अस्त होगा तो उसका उदय होगा ही। इसलिये मनुष्य सूर्यका अस्त होनेपर शोक-चिन्ता नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन ! अगर तुम ऐसा मानते हो कि शरीरके साथ ये भीष्म, द्रोण आदि सभी मर जायँगे, तो फिर शरीरके साथ जन्म भी जायँगे। अतः इस दृष्टिसे भी शोक नहीं हो सकता।
भगवान् ने इन दो (छब्बीसवें सत्ताईसवें) श्लोकोंमें जो बात कही है, वह भगवान् का कोई वास्तविक सिद्धान्त नहीं है। अतः 'अथ च' पद देकर भगवान् ने दूसरे (शरीर- शरीरीको एक माननेवाले) पक्षकी बात कही है कि ऐसा सिद्धान्त तो है नहीं, पर अगर तू ऐसा भी मान ले, तो भी शोक करना उचित नहीं है।
इन दो श्लोकोंका तात्पर्य यह हुआ कि संसारकी मात्र चीजें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होनेसे पहले रूपको छोड़कर दूसरे रूपको धारण करती रहती हैं। इसमें पहले रूपको छोड़ना- यह मरना हो गया और दूसरे रूपको धारण करना-यह जन्मना हो गया। इस प्रकार जो जन्मता है, उसकी मृत्यु होती है और जिसकी मृत्यु होती है, वह फिर जन्मता है- यह प्रवाह तो हरदम चलता ही रहता है। इस दृष्टिसे भी क्या शोक करें ?
परिशिष्ट भाव - किसी प्रियजनकी मृत्यु हो जाय, धन नष्ट हो जाय तो मनुष्यको शोक होता है। ऐसे ही भविष्यको लेकर चिन्ता होती है कि अगर स्त्री मर गयी तो क्या होगा ? पुत्र मर गया तो क्या होगा ? आदि। ये शोक- चिन्ता अपने विवेकको महत्त्व न देनेके कारण ही होते हैं। संसारमें परिवर्तन होना, परिस्थिति बदलना आवश्यक है। अगर परिस्थिति नहीं बदलेगी तो संसार कैसे चलेगा ? मनुष्य बालकसे जवान कैसे बनेगा ? मूर्खसे विद्वान् कैसे बनेगा ? रोगीसे नीरोग कैसे बनेगा ? बीजका वृक्ष कैसे बनेगा ? परिवर्तनके बिना संसार स्थिर चित्रकी तरह बन जायगा! वास्तवमें मरनेवाला (परिवर्तनशील) ही मरता है, रहनेवाला कभी मरता ही नहीं। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि मृत्यु होनेपर शरीर तो हमारे सामने पड़ा रहता है, पर शरीरका मालिक (जीवात्मा) निकल जाता है। अगर इस अनुभवको महत्त्व दें तो फिर चिन्ता-शोक हो ही नहीं सकते। बालिके मरनेपर भगवान् राम इसी अनुभवकी ओर ताराका लक्ष्य कराते हैं-
तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ॥
छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा । जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर माँगी ॥
(मानस, किष्किन्धा० ११।२-३)
विचार करना चाहिये कि जब चौरासी लाख योनियोंमें कोई भी शरीर नहीं रहा, तो फिर यह शरीर कैसे रहेगा? जब चौरासी लाख शरीर मैं-मेरे नहीं रहे, तो फिर यह शरीर मैं-मेरा कैसे रहेगा? यह विवेक मनुष्य-शरीरमें हो सकता है, अन्य शरीरोंमें नहीं।
सम्बन्ध-पीछेके दो श्लोकोंमें पक्षान्तरकी बात कहकर अब भगवान् अगेके श्लोकमें बिलकुल साधारण दृष्टिकी बात कहते हैं।"""
"(श्लोक-२८)
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।
भारत = हे भारत!, भूतानि सभी प्राणी, अव्यक्तादीनि जन्मसे पहले अप्रकट थे (और), अव्यक्तनिधनानि मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे, व्यक्तमध्यानि, एव = केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं (अतः), तत्र = इसमें, परिदेवना = शोक करनेकी, का बात ही क्या है।
व्याख्या अव्यक्तादीनि भूतानि' देखने, सुनने और समझनेमें आनेवाले जितने भी प्राणी (शरीर आदि) हैं, वे सब के सब जन्मसे पहले अप्रकट थे अर्थात् दीखते नहीं थे।
'अव्यक्तनिधनान्येव'- ये सभी प्राणी मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे अर्थात् इनका नाश होनेपर ये सभी 'नहीं' में चले जायँगे, दीखेंगे नहीं।
'व्यक्तमध्यानि'- ये सभी प्राणी बीचमें अर्थात् जन्मके बाद और मृत्युके पहले प्रकट दिखायी देते हैं। जैसे सोनेसे पहले भी स्वप्न नहीं था और जगनेपर भी स्वप्न नहीं रहा, ऐसे ही इन प्राणियोंके शरीरोंका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव रहेगा। परन्तु बीचमें भावरूपसे दीखते हुए भी वास्तवमें इनका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है।
'तत्र का परिदेवना'- जो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह बीचमें भी नहीं होता- यह सिद्धान्त है।
१ आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा।
(माण्डूक्यकारिका ४।३१)
सभी प्राणियोंके शरीर पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे; अतः वास्तवमें वे बीचमें भी नहीं हैं। परन्तु यह शरीरी पहले भी था और पीछे भी रहेगा; अतः वह बीचमें भी रहेगा ही। निष्कर्ष यह निकला कि शरीरोंका सदा अभाव है और शरीरीका कभी भी अभाव नहीं है। इसलिये इन दोनोंके लिये शोक नहीं हो सकता।
परिशिष्ट भाव - जो आदि और अन्तमें नहीं है, उसका 'नहीं'-पना नित्य- निरन्तर है तथा जो आदि और अन्तमें है, उसका 'है' पना नित्य-निरन्तर है। २-(क) यस्तु यस्यादिरन्तश्च स वै मध्यं च तस्य सन् ।
(श्रीमद्भा० ११।२४।१७)
'जिसके आदि और अन्तमें जो है, वही बीचमें भी है और वही सत्य है।'
(ख) आद्यन्तयोरस्य यदेव केवलं कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये ।।
(श्रीमद्भा० ११। २८। १८)
'इस संसारके आदिमें जो था तथा अन्तमें जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक
है, वही परमात्मा बीचमें भी है।'
(ग) न यत् पुरस्तादुत यन्न पश्चान्मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम् ।
(श्रीमद्भा० ११। २८। २१)
'जो उत्पत्तिसे पहले नहीं था और प्रलयके बाद भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीचमें भी वह है नहीं, केवल कल्पनामात्र, नाममात्र ही है।'
जिसका 'नहीं' पना नित्य-निरन्तर है, वह 'असत्' (शरीर) है और जिसका 'है'-पना नित्य-निरन्तर है, वह 'सत्' (शरीरी) है। असत् के साथ हमारा नित्यवियोग है और सत् के साथ हमारा नित्ययोग है। सम्बन्ध-अब भगवान् शरीरीकी अलौकिकताका वर्णन करते हैं।"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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