ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 4 से 5 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge


श्री हरि

"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""

भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 4 से 5


"अर्जुन उवाच

(श्लोक-४)

कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन । इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ।।

अर्जुन बोले- 

मधुसूदन = हे मधुसूदन!, अहम् मैं, सङ्ख्ये रणभूमिमें, भीष्मम् = भीष्म, च = और, द्रोणम् द्रोणके, प्रति साथ, इषुभिः बाणोंसे, युद्ध करूँ ? (क्योंकि), अरिसूदन = हे कथम् = कैसे, योत्स्यामि अरिसूदन ! (ये), पूजाौँ दोनों ही पूजाके योग्य हैं।

व्याख्या-'मधुसूदन' और 'अरिसूदन'- ये दो सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप दैत्योंको और शत्रुओंको मारनेवाले हैं अर्थात् जो दुष्ट स्वभाववाले, अधर्ममय आचरण करनेवाले और दुनियाको कष्ट देनेवाले मधु-कैटभ आदि दैत्य हैं, उनको भी आपने मारा है और जो बिना कारण द्वेष रखते हैं, अनिष्ट करते हैं, ऐसे शत्रुओंको भी आपने मारा है। परन्तु मेरे सामने तो पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण खड़े हैं, जो आचरणोंमें सर्वथा श्रेष्ठ हैं, मेरेपर अत्यधिक स्नेह रखनेवाले हैं और प्यारपूर्वक मेरेको शिक्षा देनेवाले हैं। ऐसे मेरे परम हितैषी दादाजी और विद्यागुरुको मैं कैसे मारूँ ?

'कथं * भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च' - मैं कायरताके कारण युद्धसे विमुख नहीं हो रहा हूँ, प्रत्युत धर्मको देखकर युद्धसे विमुख हो रहा हूँ; परन्तु आप कह रहे हैं कि यह कायरता, यह नपुंसकता तुम्हारेमें कहाँसे आ गयी! आप जरा सोचें कि मैं पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके साथ बाणोंसे युद्ध कैसे करूँ ? महाराज ! यह मेरी कायरता नहीं है।

* दूसरे श्लोकमें भगवान् ने 'कुतः' पदसे कहा था कि तुम्हारेमें यह कायरता कहाँसे आ गयी ? उस 'कुतः' पदके बदलेमें ही अर्जुन यहाँ 'कथम्' पदसे अपनी बात कहते हैं।

कायरता तो तब कही जाय, जब मैं मरनेसे डरूँ। मैं मरनेसे नहीं डर रहा हूँ, प्रत्युत मारनेसे डर रहा हूँ।

संसारमें दो ही तरहके सम्बन्ध मुख्य हैं- जन्म-सम्बन्ध और विद्या- सम्बन्ध। जन्मके सम्बन्धसे तो पितामह भीष्म हमारे पूजनीय हैं। बचपनसे ही मैं उनकी गोदमें पला हूँ। बचपनमें जब मैं उनको 'पिताजी-पिताजी' कहता, तब वे प्यारसे कहते कि 'मैं तो तेरे पिताका भी पिता हूँ!' इस तरह वे मेरेपर बड़ा ही प्यार, स्नेह रखते आये हैं। विद्याके सम्बन्धसे आचार्य द्रोण हमारे पूजनीय हैं। वे मेरे विद्यागुरु हैं। उनका मेरेपर इतना स्नेह है कि उन्होंने खास अपने पुत्र अश्वत्थामाको भी मेरे समान नहीं पढ़ाया। उन्होंने ब्रह्मास्त्रको चलाना तो दोनोंको सिखाया, पर ब्रह्मास्त्रका उपसंहार करना मेरेको ही सिखाया, अपने पुत्रको नहीं। उन्होंने मेरेको यह वरदान भी दिया है कि 'मेरे शिष्योंमें अस्त्र-शस्त्र-कलामें तुम्हारेसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं होगा।' ऐसे पूजनीय पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके सामने तो वाणीसे 'रे', 'तू'- ऐसा कहना भी उनकी हत्या करनेके समान पाप है, फिर मारनेकी इच्छासे उनके साथ बाणोंसे युद्ध करना कितने भारी पापकी बात है!

'इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजाहौँ' - सम्बन्धमें बड़े होनेके नाते पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण- ये दोनों ही आदरणीय और पूजनीय हैं। इनका मेरेपर पूरा अधिकार है। अतः ये तो मेरेपर प्रहार कर सकते हैं, पर मैं उनपर बाणोंसे कैसे प्रहार करूँ ? उनका प्रतिद्वन्द्वी होकर युद्ध करना तो मेरे लिये बड़े पापकी बात है! क्योंकि ये दोनों ही मेरे द्वारा सेवा करनेयोग्य हैं और सेवासे भी बढ़कर पूजा करनेयोग्य हैं। ऐसे पूज्यजनोंको मैं बाणोंसे कैसे मारूँ ?

सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें अर्जुनने उत्तेजित होकर भगवान् से अपना निर्णय कह दिया। अब भगवद्वाणीका असर होनेपर अर्जुन अपने और भगवान् के निर्णयका सन्तुलन करके कहते हैं-"
"(श्लोक-५)

गुरूनहत्वा हि महानुभावान्

श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।

हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव

भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥

महानुभावान् = महानुभाव, गुरून् गुरुजनोंको, अहत्वा न मारकर, इह = इस, लोके = लोकमें (मैं), भैक्ष्यम् भिक्षाका अन्न, भोक्तुम् खाना, अपि भी, श्रेयः श्रेष्ठ (समझता हूँ), हि क्योंकि, गुरून् = गुरुजनोंको, हत्वा = मारकर, इह यहाँ, रुधिरप्रदिग्धान् रक्तसे सने हुए (तथा), अर्थकामान् = धनकी कामनाकी मुख्यतावाले, भोगान् भोगोंको, एव = ही, तु = तो, भुञ्जीय = भोगूँगा !

व्याख्या [इस श्लोकसे ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे-तीसरे श्लोकों में भगवान् के कहे हुए वचन अब अर्जुनके भीतर असर कर रहे हैं। इससे अर्जुनके मनमें यह विचार आ रहा है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजनोंको मारना धर्मयुक्त नहीं है-ऐसा जानते हुए भी भगवान् मुझे बिना किसी सन्देहके युद्धके लिये आज्ञा दे रहे हैं, तो कहीं-न-कहीं मेरी समझमें ही गलती है!

इसलिये अर्जुन अब पूर्वश्लोककी तरह उत्तेजित होकर नहीं बोलते, प्रत्युत कुछ ढिलाईसे बोलते हैं।]

'गुरूनहत्वा..... भैक्ष्यमपीह लोके'- अब अर्जुन पहले अपने पक्षको सामने रखते हुए कहते हैं कि अगर मैं भीष्म, द्रोण आदि पूज्यजनोंके साथ युद्ध नहीं करूँगा, तो दुर्योधन भी अकेला मेरे साथ युद्ध नहीं करेगा। इस तरह युद्ध न होनेसे मेरेको राज्य नहीं मिलेगा, जिससे मेरेको दुःख पाना पड़ेगा। मेरा जीवन-निर्वाह भी कठिनतासे होगा। यहाँतक कि क्षत्रियके लिये निषिद्ध जो भिक्षावृत्ति है, उसको भी जीवन-निर्वाहके लिये ग्रहण करना पड़ सकता है। परन्तु गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा मैं उस कष्टदायक भिक्षा-वृत्तिको भी ग्रहण करना श्रेष्ठ मानता हूँ।

'इह लोके' कहनेका तात्पर्य है कि यद्यपि भिक्षा माँगकर खानेसे इस संसारमें मेरा अपमान तिरस्कार होगा, लोग मेरी निन्दा करेंगे, तथापि गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा भिक्षा माँगना श्रेष्ठ है।

'अपि' कहनेका तात्पर्य है कि मेरे लिये गुरुजनोंको मारना भी निषिद्ध है और भिक्षा माँगना भी निषिद्ध है; परन्तु इन दोनोंमें भी गुरुजनोंको मारना मुझे अधिक निषिद्ध दीखता है।

'हत्वार्थकामांस्तु रुधिरप्रदिग्धान्'- अब अर्जुन भगवान् के वचनोंकी तरफ दृष्टि करते हुए कहते हैं कि अगर मैं आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध करूँ, तो युद्धमें गुरुजनोंकी हत्याके परिणाममें मैं उनके खूनसे सने हुए और जिनमें धन आदिकी कामना ही मुख्य है, ऐसे भोगोंको ही तो भोगूँगा। मेरेको भोग ही तो मिलेंगे। उन भोगोंके मिलनेसे मुक्ति थोड़े ही होगी! शान्ति थोड़े ही मिलेगी !

यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजन धनके द्वारा ही कौरवोंसे बँधे थे; अतः यहाँ 'अर्थकामान्' पदको 'गुरून्' पदका विशेषण मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है? इसका उत्तर यह है कि 'अर्थकी कामनावाले गुरुजन'- ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है। कारण कि पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण आदि गुरुजन धनकी कामनावाले नहीं थे। वे तो दुर्योधनके वृत्तिभोगी थे, उन्होंने दुर्योधनका अन्न खाया था। अतः युद्धके समय दुर्योधनका साथ छोड़ना कर्तव्य न समझकर ही वे कौरवोंके पक्षमें खड़े हुए थे।

दूसरी बात, अर्जुनने भीष्म, द्रोण आदिके लिये 'महानुभावान्' पदका प्रयोग किया है। अतः ऐसे श्रेष्ठ भाववालोंको अर्थकी कामनावाले कैसे कहा जा सकता है! तात्पर्य है कि जो महानुभाव हैं, वे अर्थकी कामनावाले नहीं हो सकते और जो अर्थकी कामनावाले हैं, वे महानुभाव नहीं हो सकते। अतः यहाँ 'अर्थकामान्' पद 'भोगान्' पदका ही विशेषण हो सकता है।

विशेष बात

भगवान् ने दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें अर्जुनके कल्याणकी दृष्टिसे ही उन्हें कायरताको छोड़कर युद्धके लिये खड़ा होनेकी आज्ञा दी थी। परन्तु अर्जुन उलटा ही समझे अर्थात् वे समझे कि भगवान् राज्यका भोग करनेकी दृष्टिसे ही युद्धकी आज्ञा देते हैं*।

* केवल भौतिक दृष्टि रखनेवाले मनुष्य कल्याणकी बात सोच ही नहीं सकते। जबतक भौतिक पदार्थोंकी तरफ ही दृष्टि रहती है, तबतक आध्यात्मिक दृष्टि जाग्रत् नहीं होती। यहाँ अर्जुनकी दृष्टिमें शरीर आदि भौतिक पदार्थोंकी मुख्यता हो रही है। वे कौटुम्बिक मोह-ममतामें फँसकर धर्मको भी भौतिक दृष्टिसे ही देख रहे हैं। भौतिक (प्राकृत) दृष्टिसे अत्यन्त विलक्षण आध्यात्मिक दृष्टिकी तरफ अभी अर्जुनका खयाल नहीं है अर्थात् उनकी दृष्टि भौतिक राज्यसे ऊपर नहीं जा रही है और वे कौटुम्बिक मोह-ममताके प्रवाहमें बह रहे हैं। इसलिये वे ऐसा समझ रहे हैं कि युद्धमें प्रवृत्त कराकर भगवान् मुझे राज्य दिलाना चाहते हैं, जबकि वास्तवमें

भगवान् उनका कल्याण करना चाहते हैं।

पहले तो अर्जुनका युद्ध न करनेका एक ही पक्ष था, जिससे वे धनुष-बाण छोड़कर और शोकाविष्ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (पहले अध्यायका सैंतालीसवाँ श्लोक)। परंतु युद्ध करनेका पक्ष तो भगवान् के कहनेसे ही हुआ है। तात्पर्य है कि अर्जुनका भाव था कि हमलोग तो धर्मको जानते हैं, पर दुर्योधन आदि धर्मको नहीं जानते, इसलिये वे धन, राज्य आदिके लोभसे युद्ध करनेके लिये तैयार खड़े हैं। अब वही बात अर्जुन यहाँ अपने लिये कहते हैं कि अगर मैं भी आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध करूँ, तो परिणाममें गुरुजनोंके रक्तसे सने हुए धन, राज्य आदिको ही तो प्राप्त करूँगा ! इस तरह अर्जुनको युद्ध करनेमें बुराई-ही-बुराई दिखायी दे रही है।

जो बुराई बुराईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा सुगम होता है। परंतु जो बुराई अच्छाईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है; जैसे - सीताजीके सामने रावण और हनुमान् जी के सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान् जी पहचान नहीं सके; क्योंकि उन दोनोंका वेश साधुओंका था। अर्जुनकी मान्यतामें युद्धरूप कर्तव्य कर्म करना बुराई है और युद्ध न करना भलाई है अर्थात् अर्जुनके मनमें धर्म (हिंसा-त्याग) रूप भलाईके वेशमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। उनको कर्तव्य-त्यागरूप बुराई बुराईके रूपमें नहीं दीख रही है; क्योंकि उनके भीतर शरीरोंको लेकर मोह है। अतः इस बुराईको मिटानेमें भगवान् को भी बड़ा जोर पड़ रहा है और समय लग रहा है।

आजकल समाजमें एकताके बहाने वर्ण-आश्रमकी मर्यादाको मिटानेकी कोशिश की जा रही है, तो यह बुराई एकतारूप अच्छाईके वेशमें आनेसे बुराईरूपसे नहीं दीख रही है। अतः वर्ण-आश्रमकी मर्यादा मिटनेसे परिणाममें लोगोंका कितना पतन होगा, लोगोंमें कितना आसुरभाव आयेगा - इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती। ऐसे ही धनके बहाने लोग झूठ, कपट, बेईमानी, ठगी, विश्वासघात आदि-आदि दोषोंको भी दोषरूपसे नहीं जानते। यहाँ अर्जुनमें धर्मके रूपमें बुराई आयी है कि हम भीष्म, द्रोण आदि महानुभावोंको कैसे मार सकते हैं? क्योंकि हम धर्मको जाननेवाले हैं। तात्पर्य है कि अर्जुनने जिसको अच्छाई माना है, वह वास्तवमें बुराई ही है; परन्तु उसमें मान्यता अच्छाईकी होनेसे वह बुराईरूपसे नहीं दीख रही है। 

परिशिष्ट भाव - 'महानुभावान्' - भीष्म, द्रोण आदि गुरुजनोंका अनुभाव, भीतरका भाव श्रेष्ठ है, शुद्ध है; क्योंकि युद्ध करते हुए भी उनमें पक्षपात नहीं है।

सम्बन्ध-भगवान् के वचनोंमें ऐसी विलक्षणता है कि वे अर्जुनके भीतर अपना प्रभाव डालते जा रहे हैं, जिससे अर्जुनको अपने युद्ध न करनेके निर्णयमें अधिक सन्देह होता जा रहा है। ऐसी अवस्थाको प्राप्त हुए अर्जुन कहते हैं-"

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||


 

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