ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 50 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
"भगवतगीता अध्याय 2
श्लोक 50"
"(श्लोक-५०)
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
, बुद्धियुक्तः = बुद्धि (समता) से युक्त (मनुष्य), इह = यहाँ (जीवित-अवस्थामें ही), सुकृतदुष्कृते = पुण्य और पाप, उभे = दोनोंका, जहाति = त्याग कर देता है, तस्मात् = अतः (तू), योगाय = योग (समता) में, युज्यस्व = लग जा (क्योंकि), कर्मसु = कर्मोंमें, योगः = योग (ही), कौशलम् = कुशलता है।
व्याख्या-'बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते'- समतायुक्त मनुष्य जीवित अवस्थामें ही पुण्य-पापका त्याग कर देता है अर्थात् उसको पुण्य-पाप नहीं लगते, वह उनसे रहित हो जाता है। जैसे संसारमें पुण्य-पाप होते ही रहते हैं, पर सर्वव्यापी परमात्माको वे पुण्य-पाप नहीं लगते, ऐसे ही जो समतामें निरन्तर स्थित रहता है, उसको पुण्य-पाप नहीं लगते (गीता - दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक)।
समता एक ऐसी विद्या है, जिससे मनुष्य संसारमें रहता हुआ ही संसारसे सर्वथा निर्लिप्त रह सकता है। जैसे कमलका पत्ता जलसे ही उत्पन्न होता है और जलमें ही रहता है, पर वह जलसे लिप्त नहीं होता, ऐसे ही समतायुक्त पुरुष संसारमें रहते हुए भी संसारसे निर्लिप्त रहता है। पुण्य-पाप उसका स्पर्श नहीं करते अर्थात् वह पुण्य-पापसे असंग हो जाता है।
वास्तवमें यह स्वयं (चेतन-स्वरूप) पुण्य-पापसे रहित है ही। केवल असत् पदार्थों- शरीरादिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही पुण्य- पाप लगते हैं। अगर यह असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध न जोड़े, तो यह आकाशकी तरह निर्लिप्त रहेगा, इसको पुण्य-पाप नहीं लगेंगे।
'तस्माद्योगाय युज्यस्व' - इसलिये तुम योगमें लग जाओ अर्थात् निरन्तर समतामें स्थित रहो। वास्तवमें समता तुम्हारा स्वरूप है। अतः तुम नित्य-निरन्तर समतामें ही स्थित रहते हो। केवल राग- द्वेषके कारण तुम्हारेको उस समताका अनुभव नहीं हो रहा है। अगर तुम हरदम समतामें स्थित न रहते, तो सुख और दुःखका ज्ञान तुम्हें कैसे होता; क्योंकि ये दोनों ही अलग-अलग हैं। जब इन दोनोंका तुम्हें ज्ञान होता है तो तुम इनके आने-जानेमें सदा समरूपसे रहते हो। इसी समताका तुम अनुभव करो।
'योगः कर्मसु कौशलम्' - कर्मोंमें योग ही कुशलता है अर्थात् कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें और उन कर्मोंके फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहना ही कर्मोंमें कुशलता है। उत्पत्ति-विनाशशील कर्मोंमें योगके सिवाय दूसरी कोई महत्त्वकी चीज नहीं है।
इन पदोंमें भगवान् ने योगकी परिभाषा नहीं बतायी है, प्रत्युत योगकी महिमा बतायी है। अगर इन पदोंका अर्थ 'कर्मोंमें कुशलता ही योग है'- ऐसा किया जाय तो क्या आपत्ति है? अगर ऐसा अर्थ किया जायगा तो जो बड़ी कुशलतासे, सावधानीपूर्वक चोरी करता है, उसका वह चोरीरूप कर्म भी योग हो जायगा। अतः ऐसा अर्थ करना अनुचित है। कोई कह सकता है कि हम तो विहित कर्मोंको ही कुशलतापूर्वक करनेका नाम योग मानते हैं। परन्तु ऐसा माननेसे मनुष्य कुशलतापूर्वक सांगोपांग किये गये कर्मोंके फलमें बँध जायगा, जिससे उसकी स्थिति समतामें नहीं रहेगी। अतः यहाँ 'कर्मोंमें योग ही कुशलता है' - ऐसा अर्थ लेना ही उचित है। कारण कि कर्मोंको करते हुए भी जिसके अन्तःकरणमें समता रहती है, वह कर्म और उनके फलमें बंधेगा नहीं। इसलिये उत्पत्ति-विनाशशील कर्मोंको करते हुए सम रहना ही कुशलता है, बुद्धिमानी है।
दूसरी बात, पीछेके दो श्लोकोंमें तथा इस श्लोकके पूर्वार्धमें भी योग (समता) का ही प्रसंग है, कुशलताका प्रसंग ही नहीं है। इसलिये भी 'कर्मोंमें योग ही कुशलता है'- यह अर्थ लेना प्रसंगके अनुसार युक्तियुक्त है।
परिशिष्ट भाव - इस श्लोकमें आये 'योगः कर्मसु कौशलम्' पदोंपर विचार करें तो इनके दो अर्थ लिये जा सकते हैं-
(१) 'कर्मसु कौशलं योगः' अर्थात् कर्मोंमें कुशलता ही योग
है।
(२) 'कर्मसु योगः कौशलम्' अर्थात् कर्मोंमें योग ही कुशलता है।
अगर पहला अर्थ लिया जाय कि 'कर्मोंमें कुशलता ही योग है' तो जो बड़ी कुशलतासे, सावधानीसे चोरी, ठगी आदि कर्म करता है, उसका कर्म 'योग' हो जायगा ! परन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है और यहाँ निषिद्ध कर्मोंका प्रसंग भी नहीं है। अगर यहाँ शुभ कर्मोंको ही कुशलतापूर्वक करनेका नाम 'योग' मानें तो मनुष्य कुशलतापूर्वक सांगोपांग किये हुए शुभ कर्मोंके फलसे बंध जायगा - 'फले सक्तो निबध्यते' (गीता ५। १२) । अतः उसकी स्थिति समतामें नहीं रहेगी और उसके दुःखोंका नाश नहीं होगा।
शास्त्रमें आया है- 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' अर्थात् कर्मोंसे मनुष्य बंध जाता है। अतः जो कर्म स्वभावसे ही मनुष्यको बाँधनेवाले हैं, वे ही मुक्ति देनेवाले हो जायँ- यही वास्तवमें कर्मोंमें कुशलता है। मुक्ति योग (समता) से होती है, कर्मोंमें कुशलतासे नहीं। योग (समता) का आदि और अन्त नहीं होता। परन्तु कर्म कितने ही बढ़िया हों, उनका आरम्भ तथा अन्त होता है और उनके फलका भी संयोग तथा वियोग होता है। जिसका आरम्भ और अन्त, संयोग तथा वियोग होता है, उसके द्वारा मुक्तिकी प्राप्ति कैसे होगी ? नाशवान् के द्वारा अविनाशीकी प्राप्ति कैसे होगी ? समता तो परमात्माका स्वरूप है- 'निर्दोषं हि समं ब्रह्म' (गीता ५। १९)। अतः महत्त्व योगका है, कर्मोंका नहीं।
अगर पहला अर्थ ही ठीक माना जाय तो भी 'कुशलता' के अन्तर्गत समता, निष्कामभावको ही लेना पड़ेगा। अगर कर्मोंमें कुशलता ही योग है तो कुशलता क्या है? इसके उत्तरमें यह कहना ही पड़ेगा कि योग (समता) ही कुशलता है। ऐसी स्थितिमें 'कर्मोंमें योग ही कुशलता है' ऐसा सीधा अर्थ क्यों न ले लिया जाय ? जब 'योगः कर्मसु कौशलम्' पदोंमें 'योग' शब्द आया ही है, तो फिर 'कुशलता' का अर्थ योग लेनेकी जरूरत ही नहीं है।
अगर प्रकरणपर विचार करें तो योग (समता) का ही प्रकरण चल रहा है, कर्मोंकी कुशलताका नहीं। भगवान् 'समत्वं योग उच्यते' कहकर योगकी परिभाषा भी बता चुके हैं। अतः इस प्रकरणमें योग ही विधेय है, कर्मोंमें कुशलता विधेय नहीं है। योग ही कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् कर्मोंको करते हुए हृदयमें समता रहे, राग-द्वेष न रहे-यही कर्मोंमें कुशलता है। इसलिये 'योगः कर्मसु कौशलम्'- यह योगकी परिभाषा नहीं है, प्रत्युत योगकी महिमा है।
इसी (पचासवें) श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान् ने कहा है कि समतासे युक्त मनुष्य पुण्य और पाप दोनोंसे रहित हो जाता है। अगर मनुष्य पुण्य और पाप दोनोंसे रहित हो जाय तो फिर कौन-सा कर्म कुशलतासे किया जायगा ? अतः पुण्य और पापसे रहित होनेका यह अर्थ नहीं है कि वह कोई भी क्रिया नहीं करता; क्योंकि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता (गीता-तीसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)। अतः यहाँ पुण्य और पाप दोनोंसे रहित होनेका अर्थ है- उनके फलसे रहित (मुक्त) होना। आगे इक्यावनवें श्लोकमें भी भगवान् ने 'फलं त्यक्त्वा' पदोंसे फलके त्यागकी बात कही है।"
"गीतामें 'कुशल' शब्दका प्रयोग अठारहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भी हुआ है। वहाँ 'अकुशल कर्म' के अन्तर्गत सकामभावसे किये जानेवाले और शास्त्रनिषिद्ध कर्म आये हैं तथा 'कुशल कर्म' के अन्तर्गत निष्कामभावसे किये जानेवाले शास्त्रविहित कर्म आये हैं। अकुशल और कुशल कर्मोंका तो आदि- अन्त होता है, पर योगका आदि-अन्त नहीं होता। बाँधनेवाले राग- द्वेष हैं, कुशल-अकुशल कर्म नहीं। अतः रागपूर्वक किये गये कर्म कितने ही श्रेष्ठ क्यों न हों, वे बाँधनेवाले हैं ही; क्योंकि उन कर्मों से ब्रह्मलोककी प्राप्ति भी हो जाय तो भी वहाँसे लौटकर पीछे आना पड़ता है (गीता-आठवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक)। इसलिये जो मनुष्य अकुशल कर्मका त्याग द्वेषपूर्वक नहीं करता और कुशल कर्मका आचरण रागपूर्वक नहीं करता, वही वास्तवमें त्यागी, बुद्धिमान्, सन्देहरहित और अपने स्वरूपमें स्थित है (गीता - अठारहवें अध्यायका दसवाँ श्लोक)।
उपर्युक्त विवेचनसे सिद्ध हुआ कि 'योगः कर्मसु कौशलम्' पदोंका अर्थ 'कर्मोंमें योग ही कुशलता है'- ऐसा ही मानना चाहिये। भगवान् भी योगमें स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं - 'योगस्थः कुरु कर्माणि' (२। ४८) । तात्पर्य है कि कर्मोंका महत्त्व नहीं है, प्रत्युत योग (समता) का ही महत्त्व है। अतः कर्मोंमें योग ही कुशलता है।
सम्बन्ध-अब पीछेके श्लोकको पुष्ट करनेके लिये भगवान् आगेके श्लोकमें उदाहरण देते हैं।"
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