ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 51 से 52 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge

 


श्री हरि

"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""

"भगवतगीता अध्याय 2  श्लोक 51 से 52"

"(श्लोक-५१)

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥

= हि = कारण कि, बुद्धियुक्ताः समतायुक्त, मनीषिणः = बुद्धिमान् साधक, कर्मजम् = कर्मजन्य, फलम् फलका अर्थात् संसारमात्रका, त्यक्त्वा = त्याग करके, जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः = जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर, अनामयम् = निर्विकार, पदम् = पदको, गच्छन्ति = प्राप्त हो जाते हैं।

व्याख्या 'कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः' - जो समतासे युक्त हैं, वे ही वास्तवमें मनीषी अर्थात् बुद्धिमान् हैं। अठारहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मोंसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मोंमें राग नहीं करता, वह मेधावी (बुद्धिमान्) है।

कर्म तो फलके रूपमें परिणत होता ही है। उसके फलका त्याग कोई कर ही नहीं सकता। जैसे, कोई खेतीमें निष्कामभावसे बीज बोये, तो क्या खेतीमें अनाज नहीं होगा? बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्मका फल तो मिलेगा ही, पर वह बन्धनकारक नहीं होगा। अतः यहाँ कर्मजन्य फलका त्याग करनेका अर्थ है- कर्मजन्य फलकी
इच्छा, कामना, ममता, वासनाका त्याग करना। इसका त्याग करनेमें सभी समर्थ हैं।

'जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः' - समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। कारण कि समतामें स्थित हो जानेसे उनमें राग-द्वेष, कामना, वासना, ममता आदि दोष किंचिन्मात्र भी नहीं रहते; अतः उनके पुनर्जन्मका कारण ही नहीं रहता। वे जन्म- मरणरूप बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाते हैं।

'पदं गच्छन्त्यनामयम्' - ' आमय' नाम रोगका है। रोग एक विकार है। जिसमें किंचिन्मात्र भी किसी प्रकारका विकार न हो, उसको 'अनामय' अर्थात् निर्विकार कहते हैं। समतायुक्त मनीषीलोग ऐसे निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं। इसी निर्विकार पदको पन्द्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'अव्यय पद' और अठारहवें अध्यायके छप्पनवें श्लोकमें 'शाश्वत अव्यय पद' नामसे कहा गया है। 

यद्यपि गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है (१४। ६), पर वास्तवमें अनामय (निर्विकार) तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है; क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है, जिसको प्राप्त होकर फिर किसीको भी जन्म-मरणके चक्करमें नहीं आना पड़ता। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें हेतु होनेसे भगवान् ने सत्त्वगुणको भी अनामय कह दिया है।

अनामय पदको प्राप्त होना क्या है? प्रकृति विकारशील है, तो उसका कार्य शरीर-संसार भी विकारशील हैं। स्वयं निर्विकार होते हुए भी जब यह विकारी शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह अपनेको भी विकारी मान लेता है। परन्तु जब यह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है, तब इसको अपने सहज निर्विकार स्वरूपका अनुभव हो जाता है। इस स्वाभाविक निर्विकारताका अनुभव होनेको ही यहाँ अनामय पदको प्राप्त होना कहा गया है।

इस श्लोकमें 'बुद्धियुक्ताः' और 'मनीषिणः' पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जो भी समतामें स्थित हो जाते हैं, वे सब-के- सब अनामय पदको प्राप्त हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। उनमेंसे कोई भी बाकी नहीं रहता। इस तरह समता अनामय पदकी प्राप्तिका अचूक उपाय है। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्ति- विनाशशील पदार्थोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तब स्वतः सिद्ध निर्विकारताका अनुभव हो जाता है। इसके लिये कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि उस निर्विकारताका निर्माण नहीं करना पड़ता, वह तो स्वतः-स्वाभाविक ही है। 

परिशिष्ट भाव - कर्मोंमें योग (समता) ही कुशलता क्यों है- इसका कारण 'हि' पदसे इस श्लोकमें बताते हैं।

सात्त्विक कर्मका फल निर्मल है, राजस कर्मका फल दुःख है और तामस कर्मका फल मूढ़ता है (गीता-चौदहवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक)- इन तीनों प्रकारके फलोंका समतायुक्त मनुष्य त्याग कर देता है। कर्मजन्य फलके त्यागके दो अर्थ हैं-फलकी इच्छाका त्याग करना और कर्मोंके फलस्वरूप अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होनेपर सुखी-दुःखी न होना।

वास्तवमें उत्पत्ति-विनाशशील सम्पूर्ण संसार कर्मफलके सिवाय और कुछ है ही नहीं। कर्मफलका त्याग कर दें तो फिर कोई भी बन्धन बाकी नहीं रहता।

'मनीषी' शब्दका अर्थ है- बुद्धिमान्। पूर्वश्लोकके अनुसार समतापूर्वक कर्म करना ही बुद्धिमत्ता है- 'स बुद्धिमान्मनुष्येषु' (गीता ४। १८)।

'पदं गच्छन्त्यनामयम्' - 'गच्छन्ति' पदके तीन अर्थ होते हैं- १-ज्ञान होना, २-गमन करना और ३-प्राप्त होना। यहाँ निर्विकार पदकी प्राप्तिका अर्थ है- जन्म-मरणसे रहितपनेका और निर्विकार पदकी स्वतःसिद्ध प्राप्तिका ज्ञान हो जाना। कारण कि नित्य- निवृत्तकी ही निवृत्ति होती है और नित्यप्राप्तकी ही प्राप्ति होती है।

इस श्लोकसे यह सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका, कल्याणप्राप्तिका स्वतन्त्र साधन है। कर्मयोगसे संसारकी निवृत्ति और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति- दोनों हो जाते हैं।

सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें बताये अनामय पदकी प्राप्तिका क्रम क्या है- इसे आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं।"
"(श्लोक-५२)

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥

यदा = जिस समय, ते तेरी, बुद्धिः बुद्धि, मोहकलिलम् = मोहरूपी दलदलको, व्यतितरिष्यति = भलीभाँति तर जायगी, तदा = उसी समय (तू), श्रुतस्य सुने हुए, च = और, श्रोतव्यस्य = सुननेमें आनेवाले (भोगोंसे), निर्वेदम् = वैराग्यको, गन्तासि = प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या' यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति' - शरीरमें अहंता और ममता करना तथा शरीर-सम्बन्धी माता-पिता, भाई- भौजाई, स्त्री-पुत्र, वस्तु, पदार्थ आदिमें ममता करना 'मोह' है। कारण कि इन शरीरादिमें अहंता-ममता है नहीं, केवल अपनी मानी हुई है। अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर प्रसन्न होना और प्रतिकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति आदिके प्राप्त होनेपर उद्विग्न होना, संसारमें- परिवारमें विषमता, पक्षपात, मात्सर्य आदि विकार होना-यह सब-का-सब 'कलिल' अर्थात् दलदल है। इस मोहरूपी दलदलमें जब बुद्धि फँस जाती है, तब मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। फिर उसे कुछ सूझता नहीं।

यह स्वयं चेतन होता हुआ भी शरीरादि जड पदार्थोंमें अहंता- ममता करके उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। पर वास्तवमें यह जिन-जिन चीजोंके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वे चीजें इसके साथ सदा नहीं रह सकतीं और यह भी उनके साथ सदा नहीं रह सकता। परन्तु मोहके कारण इसकी इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती, प्रत्युत यह अनेक प्रकारके नये-नये सम्बन्ध जोड़कर संसारमें अधिक-से- अधिक फँसता चला जाता है। जैसे कोई राहगीर अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँचनेसे पहले ही रास्तेमें अपना डेरा लगाकर खेल-कूद, हँसी-दिल्लगी आदिमें अपना समय बिता दे, ऐसे ही मनुष्य यहाँके नाशवान् पदार्थोंका संग्रह करनेमें और उनसे सुख लेनेमें तथा व्यक्ति, परिवार आदिमें ममता करके उनसे सुख लेनेमें लग गया। यही इसकी बुद्धिका मोहरूपी कलिलमें फँसना है।

हमें शरीरमें अहंता-ममता करके तथा परिवारमें ममता करके यहाँ थोड़े ही बैठे रहना है? इनमें ही फँसे रहकर अपनी वास्तविक उन्नति-(कल्याण) से वंचित थोड़े ही रहना है ? हमें तो इनमें न फँसकर अपना कल्याण करना है-ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाना ही बुद्धिका मोहरूपी दलदलसे तरना है। कारण कि ऐसा दृढ़ विचार होनेपर बुद्धि संसारके सम्बन्धोंको लेकर अटकेगी नहीं, संसारमें चिपकेगी नहीं।

मोहरूपी कलिलसे तरनेके दो उपाय हैं- विवेक और सेवा। विवेक (जिसका वर्णन दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक हुआ है) तेज होता है, तो वह असत् विषयोंसे अरुचि करा देता है। मनमें दूसरोंकी सेवा करनेकी, दूसरोंको सुख पहुँचानेकी धुन लग जाय तो अपने सुख-आरामका त्याग करनेकी शक्ति आ जाती है। दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव जितना तेज होगा, उतना ही अपने सुखकी इच्छाका त्याग होगा। जैसे शिष्यकी गुरुके लिये, पुत्रकी माता-पिताके लिये, नौकरकी मालिकके लिये सुख पहुँचानेकी इच्छा हो जाती है, तो उनकी अपने सुख-आरामकी इच्छा स्वतः सुगमतासे मिट जाती है। ऐसे ही कर्मयोगीका संसारमात्रकी सेवा करनेका भाव हो जाता है, तो उसकी अपने सुख-भोगकी इच्छा स्वतः मिट जाती है।

विवेक-विचारके द्वारा अपनी भोगेच्छाको मिटानेमें थोड़ी कठिनता पड़ती है। कारण कि अगर विवेक-विचार अत्यन्त दृढ़ न हो, तो वह तभीतक काम देता है, जबतक भोग सामने नहीं आते। जब भोग सामने आते हैं, तब साधक प्रायः उनको देखकर विचलित हो जाता है। परन्तु जिसमें सेवाभाव होता है, उसके सामने बढ़िया-से-बढ़िया भोग आनेपर भी वह उस भोगको दूसरोंकी सेवामें लगा देता है। अतः उसकी अपने सुख-आरामकी इच्छा सुगमतासे मिट जाती है। इसलिये भगवान् ने सांख्ययोगकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ (पाँचवें अध्यायका दूसरा श्लोक), सुगम (पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक) एवं जल्दी सिद्धि देनेवाला (पाँचवे अध्यायका छठा श्लोक) बताया है। 

'तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च'- मनुष्यने जितने भोगोंको सुन लिया है, भोग लिया है, अच्छी तरहसे अनुभव कर लिया है, वे सब भोग यहाँ 'श्रुतस्य' पदके अन्तर्गत हैं। स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदिके जितने भोग सुने जा सकते हैं, वे सब भोग यहाँ 'श्रोतव्यस्य '* पदके अन्तर्गत हैं।

* यहाँ 'श्रुतस्य' और 'श्रोतव्यस्य' पद शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इन पाँचों विषयोंके उपलक्षण हैं।

जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, तब इन 'श्रुत' - ऐहलौकिक और 'श्रोतव्य' - पारलौकिक भोगोंसे, विषयोंसे तुझे वैराग्य हो जायगा। तात्पर्य है कि जब बुद्धि मोहकलिलको तर जाती है, तब बुद्धिमें तेजीका विवेक जाग्रत् हो जाता है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है और मैं वही रहता हूँ; अतः इस संसारसे मेरेको शान्ति कैसे मिल सकती है ? मेरा अभाव कैसे मिट सकता है ? तब 'श्रुत' और 'श्रोतव्य' जितने विषय हैं, उन सबसे स्वतः वैराग्य हो जाता है।

यहाँ भगवान् को 'श्रुत' के स्थानपर भुक्त और 'श्रोतव्य' के स्थानपर भोक्तव्य कहना चाहिये था। परन्तु ऐसा न कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जो परोक्ष-अपरोक्ष विषयोंका आकर्षण होता है, वह सुननेसे ही होता है। अतः इनमें सुनना ही मुख्य है। संसारसे, विषयोंसे छूटनेके लिये जहाँ ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्गका वर्णन किया गया है, वहाँ भी 'श्रवण' को मुख्य बताया गया है। तात्पर्य है कि संसारमें और परमात्मामें लगनेमें सुनना ही मुख्य है।

यहाँ 'यदा' और 'तदा' कहनेका तात्पर्य है कि इन 'श्रुत' और 'श्रोतव्य' विषयोंसे इतने वर्षोंमें, इतने महीनोंमें और इतने दिनोंमें वैराग्य होगा- ऐसा कोई नियम नहीं है, प्रत्युत जिस क्षण बुद्धि मोहकलिलको तर जायगी, उसी क्षण 'श्रुत' और 'श्रोतव्य विषयोंसे, भोगोंसे वैराग्य हो जायगा। इसमें कोई देरीका काम नहीं है।"

ऐसी ही और वीडियो के लिए हमारे साथ जुड़े रहिए! अगर आपने अभी तक सब्सक्राइब नहीं किया है, तो अभी कर लीजिए और बेल आइकॉन दबाकर सभी नई अपडेट्स सबसे पहले पाएं। आपके विचार और सुझाव हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, इसलिए उन्हें साझा जरूर करें। साथ ही, अपने दोस्तों और परिवार के साथ भी यह चैनल शेयर करें ताकि हम सब मिलकर सीखते और आगे बढ़ते रहें!

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||


Comments

Popular posts from this blog

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 34 - 🧠 मन, बुद्धि और भक्ति से पाओ भगवान को!

📖 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 8, श्लोक 22 "परम सत्य की प्राप्ति का मार्ग"