ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 53 से 54 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
"श्री हरि
""""""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""""""
"भगवतगीता अध्याय 2
श्लोक 53 से 54"
"(श्लोक-५३)
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।
यदा = जिस कालमें, श्रुतिविप्रतिपन्ना = शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई, ते = तेरी, बुद्धिः बुद्धि, निश्चला = निश्चल, स्थास्यति = हो जायगी (और), समाधौ परमात्मामें, अचला = अचल (हो जायगी), तदा उस कालमें (तू), योगम् = योगको, अवाप्स्यसि = प्राप्त हो जायगा।
व्याख्या- [लौकिक मोहरूपी दलदलको तरनेपर भी नाना प्रकारके शास्त्रीय मतभेदोंको लेकर जो मोह होता है, उसको तरनेके लिये भगवान् इस श्लोकमें प्रेरणा करते हैं।]
'श्रुतिविप्रतिपन्ना ते ...... तदा योगमवाप्स्यसि ' - अर्जुनके मनमें यह श्रुतिविप्रतिपत्ति है कि अपने गुरुजनोंका, अपने कुटुम्बका नाश करना भी उचित नहीं है और अपने क्षात्रधर्म (युद्ध करने) का त्याग करना भी उचित नहीं है। एक तरफ तो कुटुम्बकी रक्षा हो और एक तरफ क्षात्रधर्मका पालन हो- इसमें अगर कुटुम्बकी रक्षा करें तो युद्ध नहीं होगा और युद्ध करें तो कुटुम्बकी रक्षा नहीं होगी - इन दोनों बातोंमें अर्जुनकी श्रुतिविप्रतिपत्ति है, जिससे उनकी बुद्धि विचलित हो रही है।*
* जाल दो प्रकारका है- संसारी और शास्त्रीय। संसारके मोहरूपी दलदलमें फँस जाना संसारी जालमें फँसना है और शास्त्रोंके, सम्प्रदायोंके द्वैत-अद्वैत आदि अनेक मत-मतान्तरोंमें उलझ जाना शास्त्रीय जालमें फँसना है। संसारी जाल तो उलझे हुए छटाँक सूतके समान है और शास्त्रीय जाल उलझे हुए सौ मन सूतके समान है। अतः भगवान् यहाँ यह बताते हैं कि संसारी और शास्त्रीय-इन दोनों जालोंमें बुद्धि निश्चल (एक निश्चयवाली) होनी चाहिये और परमात्मामें बुद्धि अचल होनी चाहिये कि हमें तो परमात्माकी ही प्राप्ति करनी है, चाहे जो हो जाय।
अतः भगवान् शास्त्रीय मतभेदोंमें बुद्धिको निश्चल और परमात्मप्राप्तिके विषयमें बुद्धिको अचल करनेकी प्रेरणा करते हैं।
पहले तो साधकमें इस बातको लेकर सन्देह होता है कि सांसारिक व्यवहारको ठीक किया जाय या परमात्माकी प्राप्ति की जाय ? फिर उसका ऐसा निर्णय होता है कि मुझे तो केवल संसारकी सेवा करनी है और संसारसे लेना कुछ नहीं है। ऐसा निर्णय होते ही साधककी भोगोंसे उपरति होने लगती है, वैराग्य होने लगता है। ऐसा होनेके बाद जब साधक परमात्माकी तरफ चलता है, तब उसके सामने साध्य और साधन-विषयक तरह-तरहके शास्त्रीय मतभेद आते हैं। इससे 'मेरेको किस साध्यको स्वीकार करना चाहिये और किस साधन-पद्धतिसे चलना चाहिये'- इसका निर्णय करना बड़ा कठिन हो जाता है। परन्तु जब साधक सत्संगके द्वारा अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यताका निर्णय कर लेता है अथवा निर्णय न हो सकनेकी दशामें भगवान् के शरण होकर उनको पुकारता है, तब भगवत्कृपासे उसकी बुद्धि निश्चल हो जाती है। दूसरी बात, सम्पूर्ण शास्त्र, सम्प्रदाय आदिमें जीव, संसार और परमात्मा- इन तीनोंका ही अलग-अलग रूपोंसे वर्णन किया गया है। इसमें विचारपूर्वक देखा जाय तो जीवका स्वरूप चाहे जैसा हो, पर जीव मैं हूँ- इसमें सब एकमत हैं और संसारका स्वरूप चाहे जैसा हो, पर संसारको छोड़ना है-इसमें सब एकमत हैं और परमात्माका स्वरूप चाहे जैसा हो, पर उसको प्राप्त करना है- इसमें सब एकमत हैं। ऐसा निर्णय कर लेनेपर साधककी बुद्धि निश्चल हो जाती है। मेरेको केवल परमात्माको ही प्राप्त करना है-ऐसा दृढ़ निश्चय होनेसे बुद्धि अचल हो जाती है। तब साधक सुगमतापूर्वक योग- परमात्माके साथ नित्ययोगको प्राप्त हो जाता है।
शास्त्रीय निर्णय करनेमें अथवा अपने कल्याणके निश्चयमें जितनी कमी रहती है, उतनी ही देरी लगती है। परन्तु इन दोनोंमें जब बुद्धि निश्चल और अचल हो जाती है, तब परमात्माके साथ नित्ययोगका अनुभव हो जाता है।
संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये बुद्धि 'निश्चल' होनी चाहिये, जिसको छठे अध्यायके तेईसवें श्लोकमें 'दुःखसंयोगवियोगम्' पदसे कहा गया है और परमात्मासे सम्बन्ध जोड़नेके लिये बुद्धि 'अचल' होनी चाहिये, जिसको दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें 'समत्वं योग उच्यते' पदोंसे कहा गया है।
यहाँ 'तदा योगमवाप्स्यसि' पदोंसे जो योगकी प्राप्ति बतायी है, वह योग ऐसा नहीं है कि पहले परमात्मासे वियोग था, उस वियोगको मिटा दिया तो योग हो गया, प्रत्युत असत् पदार्थोंके साथ भूलसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा वियोग हो जानेका नाम 'योग' है अर्थात् मनुष्यकी सदासे जो वास्तविक स्थिति (परमात्मासे नित्ययोग) है, उस स्थितिमें स्थित होना योग है। वह वास्तविक स्थिति ऐसी विलक्षण है कि उससे कभी वियोग होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं। उसमें संयोग, वियोग, योग आदि कोई भी शब्द लागू नहीं होता । केवल असत् से माने हुए सम्बन्धके त्यागको ही यहाँ योग संज्ञा दे दी है। वास्तवमें यह योग नित्ययोगका वाचक है। इस नित्ययोगकी अनुभूति कर्मोंके (सेवाके) द्वारा की जाय तो 'कर्मयोग', विवेक-विचारके द्वारा की जाय तो 'ज्ञानयोग', प्रेमके द्वारा की जाय तो 'भक्तियोग', संसारके लय-चिन्तनके द्वारा की जाय तो 'लययोग', प्राणायामके द्वारा की जाय तो 'हठयोग' और यम-नियमादि आठ अंगोंके द्वारा की जाय तो 'अष्टांगयोग' कहलाता है।
परिशिष्ट भाव - मोहके दो विभाग हैं- 'मोहकलिल' अर्थात्
सांसारिक मोह और 'श्रुतिविप्रतिपत्ति' अर्थात् शास्त्रीय (दार्शनिक) मोह। शरीर, स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति आदिमें राग होना 'सांसारिक मोह' है और द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि दार्शनिक मतभेदोंमें उलझ जाना 'शास्त्रीय मोह' है। इन दोनोंका त्याग करनेपर मनुष्यका भोगोंसे वैराग्य हो जाता है और उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। बुद्धि स्थिर होनेपर योगकी प्राप्ति हो जाती है अर्थात् परमात्मासे दूरी मिट जाती है और समीपता हो जाती है। कर्मयोगसे समीपता होती है, ज्ञानयोगसे अभेद होता है और भक्तियोगसे अभिन्नता होती है। कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनोंमेंसे एककी सिद्धि होनेपर साधक दोनोंके फलको प्राप्त कर लेता है (गीता-पाँचवें अध्यायका चौथा पाँचवाँ श्लोक)।
मनुष्यका केवल अपने कल्याणका उद्देश्य हो और धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब परिवार आदिसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध न हो तो वह सांसारिक मोहसे तर जाता है। पुस्तकोंकी पढ़ाई करनेका, शास्त्रोंकी बातें सीखनेका उद्देश्य न हो, प्रत्युत केवल तत्त्वका अनुभव करनेका उद्देश्य हो तो वह शास्त्रीय मोहसे तर जाता है। तात्पर्य है कि साधकको न तो सांसारिक मोहकी मुख्यता रखनी है और न शास्त्रीय (दार्शनिक) मतभेदकी मुख्यता रखनी है अर्थात् किसी मत, सम्प्रदायका कोई आग्रह नहीं रखना है। ऐसा होनेपर वह योगका, मुक्तिका अथवा भक्तिका अधिकारी हो जाता है। इससे अधिक किसी अधिकार-विशेषकी जरूरत नहीं है।
सम्बन्ध-मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्ति दूर होनेपर योगको प्राप्त हुए स्थिर बुद्धिवाले पुरुषके विषयमें अर्जुन प्रश्न करते हैं।"
"अर्जुन उवाच
(श्लोक-५४)
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥
अर्जुन बोले-
केशव = हे केशव!, समाधिस्थस्य = परमात्मामें स्थित, स्थितप्रज्ञस्य = स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके, का = क्या, भाषा = लक्षण होते हैं, स्थितधीः = (वह) स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य, किम् = कैसे, प्रभाषेत = बोलता है, किम् कैसे, आसीत = बैठता है (और), किम् = कैसे, व्रजेत चलता है अर्थात् व्यवहार करता है।
व्याख्या [यहाँ अर्जुनने स्थितप्रज्ञके विषयमें जो प्रश्न किये हैं, इन प्रश्नोंके पहले अर्जुनके मनमें कर्म और बुद्धि (दूसरे अध्यायके सैंतालीसवेंसे पचासवें श्लोकतक) को लेकर शंका पैदा हुई थी। परन्तु भगवान् ने बावनवें-तिरपनवें श्लोकोंमें कहा कि जब तेरी बुद्धि मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिको तर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा-यह सुनकर अर्जुनके मनमें शंका हुई कि जब मैं योगको प्राप्त हो जाऊँगा, स्थितप्रज्ञ हो जाऊँगा तब मेरे क्या लक्षण होंगे ? अतः अर्जुनने इस अपनी व्यक्तिगत शंकाको पहले पूछ लिया और कर्म तथा बुद्धिको लेकर अर्थात् सिद्धान्तको लेकर जो दूसरी शंका थी, उसको अर्जुनने स्थितप्रज्ञके लक्षणोंका वर्णन होनेके बाद (तीसरे अध्यायके पहले दूसरे श्लोकमें) पूछ लिया। अगर अर्जुन सिद्धान्तका प्रश्न यहाँ चौवनवें श्लोकमें ही कर लेते तो स्थितप्रज्ञके विषयमें प्रश्न करनेका अवसर बहुत दूर पड़ जाता ।]
'समाधिस्थस्य - जो मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो चुका है, उसके लिये यहाँ 'समाधिस्थ' पद आया है।
१-यहाँ 'समाधि' पद परमात्माका वाचक है। इसीको पहले चौवालीसवें श्लोकमें 'समाधौ न विधीयते' पदोंसे कहा है।
'स्थितप्रज्ञस्य' - यह पद साधक और सिद्ध दोनोंका वाचक है। जिसका विचार दृढ़ है, जो साधनसे कभी विचलित नहीं होता, ऐसा साधक भी स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धिवाला) है और परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे जिसकी बुद्धि स्थिर हो चुकी है, ऐसा सिद्ध भी स्थितप्रज्ञ है। अतः यहाँ 'स्थितप्रज्ञ' शब्दसे साधक और सिद्ध दोनों लिये गये हैं। पहले इकतालीसवेंसे पैंतालीसवें श्लोकतक और सैंतालीसवेंसे तिरपनवें श्लोकतक साधकोंका वर्णन हुआ है; अतः आगेके श्लोकोंमें सिद्धके लक्षणोंमें साधकोंका भी वर्णन हुआ है।
यहाँ शंका होती है कि अर्जुनने तो 'समाधिस्थस्य' पदसे सिद्ध स्थितप्रज्ञकी बात ही पूछी थी, पर भगवान् ने स्थितप्रज्ञके लक्षणोंमें साधकोंकी बातें क्यों कहीं? इसका समाधान है कि ज्ञानयोगी साधककी तो प्रायः साधन अवस्थामें ही कर्मोंसे उपरति हो जाती है। सिद्ध-अवस्थामें वह कर्मोंसे विशेष उपराम हो जाता है। भक्तियोगी साधककी भी साधन-अवस्थामें जप, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्म करनेकी रुचि होती है और इनकी बहुलता भी होती है। सिद्ध-अवस्थामें तो भगवत्सम्बन्धी कर्म विशेषतासे होते हैं। इस तरह ज्ञानयोगी और भक्तियोगी- दोनोंकी साधन और सिद्ध- अवस्थामें अन्तर आ जाता है, पर कर्मयोगीकी साधन और सिद्ध- अवस्थामें अन्तर नहीं आता। उसका दोनों अवस्थाओंमें कर्म करनेका प्रवाह ज्यों-का-त्यों चलता रहता है। कारण कि साधन- अवस्थामें उसका कर्म करनेका प्रवाह रहा है और उसके योगपर आरूढ़ होनेमें भी कर्म ही खास कारण रहे हैं। अतः भगवान् ने सिद्धके लक्षणोंमें, साधक जिस तरह सिद्ध हो सके, उसके साधन भी बता दिये हैं और जो सिद्ध हो गये हैं, उनके लक्षण भी बता दिये हैं।
'का भाषा- परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यको किस वाणीसे कहा जाता है अर्थात् उसके क्या लक्षण होते हैं? (इसका उत्तर भगवान् ने आगेके श्लोकमें दिया है।)
२-'कया भाषया (वाण्या) भाष्यत इति भाषा।'
'स्थितधीः किं प्रभाषेत' - वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है ? (इसका उत्तर भगवान् ने छप्पनवें- सत्तावनवें श्लोकमें दिया है।)
'किमासीत' वह कैसे बैठता है अर्थात् संसारसे किस तरह उपराम होता है? (इसका उत्तर भगवान् ने अट्ठावनवें श्लोकसे तिरसठवें श्लोकतक दिया है।)
'व्रजेत किम्'- वह कैसे चलता है अर्थात् व्यवहार कैसे करता है ? (इसका उत्तर भगवान् ने चौंसठवेंसे इकहत्तरवें श्लोकतक दिया है।)
सम्बन्ध - अब भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुनके पहले प्रश्नका उत्तर देते है।"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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