ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 56 से 57 #BhagavadGita, #SpiritualKnowledge, #GeetaGyan, #Motivation, #LifeSolutions, #ArjunaKrishnaDialogue
श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥"
नमस्कार दोस्तों! आज के इस वीडियो में हम श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 56 और 57 की चर्चा करेंगे। इन श्लोकों में श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति के मनोभाव कैसे होते हैं और कैसे वह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखता है। अगर आप जीवन में स्थिरता और शांति चाहते हैं, तो इस वीडियो को अंत तक ज़रूर देखें।
पिछले वीडियो में हमने श्लोक 54 और 55 की चर्चा की थी, जहाँ अर्जुन ने श्रीकृष्ण से स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति के लक्षणों के बारे में प्रश्न किया था। श्रीकृष्ण ने हमें बताया था कि एक स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति कामनाओं से मुक्त और आत्म-संतुष्ट होता है। अगर आपने वह वीडियो मिस कर दिया है, तो उसे ज़रूर देखें।
आज के श्लोक 56 में श्रीकृष्ण बताते हैं कि स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति सुख और दुख दोनों में समान रहता है और उसे किसी भी परिस्थिति में हर्ष या शोक नहीं होता। वहीं, श्लोक 57 में उन्होंने यह बताया कि ऐसा व्यक्ति अच्छे और बुरे कर्मों के फल को समान रूप से ग्रहण करता है और उसकी बुद्धि स्थिर रहती है।
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 56 से 57
"स्थिरबुद्धि पुरुषको दुःखोंमें अनुद्विग्न, सुखोंमें निःस्पृह और शुभाशुभकी प्राप्तिमें हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित कहकर दूसरे प्रश्नका उत्तर देना।
(श्लोक-५६)
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
दुःखेषु, अनुद्विग्नमनाः, सुखेषु, विगतस्पृहः, वीतरागभयक्रोधः, स्थितधीः, मुनिः, उच्यते ॥ ५६ ॥
दुःखेषु अर्थात दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर, अनुद्विग्नमनाः अर्थात जिसके मनमें, उद्वेग नहीं होता, सुखेषु अर्थात सुखोंकी प्राप्तिमें, विगतस्पृहः अर्थात जो सर्वथा निःस्पृह है (तथा), वीतरागभयक्रोधः अर्थात जिसके राग भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं (ऐसा), मुनिः अर्थात मुनि, स्थितधीः अर्थात स्थिरबुद्धि, उच्यते अर्थात कहा जाता है।"
"व्याख्या [अर्जुनने तो 'स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है?' ऐसा क्रियाकी प्रधानताको लेकर प्रश्न किया था, पर भगवान् भावकी प्रधानताको लेकर उत्तर देते हैं; क्योंकि क्रियाओंमें भाव ही मुख्य है। क्रियामात्र भावपूर्वक ही होती है। भाव बदलनेसे क्रिया बदल जाती है अर्थात् बाहरसे क्रिया वैसी ही दीखनेपर भी वास्तवमें क्रिया वैसी नहीं रहती। उसी भावकी बात भगवान् यहाँ कह रहे हैं * ।]
* गीतामें अर्जुनने जहाँ-कहीं भी क्रियाकी प्रधानताको लेकर प्रश्न किया है, उसका उत्तर भगवान् ने भाव और बोधकी प्रधानताको लेकर ही दिया है। कारण कि क्रियाओंमें भाव और बोध ही मुख्य हैं। भाव और बोधके अनुसार ही क्रियाएँ होती हैं। जैसे, अर्जुनने चौदहवें अध्यायमें पूछा कि गुणातीत पुरुषके आचरण कैसे होते हैं? तो भगवान् ने भावकी मुख्यताको लेकर उत्तर दिया कि उसके आचरण समतापूर्वक होते हैं।
'दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः ' - दुःखोंकी सम्भावना और उनकी प्राप्ति होनेपर भी जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता अर्थात् कर्तव्य-कर्म करते समय कर्म करनेमें बाधा लग जाना, निन्दा अपमान होना, कर्मका फल प्रतिकूल होना आदि-आदि प्रतिकूलताएँ आनेपर भी उसके मनमें उद्वेग नहीं होता।
कर्मयोगीके मनमें उद्वेग, हलचल न होनेका कारण यह है कि उसका मुख्य कर्तव्य होता है- दूसरोंके हितके लिये कर्म करना, कर्मोंको सांगोपांग करना, कर्मोंके फलमें कहीं आसक्ति, ममता, कामना न हो जाय- इस विषयमें सावधान रहना। ऐसा करनेसे उसके मनमें एक प्रसन्नता रहती है। उस प्रसन्नताके कारण कितनी ही प्रतिकूलता आनेपर भी उसके मनमें उद्वेग नहीं होता।
'सुखेषु विगतस्पृहः' - सुखोंकी सम्भावना और उनकी प्राप्ति होनेपर भी जिसके भीतर स्पृहा नहीं होती अर्थात् वर्तमानमें कर्मोंका सांगोपांग हो जाना, तात्कालिक आदर और प्रशंसा होना, अनुकूल फल मिल जाना आदि-आदि अनुकूलताएँ आनेपर भी उसके मनमें 'यह परिस्थिति ऐसी ही बनी रहे; यह परिस्थिति सदा मिलती रहे'- ऐसी स्पृहा नहीं होती। उसके अन्तःकरणमें अनुकूलताका कुछ भी असर नहीं होता।
'वीतरागभयक्रोधः' - संसारके पदार्थोंका मनपर जो रंग चढ़ जाता है उसको 'राग' कहते हैं। पदार्थोंमें राग होनेपर अगर कोई सबल व्यक्ति उन पदार्थोंका नाश करता है, उनसे सम्बन्ध विच्छेद कराता है, उनकी प्राप्तिमें विघ्न डालता है, तो मनमें 'भय' होता है। अगर वह व्यक्ति निर्बल होता है, तो मनमें 'क्रोध' होता है। परन्तु जिसके भीतर दूसरोंको सुख पहुँचानेका, उनका हित करनेका, उनकी सेवा करनेका भाव जाग्रत् हो जाता है, उसका राग स्वाभाविक ही मिट जाता है। रागके मिटनेसे भय और क्रोध भी नहीं रहते। अतः वह राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो जाता है।
जबतक आंशिकरूपसे उद्वेग, स्पृहा, राग, भय और क्रोध रहते हैं, तबतक वह साधक होता है। इनसे सर्वथा रहित होनेपर वह सिद्ध हो जाता है।
[वासना, कामना आदि सभी एक रागके ही स्वरूप हैं। केवल वासनाका तारतम्य होनेसे उसके अलग-अलग नाम होते हैं; जैसे अन्तःकरणमें जो छिपा हुआ राग रहता है, उसका नाम 'वासना' है। उस वासनाका ही दूसरा नाम 'आसक्ति' और प्रियता है। मेरेको वस्तु मिल जाय-ऐसी जो इच्छा होती है, उसका नाम 'कामना' है। कामना पूरी होनेकी जो सम्भावना है, उसका नाम 'आशा' है। कामना पूरी होनेपर भी पदार्थोंके बढ़नेकी तथा पदार्थोंके और मिलनेकी जो इच्छा होती है, उसका नाम 'लोभ' है। लोभकी मात्रा अधिक बढ़ जानेका नाम 'तृष्णा' है। तात्पर्य है कि उत्पत्ति- विनाशशील पदार्थोंमें जो खिंचाव है, श्रेष्ठ और महत्त्व-बुद्धि है, उसीको वासना, कामना आदि नामोंसे कहते हैं ।।
'स्थितधीर्मुनिरुच्यते'- ऐसे मननशील कर्मयोगीकी बुद्धि स्थिर, अटल हो जाती है। 'मुनि' शब्द वाणीपर लागू होता है, इसलिये भगवान् ने 'किं प्रभाषेत' के उत्तरमें 'मुनि' शब्द कह दिया है। परंतु वास्तवमें 'मुनि' शब्द केवल वाणीपर ही अवलम्बित नहीं है। इसीलिये भगवान् ने सत्रहवें अध्यायमें 'मौन' शब्दका प्रयोग मानसिक तपमें किया है, वाणीके तपमें नहीं (सत्रहवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक)।
कर्मयोगका प्रकरण होनेसे यहाँ मननशील कर्मयोगीको मुनि कहा गया है। मननशीलताका तात्पर्य है- सावधानीका मनन, जिससे कि मनमें कोई कामना-आसक्ति न आ जाय। निरन्तर अनासक्त रहना ही सिद्ध कर्मयोगीकी सावधानी है; क्योंकि पहले साधक अवस्थामें उसकी ऐसी सावधानी रही है (गीता- तीसरे अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) और इसीसे वह परमात्मतत्त्वको प्राप्त हुआ है।"
"(श्लोक-५७)
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्-तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
यः, सर्वत्र, अनभिस्नेहः, तत्, तत्, प्राप्य, शुभाशुभम्, न, अभिनन्दति, न, द्वेष्टि, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
यः अर्थात जो पुरुष, सर्वत्र अर्थात सर्वत्र, अनभिस्नेहः अर्थात स्नेहरहित हुआ, तत् तत् अर्थात उस-उस, शुभाशुभम् अर्थात शुभ या अशुभ, (वस्तु) को, प्राप्य अर्थात प्राप्त होकर, न अर्थात न, अभिनन्दति अर्थात प्रसन्न होता है, (और), न अर्थात न, द्वेष्टि अर्थात द्वेष करता है, तस्य अर्थात उसकी, प्रज्ञा अर्थात बुद्धि, प्रतिष्ठिता अर्थात स्थिर है।"
"व्याख्या- पूर्वश्लोकमें तो भगवान् ने कर्तव्यकर्म करते हुए निर्विकार रहनेकी बात बतायी। अब इस श्लोकमें कर्मोंके अनुसार प्राप्त होनेवाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें सम, निर्विकार रहनेकी बात बताते हैं।]
'यः सर्वत्रानभिस्नेहः' - जो सब जगह स्नेहरहित है अर्थात् जिसकी अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि एवं स्त्री, पुत्र, घर, धन आदि किसीमें भी आसक्ति, लगाव नहीं रहा है।
वस्तु आदिके बने रहनेसे मैं बना रहा और उनके बिगड़ जानेसे मैं बिगड़ गया, धनके आनेसे मैं बड़ा हो गया और धनके चले जानेसे मैं मारा गया-यह जो वस्तु आदिमें एकात्मताकी तरह स्नेह है, उसका नाम 'अभिस्नेह' है। स्थितप्रज्ञ कर्मयोगीका किसी भी वस्तु आदिमें यह अभिस्नेह बिलकुल नहीं रहता। बाहरसे वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिका संयोग रहते हुए भी वह भीतरसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है।
'तत्तत्प्राप्य शुभाशुभं नाभिनन्दति न देष्टि'- जब उस मनुष्यके सामने प्रारब्धवशात् शुभ-अशुभ, शोभनीय-अशोभनीय, अच्छी-मन्दी, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, तब वह अनुकूल परिस्थितिको लेकर अभिनन्दित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर द्वेष नहीं करता।
अनुकूल परिस्थितिको लेकर मनमें जो प्रसन्नता आती है और वाणीसे भी प्रसन्नता प्रकट की जाती है तथा बाहरसे भी उत्सव मनाया जाता है- यह उस परिस्थितिका अभिनन्दन करना है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर मनमें जो दुःख होता है, खिन्नता होती है कि यह कैसे और क्यों हो गया! यह नहीं होता तो अच्छा था, अब यह जल्दी मिट जाय तो ठीक है- यह उस परिस्थितिसे द्वेष करना है। सर्वत्र स्नेहरहित, निर्लिप्त हुआ मनुष्य अनुकूलताको लेकर अभिनन्दन नहीं करता और प्रतिकूलताको लेकर द्वेष नहीं करता। तात्पर्य है कि उसको अनुकूल-प्रतिकूल, अच्छे-मन्दे अवसर प्राप्त होते रहते हैं, पर उसके भीतर सदा निर्लिप्तता बनी रहती है।
'तत्, तत्' कहनेका तात्पर्य है कि जिन-जिन अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिसे विकार होनेकी सम्भावना रहती है और साधारण लोगोंमें विकार होते हैं, उन-उन अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु आदिके कहीं भी, कभी भी और कैसे भी प्राप्त होनेपर उसको अभिनन्दन और द्वेष नहीं होता।
'तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'- उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है, एकरस और एकरूप है। साधनावस्थामें उसकी जो व्यवसायात्मिका बुद्धि थी, वह अब परमात्मामें अचल अटल हो गयी है। उसकी बुद्धिमें यह विवेक पूर्णरूपसे जाग्रत् हो गया है कि संसारमें अच्छे-मन्देके साथ वास्तवमें मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि ये अच्छे-मन्दे अवसर तो बदलनेवाले हैं, पर मेरा स्वरूप न बदलनेवाला है; अतः बदलनेवालेके साथ न बदलनेवालेका सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?
वास्तवमें देखा जाय तो फर्क न तो स्वरूपमें पड़ता है और न शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें। कारण कि अपना जो स्वरूप है, उसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति तथा प्रकृतिके कार्य शरीरादि स्वाभाविक ही बदलते रहते हैं। तो फर्क कहाँ पड़ता है ? शरीरसे तादात्म्य होनेके कारण बुद्धिमें फर्क पड़ता है। जब यह तादात्म्य मिट जाता है, तब बुद्धिमें जो फर्क पड़ता था, वह मिट जाता है और बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।
दूसरा भाव यह है कि किसीकी बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धिसे परमात्माके विषयमें कितना ही विचार क्यों न करता हो, पर वह परमात्माको अपनी बुद्धिके अन्तर्गत नहीं ला सकता। कारण कि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीम अनन्त हैं। परन्तु उस असीम परमात्मामें जब बुद्धि लीन हो जाती है, तब उस सीमित बुद्धिमें परमात्माके सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रहती - यही बुद्धिका परमात्मामें प्रतिष्ठित होना है।
कर्मयोगी क्रियाशील होता है। अतः भगवान् ने छप्पनवें श्लोकमें क्रियाकी सिद्धि-असिद्धिमें अस्पृहा और उद्वेग-रहित होनेकी बात कही तथा इस श्लोकमें प्रारब्धके अनुसार अपने-आप अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर अभिनन्दन और द्वेषसे रहित होनेकी बात कहते हैं।
सम्बन्ध-अब भगवान् आगेके श्लोकसे 'स्थितप्रज्ञ कैसे बैठता है?' इस तीसरे प्रश्नका उत्तर आरम्भ करते हैं।"
कल के वीडियो में हम श्लोक 58 और 59 की चर्चा करेंगे, जहाँ श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि कैसे एक स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करता है और किस तरह वह विषयों के संपर्क में आकर भी उनसे प्रभावित नहीं होता।
"ऐसी ही और वीडियो के लिए हमारे साथ जुड़े रहिए! अगर आपने अभी तक सब्सक्राइब नहीं किया है, तो अभी कर लीजिए और बेल आइकॉन दबाकर सभी नई अपडेट्स सबसे पहले पाएं। आपके विचार और सुझाव हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, इसलिए उन्हें साझा जरूर करें। साथ ही, अपने दोस्तों और परिवार के साथ भी यह चैनल शेयर करें ताकि हम सब मिलकर सीखते और आगे बढ़ते रहें!
हम लाए हैं आपके लिए एक खास ऑफर! आपने आज के वीडियो से क्या सीखा, हमारे साथ कमेंट सेक्शन में शेयर करें। जिस कमेंट को सबसे ज्यादा लाइक्स मिलेंगे, उसे हमारी तरफ से एक खास गिफ्ट मिलेगा Whatsapp Group Join kare aur Apni details Share Kare Link In description
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।"
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
Comments
Post a Comment