ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 58 से 59 #BhagavadGita, #SpiritualKnowledge, #GeetaGyan, #Motivation, #LifeSolutions, #ArjunaKrishnaDialogue
श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥"
नमस्कार मित्रों! आज के इस वीडियो में हम श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 58 और 59 की चर्चा करेंगे। इन श्लोकों में श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि एक स्थिरबुद्धि व्यक्ति अपनी इंद्रियों को कैसे नियंत्रित करता है और कैसे वह विषयों के संपर्क में आकर भी उनसे प्रभावित नहीं होता। अगर आप भी अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण पाना चाहते हैं, तो इस वीडियो को अंत तक ज़रूर देखें।
पिछले वीडियो में हमने श्लोक 56 और 57 की चर्चा की थी, जहाँ हमने जाना कि स्थिरबुद्धि व्यक्ति सुख और दुख में समान रहता है और अच्छे-बुरे कर्मों के फल को समान रूप से ग्रहण करता है। अगर आपने वह वीडियो मिस कर दिया है, तो उसे ज़रूर देखें।
आज के श्लोक 58 में श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि जैसे कछुआ अपने अंगों को संकुचित कर लेता है, वैसे ही एक स्थिरबुद्धि व्यक्ति भी अपनी इंद्रियों को विषयों से हटाकर अपने भीतर केंद्रित कर लेता है। श्लोक 59 में उन्होंने यह भी बताया कि इंद्रियों का संयम तभी स्थायी होता है जब व्यक्ति परमात्मा में स्थित होता है।
"भगवतगीता अध्याय 2
श्लोक 58 से 59"
"तीसरे प्रश्नके उत्तरमें कछुएका उदाहरण देते हुए इन्द्रिय- निग्रहकी बात कहना।
(श्लोक-५८)
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्-तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
उच्चारण की विधि
यदा, संहरते, च, अयम्, कूर्मः, अङ्गानि, इव, सर्वशः, इन्द्रियाणि, इन्द्रियार्थेभ्यः, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥
च अर्थात और, कूर्मः अर्थात कछुआ, सर्वशः अर्थात सब ओरसे (अपने), अंगानि अर्थात अंगोंको, इव जैसे (समेट लेता है, वैसे ही), यदा अर्थात जब, अयम् अर्थात यह पुरुष, इन्द्रियार्थेभ्यः अर्थात इन्द्रियोंके विषयोंसे, इन्द्रियाणि इन्द्रियोंको, संहरते अर्थात सब प्रकारसे हटा लेता है, (तब), तस्य उसकी, प्रज्ञा अर्थात बुद्धि, प्रतिष्ठिता अर्थात स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये)।"
"व्याख्या'यदा संहरते..... प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'- यहाँ कछुएका दृष्टान्त देनेका तात्पर्य है कि जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः अंग दीखते हैं-चार पैर, एक पूँछ और एक मस्तक। परन्तु जब वह अपने अंगोंको छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखायी देती है। ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पाँच इन्द्रियाँ और एक मन-इन छहोंको अपने-अपने विषयसे हटा लेता है। अगर उसका इन्द्रियों आदिके साथ किंचिन्मात्र भी मानसिक सम्बन्ध बना रहता है, तो वह स्थितप्रज्ञ नहीं होता।
यहाँ 'संहरते' क्रिया देनेका मतलब यह हुआ कि वह स्थितप्रज्ञ विषयोंसे इन्द्रियोंका उपसंहार कर लेता है अर्थात् वह मनसे भी विषयोंका चिन्तन नहीं करता।
इस श्लोकमें 'यदा' पद तो दिया है, पर 'तदा' पद नहीं दिया है। यद्यपि 'यत्तदोर्नित्यसम्बन्धः' के अनुसार जहाँ 'यदा' आता है, वहाँ 'तदा' का अध्याहार लिया जाता है अर्थात् 'यदा' पदके अन्तर्गत ही 'तदा' पद आ जाता है, तथापि यहाँ 'तदा' पदका प्रयोग न करनेका एक गहरा तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके अपने-अपने विषयोंसे सर्वथा हट जानेसे स्वतः सिद्ध तत्त्वका जो अनुभव होता है, वह कालके अधीन, कालकी सीमामें नहीं है। कारण कि वह अनुभव किसी क्रिया अथवा त्यागका फल नहीं है। वह अनुभव उत्पन्न होनेवाली वस्तु नहीं है। अतः यहाँ कालवाचक 'तदा' पद देनेकी जरूरत नहीं है। इसकी जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ कोई वस्तु किसी वस्तुके अधीन होती है। जैसे आकाशमें सूर्य रहनेपर भी आँखें बंद कर लेनेसे सूर्य नहीं दीखता और आँखें खोलते ही सूर्य दीख जाता है, तो यहाँ सूर्य और आँखोंमें कार्य-कारणका सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आँखें खुलनेसे सूर्य पैदा नहीं हुआ है। सूर्य तो पहलेसे ज्यों-का-त्यों ही है। आँखें बंद करनेसे पहले भी सूर्य वैसा ही है और आँखें बंद करनेपर भी सूर्य वैसा ही है। केवल आँखें बंद करनेसे हमें उसका अनुभव नहीं हुआ था। ऐसे ही यहाँ इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेसे स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका जो अनुभव हुआ है, वह अनुभव मनसहित इन्द्रियोंका विषय नहीं है। तात्पर्य है कि वह स्वतःसिद्ध तत्त्व भोगों (विषयों) के साथ सम्बन्ध रखते हुए और भोगोंको भोगते हुए भी वैसा ही है। परन्तु भोगोंके साथ सम्बन्धरूप परदा रहनेसे उसका अनुभव नहीं होता और यह परदा हटते ही उसका अनुभव हो जाता है।
सम्बन्ध-केवल इन्द्रियोंका विषयोंसे हट जाना ही स्थितप्रज्ञका लक्षण नहीं है-इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
"इन्द्रियोंद्वारा हठपूर्वक विषयोंका ग्रहण न करनेसे विषयोंकी निवृत्ति होनेपर भी रागकी निवृत्ति न होनेका और परमात्मदर्शनसे होनेका कथन ।
(श्लोक-५९)
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
उच्चारण की विधि
विषयाः, विनिवर्तन्ते, निराहारस्य, देहिनः, रसवर्जम्, रसः, अपि, अस्य, परम्, दृष्द्वा, निवर्तते ॥
५९॥
निराहारस्य अर्थात (इन्द्रियोंके द्वारा) विषयोंको ग्रहण न करनेवाले, देहिनः अर्थात पुरुषके (भी केवल), विषयाः अर्थात विषय (तो), विनिवर्तन्ते अर्थात निवृत्त हो जाते हैं (परंतु उनमें रहनेवाली), रसवर्जम् अर्थात आसक्ति निवृत्त नहीं होती, अस्य अर्थात इस स्थितप्रज्ञ पुरुषकी (तो), रसः अर्थात आसक्ति, अपि अर्थात भी,
परम् अर्थात परमात्माका, दृष्ट्वा अर्थात साक्षात्कार करके, निवर्तते अर्थात निवृत्त हो जाती है।"
"व्याख्या-'विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः रसवर्जम्'- मनुष्य निराहार दो तरहसे होता है- (१) अपनी इच्छासे भोजनका त्याग कर देना अथवा बीमारी आनेसे भोजनका त्याग हो जाना और (२) सम्पूर्ण विषयोंका त्याग करके एकान्तमें बैठना अर्थात् इन्द्रियोंको विषयोंसे हटा लेना।
यहाँ इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले साधकके लिये ही 'निराहारस्य' पद आया है।
रोगीके मनमें यह रहता है कि क्या करूँ, शरीरमें पदार्थोंका सेवन करनेकी सामर्थ्य नहीं है, इसमें मेरी परवशता है; परन्तु जब मैं ठीक हो जाऊँगा, शरीरमें शक्ति आ जायगी, तब मैं पदार्थोंका सेवन करूँगा। इस तरह उसके भीतर रसबुद्धि रहती है। ऐसे ही इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेपर विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर साधकके भीतर विषयोंमें जो रसबुद्धि, सुखबुद्धि है, वह जल्दी निवृत्त नहीं होती।
जिनका स्वाभाविक ही विषयोंमें राग नहीं है और जो तीव्र वैराग्यवान् हैं, उन साधकोंकी रसबुद्धि साधनावस्थामें ही निवृत्त हो जाती है। परन्तु जो तीव्र वैराग्यके बिना ही विचारपूर्वक साधनमें लगे हुए हैं; उन्हीं साधकोंके लिये यह कहा गया है कि विषयोंका त्याग कर देनेपर भी उनकी रसबुद्धि निवृत्त नहीं होती।
'रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते'- इस स्थितप्रज्ञकी रसबुद्धि परमात्माका अनुभव हो जानेपर निवृत्त हो जाती है। रसबुद्धि निवृत्त होनेसे वह स्थितप्रज्ञ हो ही जाता है- यह नियम नहीं है। परन्तु स्थितप्रज्ञ होनेसे रसबुद्धि नहीं रहती - यह नियम है।
'रसोऽप्यस्य' पदसे यह तात्पर्य निकलता है कि रसबुद्धि साधककी अहंतामें अर्थात् 'मैं' पनमें रहती है। यही रसबुद्धि स्थूलरूपसे रागका रूप धारण कर लेती है। अतः साधकको चाहिये कि वह अपनी अहंतासे ही रसको निकाल दे कि 'मैं तो निष्काम हूँ; राग करना, कामना करना मेरा काम नहीं है'। इस प्रकार निष्कामभाव आ जानेसे अथवा निष्काम होनेका उद्देश्य होनेसे रसबुद्धि नहीं रहती और परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे रसकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है।
परिशिष्ट भाव - भोगोंकी सत्ता और महत्ता माननेसे अन्तःकरणमें भोगोंके प्रति एक सूक्ष्म खिंचाव, प्रियता, मिठास पैदा होती है, उसका नाम 'रस' है। किसी लोभी व्यक्तिको रुपये मिल जायँ और कामी व्यक्तिको स्त्री मिल जाय तो भीतर-ही-भीतर एक खुशी आती है, यही 'रस' है। भोग भोगनेके बाद मनुष्य कहता है कि 'बड़ा मजा आया'- यह उस रसकी ही स्मृति है। यह रस अहम् (चिज्जड़ग्रन्थि) में रहता है। इसी रसका स्थूल रूप राग, सुखासक्ति है।
जबतक संयोगजन्य सुखमें रसबुद्धि रहती है, तबतक प्रकृति तथा उसके कार्य (क्रिया, पदार्थ और व्यक्ति) की पराधीनता रहती ही है। रसबुद्धि निवृत्त होनेपर पराधीनता सर्वथा मिट जाती है, भोगोंके सुखकी परवशता नहीं रहती, भीतरसे भोगोंकी गुलामी नहीं रहती।
जबतक अन्तःकरणमें किंचिन्मात्र भी भोगोंकी सत्ता और महत्ता रहती है, भोगोंमें रसबुद्धि रहती है, तबतक परमात्माका अलौकिक रस प्रकट नहीं होता। परमात्माके अलौकिक रसकी तो बात ही क्या, परमात्माकी प्राप्ति करनी है- यह निश्चय भी नहीं होता (गीता - दूसरे अध्यायका चौवालीसवाँ श्लोक)। बाहरसे इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेपर अर्थात् भोगोंका त्याग करनेपर भी भीतरमें रसबुद्धि बनी रहती है। तत्त्वबोध होनेपर यह रसबुद्धि सूख जाती है, निवृत्त हो जाती है- 'परं दृष्ट्वा निवर्तते।' तात्पर्य है कि जब संसारसे अपनी भिन्नता तथा परमात्मासे अपनी अभिन्नताका अनुभव हो जाता है, तब नाशवान् (संयोगजन्य) रसकी निवृत्ति हो जाती है। नाशवान् रसकी निवृत्ति होनेपर अविनाशी (अखण्ड) रसकी जागृति हो जाती है।
तत्त्वबोध होनेपर तो रस सर्वथा निवृत्त हो ही जाता है, पर तत्त्वबोध होनेसे पहले भी उसकी उपेक्षासे, विचारसे, सत्संगसे, संतकृपासे रस निवृत्त हो सकता है। जिनकी रसबुद्धि निवृत्त हो चुकी है, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुषके संगसे भी रस निवृत्त हो सकता है।
कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग- तीनों साधनोंसे नाशवान् रसकी निवृत्ति हो जाती है। ज्यों-ज्यों कर्मयोगमें सेवाका रस, ज्ञानयोगमें तत्त्वके अनुभवका रस और भक्तियोगमें प्रेमका रस मिलने लगता है, त्यों-त्यों नाशवान् रस स्वतः छूटता चला जाता है।
जैसे बचपनमें खिलौनोंमें रस मिलता था, पर बड़े होनेपर जब रुपयोंमें रस मिलने लगता है, तब खिलौनोंका रस स्वतः छूट जाता है, ऐसे ही साधनका रस मिलनेपर भोगोंका रस स्वतः छूट जाता है।
रसबुद्धिके रहते हुए जब भोगोंकी प्राप्ति होती है, तब मनुष्यका चित्त पिघल जाता है तथा वह भोगोंके वशीभूत हो जाता है। परन्तु रसबुद्धि निवृत्त होनेके बाद जब भोगोंकी प्राप्ति होती है, तब तत्त्वज्ञ महापुरुषके चित्तमें किंचिन्मात्र भी कोई विकार पैदा नहीं होता (गीता २। ७०)। उसके भीतर ऐसी कोई वृत्ति पैदा नहीं होती, जिससे भोग उसको अपनी ओर खींच सकें। जैसे, पशुके आगे रुपयोंकी थैली रख दें तो उसमें लोभ-वृत्ति पैदा नहीं होती और सुन्दर स्त्रीको देखकर उसमें काम-वृत्ति पैदा नहीं होती। पशु तो रुपयोंको और स्त्रीको जानता नहीं, पर तत्त्वज्ञ महापुरुष रुपयोंको भी जानता है और स्त्रीको भी (गीता - दूसरे अध्यायका उनहत्तरवाँ श्लोक), फिर भी उसमें लोभ-वृत्ति और काम-वृत्ति पैदा नहीं होती। जैसे हम अंगुलीसे शरीरके किसी अंगको खुजलाते हैं तो खुजली मिटनेपर अंगुलीमें कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई विकृति नहीं आती, ऐसे ही इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन होनेपर भी तत्त्वज्ञके चित्तमें कोई विकार नहीं आता, वह ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है। कारण कि रसबुद्धि निवृत्त हो जानेसे वह अपने सुखके लिये किसी विषयमें प्रवृत्त होता ही नहीं। उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति दूसरोंके हित और सुखके लिये ही होती है। अपने सुखके लिये किया गया विषयोंका चिन्तन भी पतन करनेवाला हो जाता है (गीता- दूसरे अध्यायका बासठवाँ- तिरसठवाँ श्लोक) और अपने सुखके लिये न किया गया विषयोंका सेवन भी बन्धनकारक नहीं होता ( गीता-दूसरे अध्यायका चौंसठवाँ पैंसठवाँ श्लोक)।
नाशवान् रस तात्कालिक होता है, अधिक देर नहीं ठहरता। स्त्री, रुपये आदिकी प्राप्तिके समय जो रस आता है, वह बादमें नहीं रहता। भोजनके मिलनेपर जो रस आता है, वह प्रत्येक ग्रासमें कम होते-होते अन्तमें सर्वथा मिट जाता है और भोजनसे अरुचि पैदा हो जाती है। परन्तु अविनाशी रस कभी कम नहीं होता, प्रत्युत ज्यों-का- त्यों (अखण्ड) रहता है। नाशवान् रसका भोग करनेसे परिणाममें जड़ता, अभाव, शोक, रोग, भय, उद्वेग आदि अनेक विकार पैदा होते हैं। इन विकारोंसे भोगी मनुष्य बच नहीं सकता; क्योंकि यह भोगोंका अवश्यम्भावी परिणाम है। इसलिये भगवान् ने दुःखोंका दर्शन करनेकी बात कही है- 'दुःखदोषानुदर्शनम्' (गीता १३। ८)। कामादि दोषोंसे मुक्त होनेपर ही मनुष्य अपने कल्याणका आचरण करता है (गीता- सोलहवें अध्यायका इक्कीसवाँ-बाईसवाँ श्लोक)।
सम्बन्ध-रसकी निवृत्ति न हो तो क्या आपत्ति है? इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
कल के वीडियो में हम श्लोक 60 से 63 की चर्चा करेंगे, जहाँ श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि कैसे इंद्रियाँ मनुष्य की बुद्धि को हर लेती हैं और कैसे विषयों का चिंतन विनाश का कारण बनता है।
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याद रखें, भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि कैसे हम अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित कर सकते हैं और अपने जीवन में शांति और स्थिरता ला सकते हैं।"
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