ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 60 से 63 #BhagavadGita, #SpiritualKnowledge, #GeetaGyan, #Motivation, #LifeSolutions, #ArjunaKrishnaDialogue
श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
नमस्कार मित्रों! आज के इस वीडियो में हम श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 60 से 63 की चर्चा करेंगे। इन श्लोकों में श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि इंद्रियों के नियंत्रण के बिना मनुष्य की बुद्धि कैसे नष्ट हो जाती है और क्यों इंद्रियों को संयमित करना आवश्यक है। अगर आप अपने जीवन में शांति और स्थिरता चाहते हैं, तो इस वीडियो को अंत तक ज़रूर देखें।
पिछले वीडियो में हमने श्लोक 58 और 59 की चर्चा की थी, जहाँ हमने जाना कि स्थिरबुद्धि व्यक्ति कैसे अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करता है और परमात्मा में स्थित होकर विषयों से अप्रभावित रहता है। अगर आपने वह वीडियो मिस कर दिया है, तो उसे ज़रूर देखें।
"आज के श्लोक 60 में श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि इंद्रियाँ इतनी बलवान होती हैं कि वे मन को बलपूर्वक खींच लेती हैं, भले ही व्यक्ति विवेकवान हो। श्लोक 61 में उन्होंने यह भी बताया कि अपने इंद्रियों को नियंत्रण में रखकर, उन्हें भगवान में स्थिर करके ही व्यक्ति की बुद्धि स्थिर हो सकती है।
श्लोक 62 और 63 में भगवान ने बताया है कि कैसे विषयों के चिंतन से आसक्ति उत्पन्न होती है, जिससे कामना और फिर क्रोध पैदा होता है। क्रोध से व्यक्ति की बुद्धि का नाश हो जाता है और वह विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है।"
"भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 60 से 63
"इन्द्रियोंकी प्रबलताका निरूपण ।
(श्लोक-६०)
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥
उच्चारण की विधि
यततः, हि, अपि, कौन्तेय, पुरुषस्य, विपश्चितः, इन्द्रियाणि, प्रमाथीनि, हरन्ति, प्रसभम्, मनः ॥ ६० ॥
कौन्तेय अर्थात हे अर्जुन !, हि आसक्तिका नाश न होनेके कारण, प्रमाथीनि अर्थात ये प्रमथन स्वभाववाली, इन्द्रियाणि अर्थात इन्द्रियाँ, यततः अर्थात यत्न करते हुए, विपश्चितः अर्थात बुद्धिमान्, पुरुषस्य अर्थात पुरुषके, मनः अर्थात मनको, अपि अर्थात भी, प्रसभम् अर्थात बलात्, हरन्ति अर्थात हर लेती हैं।
व्याख्या'यततो ह्यपि प्रसभं मनः- जो स्वयं यत्न करता है, साधन करता है, हरेक कामको विवेकपूर्वक करता है, आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करता है, दूसरोंका हित हो, दूसरोंको सुख पहुँचे, दूसरोंका कल्याण हो-ऐसा भाव रखता है और वैसी क्रिया भी करता है, जो स्वयं कर्तव्य-अकर्तव्य, सार- असारको जानता है और कौन-कौन-से कर्म करनेसे उनका क्या- क्या परिणाम होता है- इसको भी जाननेवाला है, ऐसे विद्वान् पुरुषके लिये यहाँ 'यततो ह्यपि पुरुषस्य विपश्चितः' पद आये हैं।
१- यहाँ भगवान् ने इन्द्रियोंको 'प्रमाथीनि' कहा है और छठे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें अर्जुनने मनको 'प्रमाथि' कहा है। अतः इन्द्रियाँ और मन दोनों ही प्रमथनशील हैं। ऐसे ही यहाँ बताया कि इन्द्रियाँ मनको हर लेती हैं और आगे इसी अध्यायके सड़सठवें श्लोकमें बताया है कि मन बुद्धिको हर लेता है अर्थात् यहाँ तो इन्द्रियोंकी प्रबलता बतायी और वहाँ मनकी प्रबलता बतायी। तात्पर्य यह निकला कि साधकको इन दोनोंका संयमन करना चाहिये, तभी वह संयमी बन सकता है।
प्रयत्न करनेवाले ऐसे विद्वान् पुरुषकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं, विषयोंकी तरफ खींच लेती हैं अर्थात् वह विषयोंकी तरफ खिंच जाता है, आकृष्ट हो जाता है। इसका कारण यह है कि जबतक बुद्धि सर्वथा परमात्मतत्त्वमें प्रतिष्ठित (स्थित) नहीं होती, बुद्धिमें संसारकी यत्किंचित् सत्ता रहती है, विषयेन्द्रिय-सम्बन्धसे सुख होता है, भोगे हुए भोगोंके संस्कार रहते हैं, तबतक साधनपरायण बुद्धिमान् विवेकी पुरुषकी भी इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें नहीं होतीं। इन्द्रियोंके विषय सामने आनेपर भोगे हुए भोगोंके संस्कारोंके कारण इन्द्रियाँ मन-बुद्धिको जबर्दस्ती विषयोंकी तरफ खींच ले जाती हैं। ऐसे अनेक ऋषियोंके उदाहरण भी आते हैं, जो विषयोंके सामने आनेपर विचलित हो गये। अतः साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी भी 'मेरी इन्द्रियाँ वशमें हैं', ऐसा विश्वास नहीं करना चाहिये और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि 'मैं जितेन्द्रिय हो गया हूँ।'
* मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ।।
(मनु० २।२१५)
'मनुष्यको चाहिये कि वह माता, बहन अथवा पुत्रीके साथ भी एकान्तमें न बैठे; क्योंकि बलवान् इन्द्रियसमूह विद्वान् को भी अपने वशमें कर लेता है।'
सम्बन्ध-पूर्वश्लोक में यह बताया कि रसबुद्धि रहनेसे यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी इन्द्रियाँ उसके मनको हर लेती हैं, जिससे उसकी बुद्धि परमात्मामें प्रतिष्ठित नहीं होती। अतः रसबुद्धिको दूर कैसे किया जाय इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
"मन और इन्द्रियोंको संयमपूर्वक भगवत्परायण करनेकी प्रेरणा तथा इन्द्रियविजयी पुरुषकी प्रशंसा।
(श्लोक-६१)
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
उच्चारण की विधि
तानि, सर्वाणि, संयम्य, युक्तः, आसीत, मत्परः, वशे, हि, यस्य, इन्द्रियाणि, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥
तानि अर्थात उन, सर्वाणि अर्थात सम्पूर्ण इन्द्रियोंको, संयम्य अर्थात वशमें करके, युक्तः अर्थात समाहित चित्त हुआ, मत्परः अर्थात मेरे परायण होकर, आसीत अर्थात ध्यानमें बैठे, हि क्योंकि, यस्य अर्थात जिस पुरुषकी, इन्द्रियाणि अर्थात इन्द्रियाँ, वशे वशमें (होती हैं), तस्य अर्थात उसीकी, प्रज्ञा अर्थात बुद्धि, प्रतिष्ठिता अर्थात स्थिर हो जाती है।
व्याख्या तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः'- जो बलपूर्वक मनका हरण करनेवाली इन्द्रियाँ हैं, उन सबको वशमें करके अर्थात् सजगतापूर्वक उनको कभी भी विषयोंमें विचलित न होने देकर स्वयं मेरे परायण हो जाय। तात्पर्य यह हुआ कि जब साधक इन्द्रियोंको वशमें करता है, तब उसमें अपने बलका अभिमान रहता है कि मैंने इन्द्रियोंको अपने वशमें किया है। यह अभिमान साधकको उन्नत नहीं होने देता और उसे भगवान् से विमुख करा देता है। अतः साधक इन्द्रियोंका संयमन करनेमें कभी अपने बलका अभिमान न करे उसमें अपने उद्योगको कारण न माने, प्रत्युत केवल भगवत्कृपाको ही कारण माने कि मेरेको इन्द्रियोंके संयमनमें जो सफलता मिली है, वह केवल भगवान् की कृपासे ही मिली है। इस प्रकार केवल भगवान् के परायण होनेसे उसका साधन सिद्ध हो जाता है।
यहाँ 'मत्परः' कहनेका मतलब है कि मानवशरीरका मिलना, साधनमें रुचि होना, साधनमें लगना, साधनका सिद्ध होना- ये सभी भगवान् की कृपापर ही निर्भर हैं। परन्तु अभिमानके कारण मनुष्यका इस तरफ ध्यान कम जाता है। कर्मयोगीमें तो कर्म करनेकी ही प्रधानता रहती है और उसमें वह अपना ही पुरुषार्थ मानता रहता है। अतः भगवान् विशेष कृपा करके कर्मयोगी साधकके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कह रहे हैं।
भगवान् के परायण होनेका तात्पर्य है- केवल भगवान् में ही महत्त्वबुद्धि हो कि भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान् का हूँ; संसार मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ। कारण कि भगवान् ही हरदम मेरे साथ रहते हैं; संसार मेरे साथ रहता ही नहीं। इस प्रकार साधकका 'मैं-पन' केवल भगवान् में ही लगा रहे।
कर्मयोगका प्रकरण होनेसे यहाँ भगवान् को कर्मयोगके अनुसार उपाय बताना चाहिये था। परन्तु गीताका अध्ययन करनेसे ऐसा मालूम देता है कि साधनकी सफलतामें केवल भगवत्परायणता ही कारण है। अतः गीतामें भगवत्-परायणताकी बहुत महिमा गायी गयी है; जैसे-जितने भी योगी हैं, उन सब योगियोंमें श्रद्धा-प्रेमपूर्वक मेरे परायण होकर मेरा भजन करनेवाला श्रेष्ठ है (छठे अध्यायका
सैंतालीसवाँ श्लोक) आदि-आदि।
'वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता' - पहले उनसठवें श्लोकमें भगवान् ने यह कहा कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध- विच्छेद होनेपर भी स्थितप्रज्ञता नहीं होती और इस श्लोकमें कहते हैं कि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, वह स्थितप्रज्ञ है। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ (दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें) इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर भी भीतरमें रसबुद्धि पड़ी है; अतः इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं। परन्तु यहाँ स्थितप्रज्ञ पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें हैं और उसकी रसबुद्धि निवृत्त हो गयी है। इसलिये यह नियम नहीं है कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध विच्छेद होनेपर वह स्थितप्रज्ञ हो ही जायगा; क्योंकि उसमें रसबुद्धि रह सकती है। परन्तु यह नियम है, स्थितप्रज्ञ होनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो ही जायँगी।
परिशिष्ट भाव - कर्मयोगके साधकके लिये भी भगवान् ने
'मत्परः' पदसे अपने परायण होनेकी बात कही है, यह भक्तिकी विशेषता है! कारण कि भगवान् के परायण हुए बिना इन्द्रियोंका सर्वथा वशमें होना कठिन है।
कर्मयोगमें त्याग है और त्यागसे शान्ति, सुख मिलता है। परन्तु यह प्राप्तिका सुख नहीं है, प्रत्युत दुःख (अशान्ति) मिटनेका सुख है, जबकि भक्तिमें प्राप्तिका सुख मिलता है। अतः भक्तिका (प्रेमका) सुख मिले बिना इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें नहीं होतीं। दूसरी बात, कर्मयोगमें तो अत्यन्त वैराग्य होनेपर इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, पर भक्तिमें (भगवान् के परायण होनेसे) थोड़े वैराग्यसे भी इन्द्रियाँ सुगमतासे वशमें हो जाती हैं। इसलिये भगवान् ने 'मत्परः' पद दिया है।
सम्बन्ध-भगवान् के परायण होनेसे तो इन्द्रियाँ वशमें होकर रसबुद्धि निवृत्त हो ही जायगी, पर भगवान् के परायण न होनेसे क्या होता है- इसपर आगेके दो श्लोक कहते हैं।"
"विषयोंके चिन्तनसे आसक्ति आदि अवगुणोंकी उत्पत्ति और अधःपतनका कथन।
(श्लोक-६२)
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
उच्चारण की विधि
ध्यायतः, विषयान्, पुंसः, सङ्गः, तेषु, उपजायते, सङ्गात्, सञ्जायते, कामः, कामात्, क्रोधः, अभिजायते ॥
विषयान् अर्थात विषयोंका, ध्यायतः अर्थात चिन्तन करनेवाले, पुंसः अर्थात पुरुषकी, तेषु अर्थात उन विषयोंमें, सङ्गः आसक्ति, उपजायते अर्थात हो जाती है, सङ्गात् आसक्तिसे, कामः अर्थात (उन विषयोंकी) कामना, संजायते अर्थात उत्पन्न होती है (और), कामात् कामना (में विघ्न पड़ने) से, क्रोधः अर्थात क्रोध, अभिजायते उत्पन्न होता है।
व्याख्या' ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते' - भगवान् के परायण न होनेसे, भगवान् का चिन्तन न होनेसे विषयोंका ही चिन्तन होता है। कारण कि जीवके एक तरफ परमात्मा हैं और एक तरफ संसार है। जब वह परमात्माका आश्रय छोड़ देता है, तब वह संसारका आश्रय लेकर संसारका ही चिन्तन करता है; क्योंकि संसारके सिवाय चिन्तनका कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं। इस तरह चिन्तन करते-करते मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति, राग, प्रियता पैदा हो जाती है। आसक्ति पैदा होनेसे मनुष्य उन विषयोंका सेवन करता है। विषयोंका सेवन चाहे मानसिक हो, चाहे शारीरिक हो, उससे जो सुख होता है, उससे विषयोंमें प्रियता पैदा होती है। प्रियतासे उस विषयका बार-बार चिन्तन होने लगता है। अब उस विषयका सेवन करे, चाहे न करे, पर विषयोंमें राग पैदा हो ही जाता है- यह नियम है।
'संगात्संजायते कामः' - विषयोंमें राग पैदा होनेपर उन विषयोंको (भोगोंको) प्राप्त करनेकी कामना पैदा हो जाती है कि वे भोग, वस्तुएँ मेरेको मिलें।
'कामात्क्रोधोऽभिजायते' - कामनाके अनुकूल पदार्थोंक मिलते रहनेसे 'लोभ' पैदा हो जाता है और कामनापूर्तिकी सम्भावना हो रही है, पर उसमें कोई बाधा देता है, तो उसपर 'क्रोध' आ जाता है।
कामना एक ऐसी चीज है, जिसमें बाधा पड़नेपर क्रोध पैदा हो ही जाता है। वर्ण, आश्रम, गुण, योग्यता आदिको लेकर अपनेमें जो अच्छाईका अभिमान रहता है, उस अभिमानमें भी अपने आदर, सम्मान आदिकी कामना रहती है; उस कामनामें किसी व्यक्तिके द्वारा बाधा पड़नेपर भी क्रोध पैदा हो जाता है।
'कामना' रजोगुणी वृत्ति है, 'सम्मोह' तमोगुणी वृत्ति है और 'क्रोध' रजोगुण तथा तमोगुणके बीचकी वृत्ति है।
कहीं भी किसी भी बातको लेकर क्रोध आता है, तो उसके मूलमें कहीं-न-कहीं राग अवश्य होता है। जैसे, नीति-न्यायसे विरुद्ध काम करनेवालेको देखकर क्रोध आता है, तो नीति-न्यायमें राग है। अपमान-तिरस्कार करनेवालेपर क्रोध आता है, तो मान-सत्कारमें राग है। निन्दा करनेवालेपर क्रोध आता है, तो प्रशंसामें राग है। दोषारोपण करनेवालेपर क्रोध आता है, तो निर्दोषताके अभिमानमें राग है; आदि-आदि।"
"(श्लोक-६३)
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
उच्चारण की विधि
क्रोधात्, भवति, सम्मोहः, सम्मोहात्, स्मृतिविभ्रमः, स्मृतिभ्रंशात्, बुद्धिनाशः, बुद्धिनाशात्, प्रणश्यति ॥ ६३॥
क्रोधात् अर्थात क्रोधसे, सम्मोहः अत्यन्त मूढ़भाव, भवति अर्थात उत्पन्न हो जाता है, सम्मोहात् मूढ़भावसे, स्मृतिविभ्रमः अर्थात स्मृतिमें भ्रम हो जाता है, स्मृतिभ्रंशात् अर्थात स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे, बुद्धिनाशः अर्थात बुद्धि अर्थात् ज्ञान-शक्तिका नाश हो जाता है और, बुद्धिनाशात् अर्थात बुद्धिका नाश हो जानेसे (यह पुरुष अपनी स्थितिसे), प्रणश्यति अर्थात गिर जाता है।
'क्रोधाद्भवति सम्मोहः' - क्रोधसे सम्मोह होता है अर्थात् मूढ़ता छा जाती है। वास्तवमें देखा जाय तो काम, क्रोध, लोभ और ममता इन चारोंसे ही सम्मोह होता है; जैसे-
(१) कामसे जो सम्मोह होता है, उसमें विवेकशक्ति ढक जानेसे मनुष्य कामके वशीभूत होकर न करनेलायक कार्य भी कर बैठता है।
(२) क्रोधसे जो सम्मोह होता है, उसमें मनुष्य अपने मित्रों तथा पूज्यजनोंको भी उलटी-सीधी बातें कह बैठता है और न करनेलायक बर्ताव भी कर बैठता है।
(३) लोभसे जो सम्मोह होता है, उसमें मनुष्यको सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदिका विचार नहीं रहता और वह कपट करके लोगोंको ठग लेता है।
(४) ममतासे जो सम्मोह होता है, उसमें समभाव नहीं रहता, प्रत्युत पक्षपात पैदा हो जाता है।
अगर काम, क्रोध, लोभ और ममता- इन चारोंसे ही सम्मोह
होता है, तो फिर भगवान् ने यहाँ केवल क्रोधका ही नाम क्यों
लिया ? इसमें गहराईसे देखा जाय तो काम, लोभ और ममता -
इनमें तो अपने सुखभोग और स्वार्थकी वृत्ति जाग्रत् रहती है, पर
क्रोधमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी वृत्ति जाग्रत् रहती है। अतः क्रोधसे
जो सम्मोह होता है, वह काम, लोभ और ममतासे पैदा हुए
सम्मोहसे भी भयंकर होता है। इस दृष्टिसे भगवान् ने यहाँ केवल
क्रोधसे ही सम्मोह होना बताया है।
'सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः'- मूढ़ता छा जानेसे स्मृति नष्ट हो जाती है अर्थात् शास्त्रोंसे, सद्विचारोंसे जो निश्चय किया था कि 'अपनेको ऐसा काम करना है, ऐसा साधन करना है, अपना उद्धार करना है' उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है, उसकी याद नहीं रहती।
'स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः' - स्मृति नष्ट होनेपर बुद्धिमें प्रकट होनेवाला विवेक लुप्त हो जाता है अर्थात् मनुष्यमें नया विचार करनेकी शक्ति नहीं रहती।
'बुद्धिनाशात्प्रणश्यति' - विवेक लुप्त हो जानेसे मनुष्य अपनी स्थितिसे गिर जाता है। अतः इस पतनसे बचनेके लिये सभी साधकोंको भगवान् के परायण होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। यहाँ विषयोंका ध्यान करनेमात्रसे राग, रागसे काम, कामसे क्रोध, क्रोधसे सम्मोह, सम्मोहसे स्मृतिनाश, स्मृतिनाशसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे पतन - यह जो क्रम बताया है, इसका विवेचन करनेमें तो देरी लगती है, पर इन सभी वृत्तियोंके पैदा होनेमें और उससे मनुष्यका पतन होनेमें देरी नहीं लगती। बिजलीके करेंटकी तरह ये सभी वृत्तियाँ तत्काल पैदा होकर मनुष्यका पतन करा देती हैं।
सम्बन्ध-अब भगवान् आगेके श्लोकमें 'स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है?'- इस चौथे प्रश्नका उत्तर देते हैं।"
कल के वीडियो में हम श्लोक 64 से 66 की चर्चा करेंगे, जहाँ श्रीकृष्ण यह बताएंगे कि कैसे इंद्रियों के नियंत्रण से मनुष्य प्रसन्नता और शांति प्राप्त करता है।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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