ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 70 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge

 



"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥"


नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे इस नए वीडियो में, जहां हम ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता के महत्वपूर्ण श्लोकों पर चर्चा करते हैं। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 2 के श्लोक 70 से 72 की, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्थिर बुद्धि, शांति, और ब्रह्मस्थिति का महत्त्व बता रहे हैं। अगर आप हमारे चैनल पर नए हैं, तो कृपया सब्सक्राइब करना न भूलें और वीडियो को लाइक जरूर करें।

पिछले वीडियो में हमने अध्याय 2 के श्लोक 67 से 69 पर चर्चा की थी, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रियों की नियंत्रण शक्ति और मन की भूमिका के बारे में बताया था। हमें यह सिखाया गया कि जैसे जल में नाव को वायु बहा ले जाती है, वैसे ही इंद्रियों के वश में आया मन बुद्धि को भ्रमित कर देता है। इसके बाद हमने सीखा कि जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करता है, वही स्थिरबुद्धि होता है।

आज हम अध्याय 2 के श्लोक 70 से 72 पर चर्चा करेंगे। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण आत्म-संयम और इच्छाओं के त्याग की महिमा का वर्णन करते हैं। जब कोई व्यक्ति सभी कामनाओं को त्याग देता है और समस्त प्रकार के आसक्तियों से मुक्त हो जाता है, तब वह शांति को प्राप्त करता है।

"भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 70

"समुद्रके दृष्टान्तसे ज्ञानी महापुरुषोंकी महिमाका कथन।


(श्लोक-७०)


आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।।


उच्चारण की विधि


आपूर्यमाणम्, अचलप्रतिष्ठम्, समुद्रम्, आपः, प्रविशन्ति, यद्वत्, तद्वत्, कामाः, यम्, प्रविशन्ति, सर्वे, सः, शान्तिम्, आप्नोति, न,


कामकामी ॥ ७० ॥


यद्वत् अर्थात् जैसे (नाना नदियोंके), आपः अर्थात् जल (जब), आपूर्यमाणम् अर्थात् सब ओरसे परिपूर्ण, अचलप्रतिष्ठम् अर्थात् अचल प्रतिष्ठावाले, समुद्रम् अर्थात् समुद्रमें (उसको विचलित न करते हुए ही), प्रविशन्ति अर्थात् समा जाते हैं, तद्वत् अर्थात् वैसे ही, सर्वे अर्थात् सब, कामाः अर्थात् भोग, यम् अर्थात् जिस स्थितप्रज्ञ पुरुषमें (किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही), प्रविशन्ति अर्थात् समा जाते हैं, सः अर्थात् वही पुरुष, शान्तिम् अर्थात् परम शान्तिको, आप्नोति अर्थात् प्राप्त होता है, कामकामी अर्थात् भोगोंको चाहनेवाला, न अर्थात् नहीं।


व्याख्या' आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्'- वर्षाकालमें नदियों और नदोंका जल बहुत बढ़ जाता है, कई नदियोंमें बाढ़ आ जाती है; परन्तु जब वह जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है, तब समुद्र बढ़ता नहीं, अपनी मर्यादामें ही रहता है। परन्तु जब गरमीके दिनोंमें नदियों और नदोंका जल बहुत कम हो जाता है, तब समुद्र घटता नहीं। तात्पर्य है कि नदी-नदोंका जल ज्यादा आनेसे अथवा कम आनेसे या न आनेसे तथा बड़वानल (जलमें पैदा होनेवाली अग्नि) और सूर्यके द्वारा जलका शोषण होनेसे समुद्रमें कोई फर्क नहीं पड़ता, वह बढ़ता-घटता नहीं। उसको नदी-नदोंके जलकी अपेक्षा नहीं रहती। वह तो सदा-सर्वदा ज्यों-का-त्यों ही परिपूर्ण रहता है और अपनी मर्यादाका कभी त्याग नहीं करता।


'तद्वत्कामा * यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति' - ऐसे ही संसारके सम्पूर्ण भोग उस परमात्म-तत्त्वको जाननेवाले संयमी मनुष्यको प्राप्त होते हैं, उसके सामने आते हैं, पर वे उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणमें सुख-दुःखरूप विकार पैदा नहीं कर सकते।


* यहाँ 'कामाः' पद कामनाओंका वाचक नहीं है, प्रत्युत जिन पदार्थोंकी कामना की जाती है, उन भोग-पदार्थोंका वाचक है।


अतः वह परमशान्तिको प्राप्त होता है। उसकी जो शान्ति है, वह परमात्मतत्त्वके कारणसे है, भोग-पदार्थोंके कारणसे नहीं (गीता- दूसरे अध्यायका छियालीसवाँ श्लोक) ।


यहाँ जो समुद्र और नदियोंके जलका दृष्टान्त दिया गया है, वह स्थितप्रज्ञ संयमी मनुष्यके विषयमें पूरा नहीं घटता। कारण कि समुद्र और नदियोंके जलमें तो सजातीयता है अर्थात् जो जल समुद्रमें भरा हुआ है, उसी जातिका जल नद-नदियोंसे आता है और नद-नदियोंसे जो जल आता है, उसी जातिका जल समुद्रमें भरा हुआ है। परन्तु स्थितप्रज्ञ और सांसारिक भोग-पदार्थोंमें इतना फर्क है कि इसको समझानेके लिये रात-दिन, आकाश-पातालका दृष्टान्त भी नहीं बैठ सकता ! कारण कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य जिस तत्त्वमें स्थित है, वह तत्त्व चेतन है, नित्य है, सत्य है, असीम है, अनन्त है और सांसारिक भोग-पदार्थ जड हैं, अनित्य हैं, असत् हैं, सीमित हैं, अन्तवाले है 


दूसरा अन्तर यह है कि समुद्रमें तो नदियोंका जल पहुँचता है, पर स्थितप्रज्ञ जिस तत्त्वमें स्थित है, वहाँ ये सांसारिक भोग-पदार्थ पहुँचते ही नहीं, प्रत्युत केवल उसके कहे जानेवाले शरीर अन्तःकरणतक ही पहुँचते हैं। अतः समुद्रका दृष्टान्त केवल उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणकी स्थितिको बतानेके लिये ही दिया गया है। उसके वास्तविक स्वरूपको बतानेवाला कोई दृष्टान्त नहीं है।


'न कामकामी'- जिनके मनमें भोग-पदार्थोंकी कामना है, जो पदार्थोंको ही महत्त्व देते हैं, जिनकी दृष्टि पदार्थोंकी तरफ ही है, उनको कितने ही सांसारिक भोगपदार्थ मिल जायँ, तो भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती; उनकी कामना, जलन, सन्ताप नहीं मिट सकते; तो फिर उनको शान्ति कैसे मिल सकती है? कारण कि चेतन स्वरूपकी तृप्ति जड पदार्थोंसे हो ही नहीं सकती।


परिशिष्ट भाव - अपनी कामनाके कारण ही यह संसार जड़


दीखता है, वास्तवमें तो यह चिन्मय परमात्मा ही है- 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता ७। १९), 'सदसच्चाहमर्जुन' (गीता ९। १९)। अतः जब मनुष्य कामनारहित हो जाता है, तब उससे सभी वस्तुएँ प्रसन्न हो जाती हैं। वस्तुओंके प्रसन्न होनेकी पहचान यह है कि उस निष्काम महापुरुषके पास आवश्यक वस्तुएँ अपने-आप आने लगती हैं। उसके पास आकर सफल होनेके लिये वस्तुएँ लालायित रहती हैं। परन्तु कामना न रहनेके कारण वस्तुओंके प्राप्त होनेपर अथवा न होनेपर भी उसके भीतर कोई विकार (हर्ष आदि) उत्पन्न नहीं होता। उसकी दृष्टिमें वस्तुओंका कोई मूल्य (महत्त्व) है ही नहीं। इसके विपरीत कामनावाले मनुष्यको वस्तुएँ प्राप्त हों अथवा न हों, उसके भीतर सदा अशान्ति बनी रहती है।


सम्बन्ध-अब आगेके श्लोकमें 'स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है?' इस प्रश्नके उत्तरका उपसंहार करते हैं।"

कल हम अध्याय 3 की शुरुआत करेंगे, जहाँ अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कर्म और ज्ञान के बीच के अंतर पर सवाल पूछते हैं। हम श्लोक 1 से 3 पर चर्चा करेंगे, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन के संदेहों का समाधान करते हैं।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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