ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 71 से 72 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue
श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥"
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे इस नए वीडियो में, जहां हम ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता के महत्वपूर्ण श्लोकों पर चर्चा करते हैं। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 2 के श्लोक 70 से 72 की, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्थिर बुद्धि, शांति, और ब्रह्मस्थिति का महत्त्व बता रहे हैं। अगर आप हमारे चैनल पर नए हैं, तो कृपया सब्सक्राइब करना न भूलें और वीडियो को लाइक जरूर करें।
पिछले वीडियो में हमने अध्याय 2 के श्लोक 67 से 69 पर चर्चा की थी, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रियों की नियंत्रण शक्ति और मन की भूमिका के बारे में बताया था। हमें यह सिखाया गया कि जैसे जल में नाव को वायु बहा ले जाती है, वैसे ही इंद्रियों के वश में आया मन बुद्धि को भ्रमित कर देता है। इसके बाद हमने सीखा कि जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करता है, वही स्थिरबुद्धि होता है।
आज हम अध्याय 2 के श्लोक 71 से 72 पर चर्चा करेंगे। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण आत्म-संयम और इच्छाओं के त्याग की महिमा का वर्णन करते हैं। जब कोई व्यक्ति सभी कामनाओं को त्याग देता है और समस्त प्रकार के आसक्तियों से मुक्त हो जाता है, तब वह शांति को प्राप्त करता है।
"भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 71 से 72
"कामना, स्पृहा, ममता और अहंकारादिसे रहित होकर विचरनेवाले पुरुषको परम शान्तिकी प्राप्ति।
(श्लोक-७१)
विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ।।
उच्चारण की विधि
विहाय, कामान्, यः, सर्वान्, पुमान्, चरति, निःस्पृहः, निर्ममः, निरहङ्कारः, सः, शान्तिम्, अधिगच्छति ॥ ७१ ॥
यः अर्थात् जो, पुमान् अर्थात् पुरुष, सर्वान् अर्थात् सम्पूर्ण, कामान् अर्थात् कामनाओंको, विहाय अर्थात् त्यागकर, निर्ममः अर्थात् ममतारहित, निरहङ्कारः अर्थात् अहंकाररहित (और), निःस्पृहः अर्थात् स्पृहारहित हुआ, चरति अर्थात् विचरता है, सः अर्थात् वही, शान्तिम् अर्थात् शान्तिको, अधिगच्छति अर्थात् प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्तिको प्राप्त है।
व्याख्या'विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ' - अप्राप्त वस्तुकी इच्छाका नाम 'कामना' है। स्थितप्रज्ञ महापुरुष सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है। कामनाओंका त्याग कर देनेपर भी शरीरके निर्वाहमात्रके लिये देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिकी जो आवश्यकता दीखती है अर्थात् जीवन-निर्वाहके लिये प्राप्त और अप्राप्त वस्तु आदिकी जो जरूरत दीखती है, उसका नाम 'स्पृहा' है। स्थितप्रज्ञ पुरुष इस स्पृहाका भी त्याग कर देता है। कारण कि जिसके लिये शरीर मिला था और जिसकी आवश्यकता थी, उस तत्त्वकी प्राप्ति हो गयी, वह आवश्यकता पूरी हो गयी। अब शरीर रहे चाहे न रहे, शरीर-निर्वाह हो चाहे न हो- इस तरफ वह बेपरवाह रहता है। यही उसका निःस्पृह होना है।
निःस्पृह होनेका अर्थ यह नहीं है कि वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन करता ही नहीं। वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन भी करता है, पथ्य-कुपथ्यका भी ध्यान रखता है अर्थात् पहले साधनावस्थामें शरीर आदिके साथ जैसा व्यवहार करता था, वैसा ही व्यवहार अब भी करता है; परन्तु शरीर बना रहे तो अच्छा है, जीवन-निर्वाहकी वस्तुएँ मिलती रहें तो अच्छा है-ऐसी उसके भीतर कोई परवाह नहीं होती।
इसी अध्यायके पचपनवें श्लोकमें 'प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्' पदोंसे कामना-त्यागकी जो बात कही थी, वही बात यहाँ 'विहाय कामान्यः सर्वान्' पदोंसे कही है। इसका तात्पर्य है कि कर्मयोगमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग किये बिना कोई स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि कामनाओंके कारण ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। कामनाओंका सर्वथा त्याग करनेपर संसारके साथ सम्बन्ध रह ही नहीं सकता।
'निर्ममः'- स्थितप्रज्ञ महापुरुष ममताका सर्वथा त्याग कर देता है। मनुष्य जिन वस्तुओंको अपनी मानता है, वे वास्तवमें अपनी नहीं हैं, प्रत्युत संसारसे मिली हुई हैं। मिली हुई वस्तुको अपनी मानना भूल है। यह भूल मिट जानेपर स्थितप्रज्ञ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ आदिमें ममतारहित हो जाता है।
'निरहङ्कारः' - यह शरीर मैं ही हूँ - इस तरह शरीरसे तादात्म्य मानना अहंकार है। स्थितप्रज्ञमें यह अहंकार नहीं रहता। शरीर,
इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सभी किसी प्रकाशमें दीखते हैं और जो 'मैं' पन है, उसका भी किसी प्रकाशमें भान होता है। अतः प्रकाशकी दृष्टिसे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंता ('मैं' पन) – ये सभी दृश्य हैं। द्रष्टा दृश्यसे अलग होता है- यह नियम है। ऐसा अनुभव हो जानेसे स्थितप्रज्ञ निरहंकार हो जाता है।
'स शान्तिमधिगच्छति'- स्थितप्रज्ञ शान्तिको प्राप्त होता है। कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे रहित होनेपर शान्ति आकर प्राप्त होती है-ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत शान्ति तो मनुष्यमात्रमें स्वतःसिद्ध है। केवल उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे सुख भोगनेकी कामना करनेसे, उनसे ममताका सम्बन्ध रखने से ही अशान्ति होती है। जब संसारकी कामना, स्पृहा, ममता और अहंता सर्वथा छूट जाती है, तब स्वतः सिद्ध शान्तिका अनुभव हो जाता है।
इस श्लोकमें कामना, स्पृहा, ममता और अहंता-इन चारोंमें अहंता ही मुख्य है। कारण कि एक अहंताके निषेधसे सबका निषेध हो जाता है अर्थात् यदि 'मैं'-पन ही नहीं रहेगा, तो फिर 'मेरा'-पन कैसे रहेगा और कामना भी कौन करेगा और किसलिये करेगा ?
जब 'निरहङ्कारः' कहनेमात्रसे कामना आदिका त्याग उसके अन्तर्गत आ जाता था, तो फिर कामना आदिके त्यागका वर्णन क्यों किया ? इसका उत्तर यह है कि कामना, स्पृहा, ममता और अहंता - इन चारोंमें कामना स्थूल है। कामनासे सूक्ष्म स्पृहा, स्पृहासे सूक्ष्म ममता और ममतासे सूक्ष्म अहंता है। अतः साधक पहले कामना, स्पृहा और ममताका त्याग कर दे तो अहंताका त्याग करना उसके लिये सुगम हो जायगा।
शास्त्रीय दृष्टिसे पहले कामनाका त्याग, फिर स्पृहा, ममता और अहंकारका त्याग बताया जाता है। परन्तु साधककी दृष्टिसे पहले ममताका त्याग, फिर कामना, स्पृहा और अहंकारका त्याग करना ही ठीक है। ममता प्राप्त वस्तुकी और कामना अप्राप्त वस्तुकी होती है। सबसे पहले ममताका त्याग करना सुगम पड़ता है। मनुष्य पहले ममतासे अर्थात् प्राप्त वस्तुके सम्बन्धसे ही फँसता है। पहले ममताका त्याग करनेसे निष्काम होनेकी सामर्थ्य आ जाती है, कामनाका त्याग करनेसे निःस्पृह होनेकी सामर्थ्य आ जाती है और स्पृहाका त्याग करनेसे निरहंकार होनेकी सामर्थ्य आ जाती है। शास्त्रीय दृष्टिके अनुसार चलनेसे मनुष्य पण्डित हो जाता है और साधककी दृष्टिके अनुसार चलनेसे मनुष्यको अनुभव हो जाता है।
अहंता-ममतासे रहित होनेका उपाय
कर्मयोगकी दृष्टिसे- 'मेरा कुछ नहीं है'; क्योंकि मेरा किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, अवस्था आदिपर स्वतन्त्र अधिकार नहीं है। जब मेरा कुछ नहीं है तो 'मेरेको कुछ नहीं चाहिये'; क्योंकि अगर शरीर मेरा है तो मेरेको अन्न, जल, वस्त्र आदिकी आवश्यकता है, पर जब शरीर मेरा है ही नहीं, तो मेरेको किसीकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है। जब मेरा कुछ नहीं और मेरेको कुछ नहीं चाहिये, तो फिर 'मैं' क्या रहा? क्योंकि 'मैं' तो किसी वस्तु, शरीर, स्थिति आदिको पकड़नेसे ही होता है।
मेरे कहलानेवाले शरीर आदिका मात्र संसारके साथ सर्वथा अभिन्न सम्बन्ध है। इसलिये अपने कहलानेवाले शरीर आदिसे जो कुछ करना है, वह सब केवल संसारके हितके लिये ही करना है; क्योंकि मेरेको कुछ चाहिये ही नहीं। ऐसा भाव होनेपर 'मैं'-का एकदेशीयपना आप-से-आप मिट जाता है और कर्मयोगी अहंता- ममतासे रहित हो जाता है।
सांख्ययोगकी दृष्टिसे - प्राणिमात्रको 'मैं हूँ' इस प्रकार अपने स्वरूपकी स्वतःसिद्ध सत्ता (होनापन) का ज्ञान रहता है। इसमें 'मैं' तो प्रकृतिका अंश है और 'हूँ' सत्ता है। यह 'हूँ' वास्तवमें 'मैं' को लेकर है। अगर 'मैं' न रहे, तो 'हूँ' नहीं रहेगा, प्रत्युत 'है' रहेगा।
'मैं ह', 'तू है', 'यह है' और 'वह है'- ये चारों व्यक्ति और देश-कालको लेकर हैं। अगर इन चारोंको अर्थात् व्यक्ति और देश- कालको न पकड़ें तो केवल 'है' ही रहेगा- 'है' में ही स्थिति रहेगी। 'है' में स्थिति होनेसे सांख्ययोगी अहंता-ममतासे रहित हो जाता है।
भक्तियोगकी दृष्टिसे- जिसको 'मैं' और 'मेरा' कहते हैं, वह सब प्रभुका ही है। कारण कि मेरी कहलानेवाली वस्तुपर मेरा किंचिन्मात्र भी अधिकार नहीं है; परन्तु प्रभुका उसपर पूरा अधिकार है। वे जिस तरह वस्तुको रखते हैं, जैसा रखना चाहते हैं वैसा ही होता है। अतः यह सब कुछ प्रभुका ही है। इसको प्रभुकी ही सेवामें लगाना है। मेरे पास जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि है, यह भी उन्हींकी है और मैं भी उन्हींका हूँ। ऐसा भाव होनेपर भक्तियोगी अहंता-ममतासे रहित हो जाता है।"
"परिशिष्ट भाव - पहले 'सोऽमृतत्वाय कल्पते' (२। १५) कहकर ज्ञानयोगकी सिद्धि (पूर्णता) बतायी थी, अब 'स शान्तिमधिगच्छति' कहकर कर्मयोगकी सिद्धि बताते हैं। तात्पर्य है कि चिन्मयता (स्वरूप) में स्थिति होनेसे अमृतकी प्राप्ति होती है और जड़ता (अहंता) के त्यागसे शान्तिकी प्राप्ति होती है।
अहंता अपने स्वरूपमें मानी हुई है, वास्तवमें है नहीं। अगर यह वास्तवमें होती तो हम कभी निरहंकार नहीं हो सकते थे और भगवान् भी निरहंकार होनेकी बात नहीं कहते। परन्तु भगवान् 'निरहङ्कारः' कहते हैं, अतः हम अहंकाररहित हो सकते हैं। हमारा अनुभव भी है कि वास्तवमें स्वरूप अहंकाररहित है। सुषुप्तिके समय अहम् के अभावका और स्वयं (अपनी सत्ता) के भावका अनुभव सबको होता है, जिसका स्पष्ट बोध जगनेपर होता है। सुषुप्तिमें अहम् अविद्यामें लीन हो जाता है, पर स्वयं रहता है। इसलिये सुषुप्तिसे जगनेपर (उसकी स्मृतिसे) हम कहते हैं कि 'मैं ऐसे सुखसे सोया कि मेरेको कुछ पता नहीं था।' इस स्मृतिसे सिद्ध होता है कि सुखका अनुभव करनेवाला और 'कुछ पता नहीं था' यह कहनेवाला तो था ही! नहीं तो सुखका अनुभव किसको हुआ और 'कुछ पता नहीं था'- यह बात किसने जानी ? अतः 'कुछ पता नहीं था'- यह अहम् का अभाव है और इसका ज्ञान जिसको है, वह अहंरहित स्वरूप है।
एक स्त्रीकी नथ कुएँमें गिर गयी। उसको निकालनेके लिये एक आदमी कुएँमें उतरा और जलके भीतर जाकर उस नथको ढूँढ़ने लगा। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वह नथ उसके हाथ लग गयी तो उसको बड़ी प्रसन्नता हुई। परन्तु उस समय वह कुछ बोल नहीं सका; क्योंकि वाणी (अग्नि) और जलका आपसमें विरोध है। अतः जलसे बाहर आनेपर ही वह बोल सका कि 'नथ मिल गयी!' ऐसे ही सुषुप्तिमें अहम् के लीन होनेपर मनुष्य सुखका अनुभव तो करता है, पर उसको व्यक्त नहीं कर सकता; क्योंकि बोलनेका साधन नहीं रहा। सुषुप्तिसे जगनेपर ही उसको सुषुप्तिके सुखकी स्मृति होती है। स्मृति अनुभवजन्य होती है- 'अनुभवजन्यं ज्ञानं स्मृतिः ।' इस प्रकार सुषुप्तिमें अहम् के अभावका अनुभव तो सबको होता
है, पर अपने अभावका अनुभव किसीको कभी नहीं होता। अहंकार हमारे बिना नहीं रह सकता, पर हम (स्वयं) अहंकारके बिना रह सकते हैं और रहते ही हैं। हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है। इस नित्य सत्ताको किसीकी अपेक्षा नहीं है, पर सत्ताकी अपेक्षा सबको है। अगर हम अहम् ने अलग न होते, अहंकाररूप ही होते तो सुषुप्तिमें अहंकारके लीन होनेपर हम भी नहीं रहते। अतः अहंकारके बिना भी हमारा होनापन सिद्ध होता है। जाग्रत् और स्वप्नमें अहम् प्रकट रहता है और सुषुप्तिमें अहम् लीन हो जाता है, पर हम स्वयं निरन्तर रहते हैं। जो प्रकट और लीन नहीं होता, वही हमारा स्वरूप है। कामनाका त्याग होनेपर भी शरीरनिर्वाहमात्रके लिये कुछ-न-कुछ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिकी आवश्यकता रह जाती है, जिसको 'स्पृहा' कहते हैं। स्थितप्रज्ञ महापुरुषमें शरीरनिर्वाहमात्रकी आवश्यकताका तो कहना ही क्या, शरीरकी भी आवश्यकता नहीं रहती। कारण कि शरीरकी आवश्यकता ही मनुष्यको पराधीन बनाती है। आवश्यकता तभी पैदा होती है, जब मनुष्य उस वस्तुको स्वीकार कर लेता है, जो अपनी नहीं है। कर्मयोगी किसी भी वस्तुको अपनी और अपने लिये नहीं मानता, प्रत्युत संसारकी और संसारके लिये ही मानता है। इसलिये उसको किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं रहती।
'कामना' और 'स्पृहा'- दोनोंका त्याग करनेका तात्पर्य है कि वस्तुओंकी कामना भी न हो और निर्वाहमात्रकी कामना (शरीरकी आवश्यकता) भी न हो। कारण कि निर्वाहमात्रकी कामना भी सुखभोग ही है। इतना ही नहीं, शान्ति, मुक्ति, तत्त्वज्ञान आदिको प्राप्त करनेकी इच्छा भी कामना है। अतः निष्कामभावमें मुक्तितककी भी कामना नहीं होनी चाहिये।
इस श्लोकमें अपरा प्रकृतिका निषेध है। जीवने अहंकारके कारण अपरा प्रकृति (जगत्) को धारण किया है- 'ययेदं धार्यते जगत्' (गीता ७। ५)। अतः निरहंकार होनेपर अपरा प्रकृतिका निषेध (सम्बन्ध-विच्छेद) हो जाता है और जीव जन्म-मरणरूप बन्धनसे मुक्त हो जाता है। सबका त्याग होनेपर भी अहंकार शेष रह जाता है, पर अहंकारका त्याग होनेपर सबका त्याग हो जाता है।
सम्बन्ध-कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे रहित होनेपर उसकी क्या स्थिति होती है-इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हुए इस विषयका उपसंहार करते हैं।"
"ब्राह्मी स्थितिके माहात्म्यका वर्णन करते हुए अध्यायका उपसंहार।
(श्लोक-७२)
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।
उच्चारण की विधि
एषा, ब्राह्मी, स्थितिः, पार्थ, न, एनाम्, प्राप्य, विमुह्यति, स्थित्वा, अस्याम्, अन्तकाले, अपि, ब्रह्मनिर्वाणम्, ऋच्छति ॥ ७२ ॥
पार्थ अर्थात् हे अर्जुन!, एषा अर्थात् यह, ब्राह्मी अर्थात् ब्रह्मको प्राप्त पुरुषकी, स्थितिः अर्थात् स्थिति है, एनाम् अर्थात् इसको, प्राप्य अर्थात् प्राप्त होकर, (योगी कभी), न विमुह्यति अर्थात् मोहित नहीं होता (और), अन्तकाले अर्थात् अन्तकालमें, अपि अर्थात् भी, अस्याम् अर्थात् इस ब्राह्मी स्थितिमें, स्थित्वा अर्थात् स्थित होकर,
ब्रह्मनिर्वाणम् अर्थात् ब्रह्मानन्दको, ऋच्छति अर्थात् प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या'एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ' - यह ब्राह्मी स्थिति है अर्थात् ब्रह्मको प्राप्त हुए मनुष्यकी स्थिति है। अहंकाररहित होनेसे जब व्यक्तित्व मिट जाता है, तब उसकी स्थिति स्वतः ही ब्रह्ममें होती है। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही व्यक्तित्व था। उस सम्बन्धको सर्वथा छोड़ देनेसे योगीकी अपनी कोई व्यक्तिगत स्थिति नहीं रहती।
अत्यन्त नजदीकका वाचक होनेसे यहाँ 'एषा' पद पूर्वश्लोकमें आये 'विहाय कामान्', 'निःस्पृहः', 'निर्ममः' और 'निरहङ्कारः' पदोंका लक्ष्य करता है।
भगवान् के मुखसे 'तेरी बुद्धि जब मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिसे तर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा'- ऐसा सुनकर अर्जुनके मनमें यह जिज्ञासा हुई कि वह स्थिति क्या होगी ? इसपर अर्जुनने स्थितप्रज्ञके विषयमें चार प्रश्न किये। उन चारों प्रश्नोंका उत्तर देकर भगवान् ने यहाँ वह स्थिति बतायी कि वह ब्राह्मी स्थिति है। तात्पर्य है कि वह व्यक्तिगत स्थिति नहीं है
अर्थात् उसमें व्यक्तित्व नहीं रहता। वह नित्ययोगकी प्राप्ति है। उसमें एक ही तत्त्व रहता है। इस विषयकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ 'पार्थ' सम्बोधन दिया गया है। '
नैनां प्राप्य विमुह्यति'- जबतक शरीरमें अहंकार रहता है, तभीतक मोहित होनेकी सम्भावना रहती है। परन्तु जब अहंकारका सर्वथा अभाव होकर ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव हो जाता है, तब व्यक्तित्व टूटनेके कारण फिर कभी मोहित होनेकी सम्भावना नहीं रहती।
सत् और असत् को ठीक तरहसे न जानना ही मोह है। तात्पर्य है कि स्वयं सत् होते हुए भी असत् के साथ अपनी एकता मानते रहना ही मोह है। जब साधक असत् को ठीक तरहसे जान लेता है, तब असत् से उसका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है* और सत् में अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है।
* असत् को जाननेसे असत् की निवृत्ति हो जाती है; क्योंकि असत् की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। सत् से ही असत् को सत्ता मिलती है। अगर असत् को जाननेसे असत् की निवृत्ति न हो तो वास्तवमें असत् को जाना ही नहीं है; प्रत्युत सीखा है। सीखे हुए ज्ञानसे असत् की निवृत्ति नहीं होती; क्योंकि मनमें असत् की सत्ता रहती है।
इस स्थितिका अनुभव होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता (गीता- चौथे अध्यायका पैंतीसवाँ श्लोक) ।
'स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति'- यह मनुष्य- शरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है।
इसलिये भगवान् यह मौका देते हैं कि साधारण-से-साधारण और पापी-से-पापी व्यक्ति ही क्यों न हो, अगर वह अन्तकालमें भी अपनी स्थिति परमात्मामें कर ले अर्थात् जडतासे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर ले, तो उसे भी निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जायगी, वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जायगा। ऐसी ही बात भगवान् ने सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें कही है कि 'अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ एक भगवान् ही हैं- ऐसा प्रयाणकालमें भी मेरेको जो जान लेते हैं, वे मेरेको यथार्थरूपसे जान लेते हैं अर्थात् मेरेको प्राप्त हो जाते हैं।' आठवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा कि 'अन्तकालमें मेरा स्मरण करता हुआ कोई प्राण छोड़ता है, वह मेरेको ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।'
दूसरी बात, उपर्युक्त पदोंसे भगवान् उस ब्राह्मी स्थितिकी महिमाका वर्णन करते हैं कि इसमें यदि अन्तकालमें भी कोई स्थित हो जाय, तो वह शान्त ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। जैसे समबुद्धिके विषयमें भगवान् ने कहा था कि इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा कर लेता है (दूसरे अध्यायका चालीसवाँ श्लोक), ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि अन्तकालमें भी ब्राह्मी स्थिति हो जाय, जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय, तो निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। इस स्थितिका अनुभव होनेमें जडताका राग ही बाधक है। यह राग अन्तकालमें भी कोई छोड़ देता है तो उसको अपनी स्वतः सिद्ध वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है।
यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो अनुभव उम्रभरमें नहीं हुआ, वह अन्तकालमें कैसे होगा ? अर्थात् स्वस्थ अवस्थामें तो साधककी बुद्धि स्वस्थ होगी, विचार-शक्ति होगी, सावधानी होगी तो वह ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कर लेगा; परन्तु अन्तकालमें प्राण छूटते समय बुद्धि विकल हो जाती है, सावधानी नहीं रहती-ऐसी अवस्थामें ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कैसे होगा? इसका समाधान यह है कि मृत्युके समयमें जब प्राण छूटते हैं, तब शरीर आदिसे स्वतः ही सम्बन्ध विच्छेद होता है। यदि उस समय उस स्वतः सिद्ध तत्त्वकी तरफ लक्ष्य हो जाय, तो उसका अनुभव सुगमतासे हो जाता है। कारण कि निर्विकल्प अवस्थाकी प्राप्तिमें तो बुद्धि, विवेक आदिकी आवश्यकता है, पर अवस्थातीत तत्त्वकी प्राप्तिमें केवल लक्ष्यकी आवश्यकता है। *
निर्विकल्प-अवस्थाकी प्राप्तिमें ही अभ्यास, विचार, निदिध्यासन आदि काम करते हैं, पर निर्विकल्प बोध (अवस्थातीत ब्राह्मी स्थिति) की प्राप्तिमें बुद्धि काम नहीं करती। उसमें बुद्धि छूट जाती है। कारण कि निर्विकल्प बोध करण-निरपेक्ष है अर्थात् उसमें करणकी किंचिन्मात्र भी अपेक्षा नहीं है। उसकी प्राप्तिमें करणसे सम्बन्ध विच्छेद ही कारण है।
वह लक्ष्य चाहे पहलेके अभ्याससे हो जाय, चाहे किसी शुभ संस्कारसे हो जाय, चाहे भगवान् या सन्तकी अहैतुकी कृपासे हो जाय, लक्ष्य होनेपर उसकी प्राप्ति स्वतः सिद्ध है।
यहाँ 'अपि' पदका तात्पर्य है कि अन्तकालसे पहले अर्थात् जीवित-अवस्थामें यह स्थिति प्राप्त कर ले तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है; परन्तु अगर अन्तकालमें भी यह स्थिति हो जाय अर्थात् निर्मम-निरहंकार हो जाय तो वह भी मुक्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि यह स्थिति तत्काल हो जाती है। स्थितिके लिये अभ्यास करने, ध्यान करने, समाधि लगानेकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है।
भगवान् ने यहाँ कर्मयोगके प्रकरणमें 'ब्रह्मनिर्वाणम्' पद दिया है। इसका तात्पर्य है कि जैसे सांख्ययोगीको निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है (गीता-पाँचवें अध्यायके चौबीसवेंसे छब्बीसवें श्लोकतक), ऐसे ही कर्मयोगीको भी निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। इसी बातको पाँचवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा है कि सांख्ययोगीद्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है, वही स्थान कर्मयोगीद्वारा भी प्राप्त किया जाता है।"
"वह लक्ष्य चाहे पहलेके अभ्याससे हो जाय, चाहे किसी शुभ संस्कारसे हो जाय, चाहे भगवान् या सन्तकी अहैतुकी कृपासे हो जाय, लक्ष्य होनेपर उसकी प्राप्ति स्वतः सिद्ध है।
यहाँ 'अपि' पदका तात्पर्य है कि अन्तकालसे पहले अर्थात् जीवित-अवस्थामें यह स्थिति प्राप्त कर ले तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है; परन्तु अगर अन्तकालमें भी यह स्थिति हो जाय अर्थात् निर्मम-निरहंकार हो जाय तो वह भी मुक्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि यह स्थिति तत्काल हो जाती है। स्थितिके लिये अभ्यास करने, ध्यान करने, समाधि लगानेकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है।
भगवान् ने यहाँ कर्मयोगके प्रकरणमें 'ब्रह्मनिर्वाणम्' पद दिया है। इसका तात्पर्य है कि जैसे सांख्ययोगीको निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है (गीता-पाँचवें अध्यायके चौबीसवेंसे छब्बीसवें श्लोकतक), ऐसे ही कर्मयोगीको भी निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। इसी बातको पाँचवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा है कि सांख्ययोगीद्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है, वही स्थान कर्मयोगीद्वारा भी प्राप्त किया जाता है। असत् का विवेक एवं कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक ।
प्राप्त वस्तु, शरीरादिमें अहंता-ममता करना- यह अहंता- ममतायुक्त मोह है और अप्राप्त वस्तु, घटना, परिस्थिति आदिकी कामना करना-यह कामनायुक्त मोह है। शरीरी (शरीरमें रहनेवाला) अलग है और शरीर अलग है, शरीरी सत् है और शरीर असत् है, शरीरी चेतन है और शरीर जड है-इसको ठीक तरहसे अलग-अलग जानना सत्-असत् का विवेक है और कर्तव्य क्या है, अकर्तव्य क्या है, धर्म क्या है, अधर्म क्या है-इसको ठीक तरहसे समझकर उसके अनुसार कर्तव्य करना और अकर्तव्यका त्याग करना कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक है।
पहले अध्यायमें अर्जुनको भी दो प्रकारका मोह हो गया था, जिसमें प्राणिमात्र फँसे हुए हैं। अहंताको लेकर 'हम दोषोंको जाननेवाले धर्मात्मा हैं' और ममताको लेकर 'ये कुटुम्बी मर जायँगे'- यह अहंता-ममतायुक्त मोह हुआ। हमें पाप न लगे, कुलके नाशका दोष न लगे, मित्रद्रोहका पाप न लगे, नरकोंमें न जाना पड़े, हमारे पितरोंका पतन न हो - यह कामनायुक्त मोह हुआ।
उपर्युक्त दोनों प्रकारके मोहको दूर करनेके लिये भगवान् ने दूसरे अध्यायमें दो प्रकारका विवेक बताया है- शरीरी-शरीरका, सत्- असत् का विवेक (दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक) और कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक (दूसरे अध्यायके इकतीसवेंसे तिरपनवें श्लोकतक)।
शरीरी-शरीरका विवेक बताते हुए भगवान् ने कहा कि मैं, तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे- यह बात भी नहीं और आगे नहीं रहेंगे - यह बात भी नहीं अर्थात् हम सभी पहले भी थे और आगे भी रहेंगे तथा ये शरीर पहले भी नहीं थे और आगे भी नहीं रहेंगे तथा बीचमें भी प्रतिक्षण बदल रहे हैं। जैसे शरीरमें कुमार, युवा और वृद्धावस्था - ये अवस्थाएँ बदलती हैं और जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है, ऐसे ही जीव पहले शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है, यह तो अकाट्य नियम है। इसमें चिन्ताकी, शोककी बात ही क्या है ?
कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक बताते हुए भगवान् ने कहा कि क्षत्रियके लिये युद्धसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है। अनायास प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्गप्राप्तिका खुला दरवाजा है। तू युद्धरूप स्वधर्मका पालन नहीं करेगा तो तुझे पाप लगेगा। यदि तू जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके युद्ध करेगा तो तुझे पाप नहीं लगेगा। तेरा तो कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है, फलमें कभी नहीं। तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति न हो। इसलिये तू कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर और समतामें स्थित होकर कर्मोंको कर; क्योंकि समता ही योग है। जो मनुष्य समबुद्धिसे युक्त होकर कर्म करता है, वह जीवित- अवस्थामें ही पुण्य-पापसे रहित हो जाता है।
जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको और श्रुतिविप्रति पत्तिको पार कर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा।
परिशिष्ट भाव - निर्मम और निरहंकार होनेसे साधकका असत्- विभागसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और सत्-विभागमें अर्थात् ब्रह्ममें अपनी स्वतः स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है, जिसको 'ब्राह्मी स्थिति' कहते हैं। इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर शरीरका कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीरको मैं-मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता, व्यक्तित्व मिट जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि हमारी स्थिति अहंकारके आश्रित नहीं है। अहंकारके मिटनेपर भी हमारी स्थिति रहती है, जो 'ब्राह्मी स्थिति' कहलाती है। एक बार इस ब्राह्मी स्थिति (नित्ययोग) का अनुभव होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता (गीता-चौथे अध्यायका पैंतीसवाँ श्लोक)। अगर अन्तकालमें भी मनुष्य निर्मम-निरहंकार होकर ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कर ले तो
उसको तत्काल निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। निर्मम-निरहंकार होनेसे ब्रह्मकी प्राप्ति, तत्त्वज्ञान हो जाता है। फिर मनुष्य ममतारहित, कामनारहित और कर्तृत्वरहित हो जाता है।
कारण कि जीवने अहम् के कारण ही जगत् को धारण किया है - 'अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते' (गीता ३। २७), 'जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्' (गीता ७। ५)। यदि वह अहम् का त्याग कर दे तो फिर जगत् नहीं रहेगा। ब्रह्मकी प्राप्ति होनेपर (अगर भक्तिके संस्कार हों तो) समग्र परमात्माकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है, क्योंकि समग्र परमात्मा ब्रह्मकी प्रतिष्ठा हैं।
मेरा कुछ नहीं है-इसको स्वीकार करनेसे मनुष्य 'निर्मम' हो जाता है, मेरेको कुछ नहीं चाहिये- इसको स्वीकार करनेसे मनुष्य 'निष्काम' हो जाता है। मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है- इसको स्वीकार करनेसे मनुष्य 'निरहंकार' हो जाता है।"
"ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ हरिः ॐ तत्सत् हरिः ॐ तत्सत् हरिः ॐ तत्सत्
इस प्रकार ॐ, तत्, सत् - इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें 'सांख्ययोग' नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ।
कर्मयोग, सांख्ययोग, भक्तियोग आदि सभी साधनोंमें विवेककी बड़ी आवश्यकता है। सांख्ययोगमें इस विवेककी मुख्यता है और सांख्ययोगसे ही भगवान् ने अपना उपदेश आरम्भ किया है; अतः इस अध्यायका नाम 'सांख्ययोग' रखा गया है।
दूसरे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच
(१) इस अध्यायमें 'अथ द्वितीयोऽध्यायः' के तीन, 'संजय उवाच', 'श्रीभगवानुवाच' आदि पदोंके चौदह, श्लोकोंके नौ सौ सत्तावन और पुष्पिकाके तेरह पद हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण पदोंका योग नौ सौ सत्तासी है।
(२) इस अध्यायमें 'अथ द्वितीयोऽध्यायः' के सात, 'संजय उवाच', 'श्रीभगवानुवाच' आदि पदोंके पैंतालीस, श्लोकोंके दो हजार चार सौ तीन और पुष्पिकाके पैंतालीस अक्षर हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण अक्षरोंका योग दो हजार पाँच सौ है। इस अध्यायके बहत्तर श्लोकोंमेंसे पाँचवाँ, सातवाँ, आठवाँ, बीसवाँ, बाईसवाँ और सत्तरवाँ - ये छः श्लोक चौवालीस अक्षरोंके, छठा श्लोक छियालीस अक्षरोंका और उनतीसवाँ श्लोक पैंतालीस अक्षरोंका है। शेष चौंसठ श्लोक बत्तीस अक्षरोंके हैं।
(३) इस अध्यायमें सात उवाच हैं- दो 'संजय उवाच', तीन 'श्रीभगवानुवाच' और दो 'अर्जुन उवाच'। दूसरे अध्यायमें प्रयुक्त छन्द
इस अध्यायके बहत्तर श्लोकोंमेंसे पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ, बीसवाँ, बाईसवाँ, उनतीसवाँ और सत्तरवाँ-ये आठ श्लोक 'उपजाति' छन्दवाले हैं। दूसरे अध्यायमें बावनवें और सड़सठवें श्लोकके प्रथम चरणमें 'नगण' प्रयुक्त होनेसे 'न-विपुला'; बारहवें, छब्बीसवें और बत्तीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें तथा इकसठवें और तिरसठवें श्लोकके तृतीय चरणमें 'रगण' प्रयुक्त होनेसे 'र- विपुला'; छत्तीसवें और छप्पनवें श्लोकके प्रथम चरणमें 'भगण' प्रयुक्त होनेसे 'भ-विपुला'; इकहत्तरवें श्लोकके प्रथम चरणमें और इकतीसवें श्लोकके तृतीय चरणमें 'मगण' प्रयुक्त होनेसे 'म- विपुला'; छियालीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें 'सगण' प्रयुक्त होनेसे 'स-विपुला'; पैंतीसवें श्लोकके प्रथम और तृतीय चरणमें 'नगण' प्रयुक्त होनेसे 'जातिपक्ष-विपुला' और सैंतालीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें 'भगण' तथा तृतीय चरणमें 'नगण' प्रयुक्त होनेसे 'संकीर्ण- विपुला' संज्ञावाले छन्द हैं। शेष उनचास श्लोक ठीक 'पथ्यावक्त्र' अनुष्टुप् छन्दके लक्षणोंसे युक्त हैं।"
कल हम अध्याय 3 की शुरुआत करेंगे, जहाँ अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कर्म और ज्ञान के बीच के अंतर पर सवाल पूछते हैं। हम श्लोक 1 से 3 पर चर्चा करेंगे, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन के संदेहों का समाधान करते हैं।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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