ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 1 से 2 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue
श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥"
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे इस विशेष शृंखला में, जहाँ हम श्रीमद्भगवद गीता के श्लोकों पर गहन विचार करते हैं। आज हम अध्याय 3 के श्लोक 1 और 2 पर चर्चा करेंगे, जिसमें अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कर्म और ज्ञान के विषय पर प्रश्न किया है।
कल हमने अध्याय 2 के श्लोक 70 से 72 पर चर्चा की थी, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने शांति और आत्म-संयम का महत्व बताया था। श्लोक 72 में उन्होंने बताया कि जो व्यक्ति इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, वह परम शांति को प्राप्त करता है।
आज हम अध्याय 3 के श्लोक 1 और 2 पर चर्चा करेंगे। इन श्लोकों में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि यदि आपको ज्ञान श्रेष्ठ लगता है, तो फिर मुझे कर्म करने के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं? अर्जुन की इस दुविधा का समाधान भगवान श्रीकृष्ण श्लोक 3 से शुरू करते हैं, जिसकी हम कल चर्चा करेंगे।
"अवतरणिका
श्रीमद्भगवद्गीताका उपदेश मनुष्यमात्रके अनुभवपर आधारित है। इसका दिव्य उपदेश (दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे) आरम्भ करनेपर सबसे पहले भगवान् यह स्पष्ट करते हैं कि शरीर और शरीरी एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न हैं। शरीर अनित्य, असत्, एकदेशीय और नाशवान् है तथा शरीरी नित्य, सत्, सर्वव्यापी और अविनाशी है। अतः नाशवान् वस्तुका विनाश देखकर दुःखी नहीं होना और अविनाशी वस्तुकी अविनाशिता देखकर उसे बनाये रखनेकी इच्छा नहीं करना 'विवेक' कहा जाता है। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- तीनों ही योगमार्गोंमें विवेककी बड़ी आवश्यकता है। 'मैं शरीरसे सर्वथा भिन्न हूँ' - ऐसा विवेक होनेपर ही मुक्तिकी अभिलाषा जाग्रत् होती है। मुक्तिकी बात तो दूर रही, स्वर्गादिकी प्राप्तिकी कामना भी अपनेको शरीरसे अलग माननेपर ही उत्पन्न होती है। इसीलिये भगवान् ने अपने उपदेशका आरम्भ करते ही सबसे पहले विवेकका ही वर्णन किया है।
गीताका उपर्युक्त विवेक-प्रकरण दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे प्रारम्भ होकर तीसवें श्लोकपर समाप्त होता है। विवेकके इस प्रकरणमें भगवान् ने आत्मा, अनात्मा, प्रकृति, पुरुष, ब्रह्म, अविद्या, ईश्वर, जीव, जगत्, माया आदि किसी भी दार्शनिक शब्दका प्रयोग नहीं किया है, प्रत्युत सभी मनुष्य सरलतासे समझ सकें, ऐसे ढंगसे भगवान् ने उसका विवेचन किया है। इसका तात्पर्य
यह है कि मात्र मनुष्य परमात्मप्राप्तिके अधिकारी हैं; क्योंकि मनुष्यशरीर परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। अतः उपर्युक्त विवेकको महत्त्व देकर मात्र मनुष्य परमात्मप्राप्ति कर सकते हैं।
इस प्रकरणमें भगवान् ने 'बुद्धि' शब्दका प्रयोग भी नहीं किया है। वास्तवमें नित्य और अनित्य, सत् और असत्, अविनाशी और विनाशी, शरीरी और शरीरको अलग-अलग समझनेके लिये 'विवेक' की ही आवश्यकता है 'बुद्धि' की नहीं। विवेक बुद्धिसे परे है। जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं (गीता-तेरहवें अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक), ऐसे ही उनकी भिन्नताको प्रकट करनेवाला विवेक भी अनादि है। यही विवेक बुद्धिमें प्रकट होता है। यह भगवत्प्रदत्त विवेक मात्र प्राणियोंको नित्यप्राप्त है। पशु-पक्षी भी खाद्य-अखाद्य पदार्थोंकी भिन्नताको जानते हैं। लता-वृक्षमें भी सरदी- गरमी, अनुकूलता-प्रतिकूलताकी भिन्नताका ज्ञान रहता है। बुद्धिप्रधान होनेके कारण मनुष्यको यह विवेक विशेषरूपसे प्राप्त है। पशु-पक्षी आदिमें तो जीवन-निर्वाहमात्रके लिये जड-पदार्थोंका विवेक रहता है, पर मनुष्य अपने विवेकसे सदाके लिये जन्म- मरणरूप बन्धनसे मुक्त होकर शाश्वत शान्ति प्राप्त कर सकता है। यही मनुष्यके विवेककी विशेषता है।
विवेक जाग्रत् होनेपर अर्थात् शरीर और शरीरीकी भिन्नताका अनुभव होनेपर अपने कहलानेवाले शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित संसारका सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, जो कि वास्तवमें है और बुद्धि शुद्ध तथा सम हो जाती है अर्थात् बुद्धिका विषमभाव मिट जाता है।
कर्मयोगमें बुद्धिके एक निश्चयकी प्रधानता है- 'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह' (गीता २।४१) *।
* सांख्ययोगमें विवेककी, भक्तियोगमें श्रद्धा-विश्वासकी एवं कर्मयोगमें निश्चयात्मिका बुद्धिकी प्रधानता रहती है। कर्मयोगमें विवेक तथा श्रद्धा-विश्वास न होते हों-ऐसा नहीं है, पर मुख्यता एक निश्चयात्मिका बुद्धिकी रहती है। ऐसे ही सांख्ययोग एवं भक्तियोगमें भी एक निश्चयात्मिका बुद्धि रहती है।
मनुष्यका जब अपने कल्याण अथवा परमात्मप्राप्तिका ही एक निश्चय हो जाता है, तब उसे अनुकूलता और प्रतिकूलता बाधा नहीं पहुँचाती और इस प्रकार बिना कुछ किये ही उसकी बुद्धि स्वतः सम होने लगती है। बुद्धिको सम करनेके लिये तभीतक कहा जाता है, जबतक बुद्धिमें संसारका महत्त्व, आकर्षण, खिंचाव रहता है। एक निश्चयात्मिका बुद्धि हो जानेपर संसारका महत्त्व, आकर्षण, खिंचाव स्वतः मिटने लग जाता है। ऐसी निश्चयात्मिका बुद्धि होनेमें भोग और संग्रहकी आसक्तिको महान् बाधक बताया गया है (गीता - दूसरे अध्यायका चौवालीसवाँ श्लोक)।
इस तरह कर्मयोगमें निश्चयात्मिका बुद्धिकी अत्यन्त आवश्यकता बतानेके बाद भगवान् अर्जुनको समभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करनेके लिये विशेषरूपसे कहते हैं; जैसे- 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (२। ४७), 'योगस्थः कुरु कर्माणि' (२।४८) 'तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है', 'समतामें स्थित हुआ तू कर्मोंको कर'। इसके साथ यह भी कहते हैं कि 'दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात् ' (२।४९) 'बुद्धियोग (समता) से सकामकर्म अत्यन्त तुच्छ हैं', आगे कहते हैं - 'बुद्धौ शरणमन्विच्छ' (२।४९), 'बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥' (२।५०) 'तू समबुद्धिका आश्रय ग्रहण कर' 'समतापूर्वक कर्म करनेवाला पुरुष पाप और पुण्य-दोनोंका यहाँ जीवित-अवस्थामें ही त्याग कर देता है, इसलिये तू समताकी प्राप्तिके लिये ही प्रयत्न कर; क्योंकि समता ही कर्मोंमें चतुरता है।'
अर्जुनके मनमें युद्ध न करनेका आग्रह पहलेसे ही था। पहले अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें अर्जुन कहते हैं- 'युद्धमें अपने कुलको मारकर मैं अपना हित नहीं देखता'- 'न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।' फिर पैंतालीसवें श्लोकमें वे कहते हैं- 'अहो! शोक है कि हमलोग बुद्धिमान् होकर भी युद्धरूप महान् पाप करनेको तैयार हो गये हैं'- 'अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।' आगे दूसरे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें अर्जुन कहते हैं- 'मैं भिक्षाका अन्न खाना श्रेष्ठ समझता हूँ, पर युद्ध करना नहीं'- 'श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके' और नवें श्लोकमें तो भगवान् की आज्ञा 'उत्तिष्ठ परन्तप' (२।३) के विरुद्ध अपना निर्णय ही सुना देते हैं कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'- 'न योत्स्ये' (गीता २।९)।
यह नियम है कि अपना आग्रह रखनेसे श्रोता वक्ताकी बातोंका आशय अच्छी तरहसे नहीं समझ सकता। यही कारण है कि अपना (युद्ध न करनेका) आग्रह रखनेसे अर्जुन भी उपर्युक्त प्रकरणमें भगवान् के वचनोंका आशय अच्छी तरहसे नहीं समझ सके। अतः अर्जुनको भगवान् के वचन मिले हुए-से जान पड़ने लगे। इसलिये भगवान् का अभिप्राय क्या है ? वे मेरे कल्याणके लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ समझते हैं- इसका खुलासा करानेके लिये अर्जुन आगेके दो श्लोकोंमें भगवान् से प्रश्न करते हैं।"
"भगवतगीता अध्याय 3
श्लोक 1 से 2"
"अथ तृतीयोऽध्यायः
प्रधान-विषय - १ से ८ तक ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोगके
अनुसार अनासक्तभावसे नियत कर्म करनेकी श्रेष्ठताका निरूपण, (९-१६) यज्ञादि कर्म करनेकी आवश्यकताका निरूपण, (१७-२४) ज्ञानवान् और भगवान्के लिये भी लोकसंग्रहार्थ कर्म करनेकी आवश्यकता, (२५-३५) अज्ञानी और ज्ञानवान् के लक्षण तथा राग-द्वेषसे रहित होकर कर्म करनेके लिये प्रेरणा, (३६-४३) कामके निरोधका विषय।
ज्ञान और कर्मकी श्रेष्ठताके विषयमें अर्जुनकी शंका व भगवान्से अपना ऐकान्तिक श्रेयः साधन बतलानेके लिये प्रार्थना।
(श्लोक-१)
अर्जुन उवाच-
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥
उच्चारण की विधि
ज्यायसी, चेत्, कर्मणः, ते, मता, बुद्धिः, जनार्दन, तत्, किम्, कर्मणि, घोरे, माम्, नियोजयसि, केशव ॥ १॥
जनार्दन अर्थात् हे जनार्दन !, चेत् अर्थात् यदि, ते अर्थात् आपको, कर्मणः अर्थात् कर्मकी श्रेष्ठ, मता अर्थात् मान्य है, तत् अर्थात् तो फिर, अपेक्षा, बुद्धिः अर्थात् ज्ञान, ज्यायसी अर्थात् भयंकर, कर्मणि अर्थात् कर्ममें, किम् केशव अर्थात् हे केशव!, माम् अर्थात् मुझे, घोरे अर्थात् क्यों, नियोजयसि अर्थात् लगाते हैं।
व्याख्या' जनार्दन' - इस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्रीकृष्ण! आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं; अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे।
नियोजयसि केशव' - 'ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी। इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता, तब वह अच्छाईका चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईके वेशमें बुराई आती है। जो बुराई भलाईके वेशमें आती है, उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है। यहाँ अर्जुनमें भी हिंसा- त्यागरूप भलाईके वेशमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। अतः वे कर्तव्य-कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मान रहे हैं। इसी कारण वे यहाँ प्रश्न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?
भगवान् ने दूसरे अध्यायके उनतालीसवें श्लोकमें 'बुद्धिर्योगे' पदसे समबुद्धि (समता) की ही बात कही थी; परन्तु अर्जुनने उसको ज्ञान समझ लिया। अतः वे भगवान् से कहते हैं कि हे जनार्दन ! आपने पहले कहा कि 'मैंने सांख्यमें यह बुद्धि कह दी, इसीको तुम योगके विषयमें सुनो। इस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनको छोड़ देगा।' परन्तु कर्मबन्धन तभी छूटेगा, जब ज्ञान होगा। आपने यह भी कह दिया कि 'बुद्धियोग अर्थात् ज्ञानसे कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं' (दूसरे अध्यायका उनचासवाँ श्लोक)। अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, उत्तम है, तो फिर मेरेको शास्त्रविहित यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मोंमें भी नहीं लगाना चाहिये, केवल ज्ञानमें ही लगाना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत आप मेरेको युद्ध-जैसे अत्यन्त क्रूर कर्ममें, जिसमें दिनभर मनुष्योंकी हत्या करनी पड़े, क्यों लगा रहे हैं?
पहले अर्जुनके मनमें युद्ध करनेका जोश आया हुआ था और उन्होंने उसी जोशमें भरकर भगवान् से कहा कि 'हे अच्युत ! दोनों सेनाओंके बीचमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये, जिससे मैं यह देख लूँ कि यहाँ मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है।' परन्तु भगवान् ने जब दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणके सामने तथा राजाओंके सामने रथ खड़ा करके कहा कि 'तू इन कुरुवंशियोंको देख', तब अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हो गया। मोह जाग्रत् होनेसे उनकी वृत्ति युद्धसे, कर्मसे उपरत होकर ज्ञानकी तरफ हो गयी; क्योंकि ज्ञानमें युद्ध-जैसे घोर कर्म नहीं करने पड़ते। अतः अर्जुन कहते हैं कि आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ?
यहाँ 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'ज्ञान' लिया गया है। अगर यहाँ 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'समबुद्धि' (समता) लिया जाय तो व्यामिश्र वचन सिद्ध नहीं होगा। कारण कि दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनको योग (समता) में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है। व्यामिश्र वचन तभी सिद्ध होगा, जब अर्जुनकी मान्यतामें दो बातें हों और तभी यह प्रश्न बनेगा कि अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? दूसरी बात, भगवान् ने आगे अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें दो निष्ठाएँ कही हैं- ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे। इससे भी अर्जुनके प्रश्नोंमें 'बुद्धिः' पदका अर्थ 'ज्ञान' लेना युक्तिसंगत बैठता है।
कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्नका सही उत्तर प्राप्त कर सकता है। आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं। अर्जुनकी भगवान् पर पूर्ण श्रद्धा है; अतः भगवान् के कहनेपर अर्जुन अपने कल्याणके लिये युद्ध-जैसे घोर कर्ममें भी प्रवृत्त हो सकते हैं- ऐसा भाव उपर्युक्त प्रश्नसे प्रकट होता है।"
"(श्लोक-२)
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।।
उच्चारण की विधि
व्यामिश्रेण, इव, वाक्येन, बुद्धिम्, मोहयसि, इव, मे तत्, एकम्, वद, निश्चित्य, येन, श्रेयः, अहम्, आप्नुयाम् ॥ २ ॥
व्यामिश्रेण इव अर्थात् मिले हुए-से, वाक्येन अर्थात् वचनोंसे, मे अर्थात् मेरी, बुद्धिम् अर्थात् बुद्धिको, मोहयसि इव अर्थात् मानो मोहित कर रहे हैं (इसलिये), तत् अर्थात् उस, एकम् अर्थात् एक बातको, निश्चित्य अर्थात् निश्चित करके, वद अर्थात् कहिये, येन अर्थात् जिससे, अहम् अर्थात् मैं, श्रेयः अर्थात् कल्याणको, आप्नुयाम् अर्थात् प्राप्त हो जाऊँ।
'व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे'- इन पदोंमें अर्जुनका भाव है कि कभी तो आप कहते हैं कि कर्म करो 'कुरु कर्माणि' (२।४८) और कभी आप कहते हैं कि ज्ञानका आश्रय लो- 'बुद्धौ शरणमन्विच्छ' (२। ४९)। आपके इन मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है अर्थात् मैं यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरेको कर्म करने चाहिये या ज्ञानकी शरण लेनी चाहिये।
यहाँ दो बार 'इव' पदके प्रयोगसे भगवान् पर अर्जुनकी श्रद्धाका द्योतन हो रहा है। श्रद्धाके कारण अर्जुन भगवान् के वचनोंको ठीक मान रहे हैं और यह भी समझ रहे हैं कि भगवान् मेरी बुद्धिको मोहित नहीं कर रहे हैं। परन्तु भगवान् के वचनोंको ठीक-ठीक न समझनेके कारण अर्जुनको भगवान् के वचन मिले हुए-से लग रहे हैं और उनको ऐसा दीख रहा है कि भगवान् अपने वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अगर भगवान् अर्जुनकी बुद्धिको मोहित करते तो फिर अर्जुनके मोहको दूर करता ही कौन ?
'तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्'- मेरा कल्याण कर्म करनेसे होगा या ज्ञानसे होगा- इनमेंसे आप निश्चित करके मेरे लिये एक बात कहिये, जिससे मेरा कल्याण हो जाय। मैंने पहले भी कहा था कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो वह बात मेरे लिये कहिये- 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' (२।७) और अब भी मैं वही बात कह रहा हूँ।
परिशिष्ट भाव - जबतक संसारकी सत्ता मानते हैं, तभीतक कर्म घोर या सौम्य दीखता है। कारण कि संसारकी सत्ता माननेसे कर्मकी तरफ दृष्टि रहती है, अपने कर्तव्यकी तरफ नहीं। अपने कर्तव्यकी तरफ दृष्टि रहनेसे कर्म घोर या सौम्य नहीं दीखता। सम्बन्ध-अब आगेके तीन (तीसरे, चौथे और पाँचवें) श्लोकोंमें भगवान् अर्जुनके 'व्यामिश्रेणेव वाक्येन' (मिले हुए-से वचनों) पदोंका उत्तर देते हैं।"
कल हम अध्याय 3 के श्लोक 3 और 4 पर चर्चा करेंगे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की शंकाओं का समाधान करते हुए ज्ञान और कर्म के मार्ग को स्पष्ट करेंगे।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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