ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 10 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue




श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आप सभी का हमारे यूट्यूब चैनल पर, जहाँ हम श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों का गहन अध्ययन कर रहे हैं। आज हम अध्याय 3, श्लोक 10 पर चर्चा करेंगे। अगर आप पहली बार हमारे चैनल पर आए हैं, तो कृपया पिछले एपिसोड्स भी देखें ताकि आपको इस यात्रा का पूरा अनुभव मिल सके।

कल हमने श्लोक 9 पर चर्चा की थी, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म और यज्ञ के बीच संबंध को समझाया था। कर्म का यज्ञ रूप में करना ही मनुष्य को कर्मबंधन से मुक्त करता है।

"अब हम अध्याय 3, श्लोक 10 पर चर्चा करेंगे:

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥


इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रजापति (ब्रह्मा) ने सृष्टि के प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजाओं को उत्पन्न किया और कहा कि इस यज्ञ से तुम वृद्धि को प्राप्त करोगे और यह यज्ञ तुम्हारी इच्छाओं को पूर्ण करने वाला होगा।


इस श्लोक में यह बताया गया है कि यज्ञ सृष्टि के प्रारंभ से ही जीवन का अभिन्न अंग रहा है। यज्ञ केवल अग्नि में आहुति देना नहीं है, बल्कि यह उस संतुलन और सामंजस्य का प्रतीक है, जिसके द्वारा हम अपने कर्मों के माध्यम से समाज और सृष्टि की भलाई के लिए योगदान देते हैं। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि यज्ञ भावना से कर्म करने से हमारी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं और हम सृष्टि में सकारात्मक योगदान देते हैं।"

भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 9

"प्रजापतिकी आज्ञा होनेके कारण कर्मोंकी अवश्यकर्तव्यताका कथन।


(श्लोक-१०)


सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥


उच्चारण की विधि


सहयज्ञाः, प्रजाः, सृष्दा, पुरा, उवाच, प्रजापतिः, अनेन, प्रसविष्यध्वम्, एषः, वः, अस्तु, इष्टकामधुक् ॥ १० ॥


प्रजापतिः अर्थात् प्रजापति ब्रह्माने, पुरा अर्थात् कल्पके आदिमें, सहयज्ञाः अर्थात् यज्ञसहित, प्रजाः अर्थात् प्रजाओंको, सृष्ट्वा अर्थात् रचकर (उनसे) उवाच अर्थात् कहा (कि), यूयम् अर्थात् तुमलोग, अनेन इस यज्ञके द्वारा, प्रसविष्यध्वम् अर्थात्  वृद्धिको प्राप्त होओ (और), एषः अर्थात्  यह यज्ञ, वः अर्थात् तुमलोगोंको, इष्टकामधुक् - अर्थात् इच्छित भोग प्रदान करनेवाला, अस्तु अर्थात् हो।"

"व्याख्या-'सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ' -


ब्रह्माजी प्रजा (सृष्टि) के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं; अतः अपने कर्तव्यका पालन करनेके साथ वे प्रजाकी रक्षा तथा उसके कल्याणका विचार करते रहते हैं।


कारण कि जो जिसे उत्पन्न करता है, उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य हो जाता है। ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते, उसकी रक्षामें तत्पर रहते तथा सदा उसके हितकी बात सोचते हैं। इसीलिये वे 'प्रजापति' कहलाते हैं।


सृष्टि अर्थात् सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजीने कर्तव्यकर्मोंकी योग्यता और विवेकसहित मनुष्योंकी रचना की है।


१- यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि भगवान् की आज्ञासे और उन्हींकी शक्तिसे ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते हैं। अतः वास्तवमें सृष्टिके मूल रचयिता भगवान् ही हैं (गीता ४। १३; १७। २३)।


अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग कल्याण करनेवाला है। इसलिये ब्रह्माजीने अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करनेका विवेक साथ देकर ही मनुष्योंकी रचना की है। 


सत्-असत् का विचार करनेमें असमर्थ पशु, पक्षी, वृक्ष आदिके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है; किन्तु मनुष्यको तो भगवत्कृपासे विशेष विवेक-शक्ति मिली हुई है। अतः यदि वह अपने विवेकको महत्त्व देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोक-हितार्थ कर्म हो सकते हैं।


देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा अन्य पशु, पक्षी, वृक्ष आदि सभी प्राणी 'प्रजा' हैं। इनमें भी योग्यता, अधिकार और साधनकी विशेषताके कारण मनुष्यपर अन्य सब प्राणियोंके पालनकी जिम्मेवारी है। अतः यहाँ 'प्रजाः' पद विशेषरूपसे मनुष्योंके लिये ही प्रयुक्त हुआ है।


कर्मयोग अनादिकालसे चला आ रहा है। चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'पुरातनः' पदसे भी भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग बहुत कालसे प्रायः लुप्त हो गया था, जिसको मैंने तुम्हें फिरसे कहा है। उसी बातको यहाँ भी 'पुरा' पदसे वे दूसरी रीतिसे कहते हैं कि 'मैंने ही नहीं प्रत्युत ब्रह्माजीने भी सर्गके आदिकालमें कर्तव्यसहित प्रजाको रचकर उनको उसी कर्मयोगका आचरण करनेकी आज्ञा दी थी। तात्पर्य यह है कि कर्मयोग (निःस्वार्थभावसे कर्तव्य कर्म करने) की परम्परा अनादिकालसे ही चली आ रही है। यह कोई नयी बात नहीं है।'


चौथे अध्यायमें (चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक) परमात्मप्राप्तिके जितने साधन बताये गये हैं, वे सभी 'यज्ञ' के नामसे कहे गये हैं; जैसे-द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ, योगयज्ञ, प्राणायाम आदि। प्रायः 'यज्ञ' शब्दका अर्थ हवनसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाके लिये ही प्रसिद्ध है; परन्तु गीतामें 'यज्ञ' शब्द शास्त्रविधिसे की जानेवाली सम्पूर्ण विहित क्रियाओंका वाचक भी है। अपने वर्ण, आश्रम, धर्म, जाति, स्वभाव, देश, काल आदिके अनुसार अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म 'यज्ञ' के अन्तर्गत आते हैं। दूसरेके हितकी भावनासे किये जानेवाले सब कर्म भी 'यज्ञ' ही हैं। ऐसे यज्ञ (कर्तव्य) का दायित्व मनुष्यपर ही है। 'अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ब्रह्माजी मनुष्योंसे कहते हैं कि तुमलोग अपने-अपने कर्तव्य-पालनके द्वारा सबकी वृद्धि करो, उन्नति करो।


२-'इष्ट' शब्द 'यज्' धातुसे कृदन्तका 'क्त' प्रत्यय करनेसे बनता है, जो यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) का वाचक है और 'काम' शब्द 'कमु' धातुसे 'अण्' प्रत्यय करनेसे बनता है, जो पदार्थ (सामग्री) का वाचक है।


ऐसा करनेसे तुमलोगोंको कर्तव्य-कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री प्राप्त होती रहे, उसकी कभी कमी न रहे।


अर्जुनकी कर्म न करनेमें जो रुचि थी, उसे दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंसे भी तुम्हें कर्तव्य- कर्म करनेकी शिक्षा लेनी चाहिये। दूसरोंके हितके लिये कर्तव्य-कर्म करनेसे ही तुम्हारी लौकिक और पारलौकिक उन्नति हो सकती है।


निष्कामभावसे केवल कर्तव्य पालनके विचारसे कर्म करनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है और सकामभावसे कर्म करनेपर मनुष्य बन्धनमें पड़ जाता है। प्रस्तुत प्रकरणमें निष्कामभावसे किये जानेवाले कर्तव्य-कर्मका विवेचन चल रहा है। अतः यहाँ 'इष्टकाम' पदका अर्थ 'इच्छित भोग-सामग्री' (जो सकामभावका सूचक है) लेना उचित प्रतीत नहीं होता। यहाँ इस पदका अर्थ है- यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करनेकी आवश्यक सामग्री।


३-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने कहा कि यज्ञके सिवाय अन्य कर्मोंमें अर्थात् सकामभावसे किये जानेवाले कर्मोंमें लगा हुआ मनुष्य बँध जाता है; और आगे तेरहवें श्लोकमें भी कहा है कि जो अपने लिये अर्थात् सकामभावसे कर्म करते हैं, वे पापीलोग पापका ही भक्षण करते हैं। इस प्रकार पीछेके और आगेके श्लोकोंको देखें तो दोनों ही जगह सकामभावके त्यागकी बात आयी है। अतः बीचके इन (दसवें, ग्यारहवें और बारहवें) श्लोकोंमें भी सकामभावके त्यागकी बात ही आनी उचित है। अगर यहाँ 'इष्टकाम' पदका अर्थ 'इच्छित पदार्थ' लिया जाय तो (प्रकरण-विरुद्ध होनेके कारण) दोष आता है; क्योंकि इच्छित पदार्थ पानेके लिये किये गये कर्म भगवान् के मतमें बन्धनकारक हैं। अतः 'इष्टकाम' पदका अर्थ 'कर्तव्यके लिये आवश्यक सामग्री' ही है।


कर्मयोगी दूसरोंकी सेवा अथवा हित करनेके लिये सदा ही तत्पर रहता है। इसलिये प्रजापति ब्रह्माजीके विधानके अनुसार दूसरोंकी सेवा करनेकी सामग्री, सामर्थ्य और शरीर-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुओंकी उसे कभी कमी नहीं रहती। उसको ये उपयोगी वस्तुएँ सुगमतापूर्वक मिलती रहती हैं। ब्रह्माजीके विधानके अनुसार कर्तव्य- कर्म करनेकी सामग्री जिस-जिसको, जो-जो भी मिली हुई है, वह कर्तव्य-पालन करनेके लिये उस-उसको पूरी-की-पूरी प्राप्त है। कर्तव्य-पालनकी सामग्री कभी किसीके पास अधूरी नहीं होती। ब्रह्माजीके विधानमें कभी फर्क नहीं पड़ सकता; क्योंकि जब उन्होंने कर्तव्य-कर्म करनेका विधान निश्चित किया है, तब जितनेसे कर्तव्यका पालन हो सके, उतनी सामग्री देना भी उन्हींपर निर्भर है।


वास्तवमें मनुष्यशरीर भोग भोगनेके लिये है ही नहीं - 'एहि तन कर फल बिषय न भाई' (मानस ७। ४४। १)। इसीलिये 'सांसारिक सुखोंको भोगो'- ऐसी आज्ञा या विधान किसी भी सत्- शास्त्रमें नहीं है। समाज भी स्वच्छन्द भोग भोगनेकी आज्ञा नहीं देता। इसके विपरीत दूसरोंको सुख पहुँचानेकी आज्ञा या विधान शास्त्र और समाज दोनों ही देते हैं। जैसे, पिताके लिये यह विधान तो मिलता है कि वह पुत्रका पालन-पोषण करे, पर यह विधान कहीं भी नहीं मिलता कि पुत्रसे पिता सेवा ले ही। इसी प्रकार पुत्र, पत्नी आदि अन्य सम्बन्धोंके लिये भी समझना चाहिये।


कर्मयोगी सदा देनेका ही भाव रखता है, लेनेका नहीं; क्योंकि लेनेका भाव ही बाँधनेवाला है। लेनेका भाव रखनेसे कल्याणप्राप्तिमें बाधा लगनेके साथ ही सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिमें भी बाधा उपस्थित हो जाती है। प्रायः सभीका अनुभव है कि संसारमें लेनेका भाव रखनेवालेको कोई देना नहीं चाहता। इसलिये ब्रह्माजी कहते हैं कि बिना कुछ चाहे, निःस्वार्थभावसे कर्तव्य-कर्म करनेसे ही मनुष्य अपनी उन्नति (कल्याण) कर सकता है।"

कल के एपिसोड में हम श्लोक 11 पर चर्चा करेंगे, जिसमें यज्ञ और देवताओं के बीच की परस्परता पर भगवान श्रीकृष्ण प्रकाश डालते हैं। इसे समझने के लिए कल का एपिसोड अवश्य देखें।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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