ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 4 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue


 


श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥"

नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका हमारे YouTube चैनल पर। आज हम श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक 4 की चर्चा करेंगे। अगर आप हमारे साथ रोज़ श्लोकों पर चर्चा करते रहे हैं, तो आप पहले से ही जान गए होंगे कि हर दिन हम एक नए श्लोक पर विचार करते हैं और उसे अपनी ज़िंदगी में कैसे लागू कर सकते हैं, इस पर बात करते हैं।

पिछले वीडियो में हमने श्लोक 3 की चर्चा की थी, जहाँ हमने कर्म और उसकी महत्ता पर गहन चिंतन किया था। हमने देखा कि कैसे कर्म किए बिना केवल विचारों से कोई सफलता प्राप्त नहीं होती।

"आज हम अध्याय 3 के श्लोक 4 पर चर्चा करेंगे:

न कर्मणामनारम्भान् नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते |

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ||

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्म न करने से पुरुष को मोक्ष प्राप्त नहीं होता और केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त नहीं होती। जीवन में कर्म अत्यंत आवश्यक है और बिना कर्म किए जीवन को जीना संभव नहीं है। इस श्लोक की गहराई को समझते हैं और इसका अर्थ अपनी दैनिक जीवन में किस प्रकार लागू कर सकते हैं, इस पर बात करेंगे।"

"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 4"

"किसी भी निष्ठाकी सिद्धि-हेतु कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेका निषेध ।


(श्लोक-४)


न कर्मणामनारम्भान् नैष्कर्म्य पुरुषोऽश्नुते । न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।


उच्चारण की विधि


न, कर्मणाम्, अनारम्भात्, नैष्कर्म्यम्, पुरुषः, अश्नुते, न, च, सन्न्यसनात्, एव, सिद्धिम्, समधिगच्छति ॥ ४ ॥


परंतु किसी भी मार्गके अनुसार कर्मोंको स्वरूपसे त्यागनेकी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि -


पुरुषः अर्थात् मनुष्य, न अर्थात् न (तो), कर्मणाम् अर्थात् कर्मोंका, अनारम्भात् अर्थात् आरम्भ किये बिना, नैष्कर्म्यम् अर्थात् निष्कर्मताको * यानी योग निष्ठाको, अश्नुते अर्थात् प्राप्त होता है, च अर्थात् और, न अर्थात् न, सन्न्यसनात् एव अर्थात् (कर्मोंक केवल) त्यागमात्रसे, सिद्धिम् अर्थात् सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठाको (ही), समधिगच्छति अर्थात् प्राप्त होता है।


* जिस अवस्थाको प्राप्त हुए पुरुषके कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्थाका नाम 'निष्कर्मता' है।


व्याख्या'न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोऽश्नुते' - कर्मयोगमें कर्म करना अत्यन्त आवश्यक है। कारण कि निष्कामभावसे कर्म करनेपर ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है *।


* जो योगपर आरूढ़ होना चाहता है, अपनेमें समता लाना चाहता है, उसके लिये (कर्मयोगकी दृष्टिसे) निष्कामभावसे कर्म करना आवश्यक है -' आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते' (गीता ६। ३)। अगर वह कर्म करेगा ही नहीं तो उसको यह कैसे पता लगेगा कि मैं सिद्धि-असिद्धिमें सम रहा या विचलित हो गया ?


यह सिद्धि मनुष्यको कर्म किये बिना नहीं मिल सकती।


मनुष्यके अन्तःकरणमें कर्म करनेका जो वेग विद्यमान रहता है, उसे शान्त करनेके लिये कामनाका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है। कामना रखकर कर्म करनेपर यह वेग मिटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता है।


'नैष्कर्म्यम् अश्नुते' पदोंका आशय है कि कर्मयोगका आचरण करनेवाला मनुष्य कर्मोंको करते हुए ही निष्कर्मताको प्राप्त होता है। जिस स्थितिमें मनुष्यके कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते, उस स्थितिको 'निष्कर्मता' कहते हैं।


कामनासे रहित होकर किये गये कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिका उसी प्रकार सर्वथा अभाव हो जाता है, जिस प्रकार बीजको भूनने या उबालनेपर उसमें पुनः अंकुर देनेकी शक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है। अतः निष्काम मनुष्यके कर्मोंमें पुनः जन्म-मरणके चक्रमें घुमानेकी शक्ति नहीं रहती।


कामनाका त्याग तभी हो सकता है, जब सभी कर्म दूसरोंकी सेवाके लिये किये जायें, अपने लिये नहीं। कारण कि कर्ममात्रका सम्बन्ध संसारसे है और अपना (स्वरूपका) सम्बन्ध परमात्मासे है। अपने साथ कर्मका सम्बन्ध है ही नहीं। इसलिये जबतक अपने लिये कर्म करेंगे, तबतक कामनाका त्याग नहीं होगा और जबतक कामनाका त्याग नहीं होगा, तबतक निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होगी


'न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति' - इस श्लोकके


पूर्वार्धमें भगवान् ने कर्मयोगकी दृष्टिसे कहा कि कर्मोंका आरम्भ किये बिना कर्मयोगीको निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होती। अब श्लोकके उत्तरार्धमें सांख्ययोगकी दृष्टिसे कहते हैं कि केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेसे सांख्ययोगीको सिद्धि अर्थात् निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होती। सिद्धिकी प्राप्तिके लिये उसे कर्तापन (अहंता) का त्याग करना आवश्यक है। अतः सांख्ययोगीके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना मुख्य नहीं है, प्रत्युत अहंताका त्याग ही मुख्य है।


सांख्ययोगमें कर्म किये भी जा सकते हैं और किसी सीमातक कर्मोंका त्याग भी किया जा सकता है; परन्तु कर्मयोगमें सिद्धि- प्राप्तिके लिये कर्म करना आवश्यक होता है (गीता ६। ३)।


मार्मिक बात


श्रीमद्भगवद्गीता मनुष्यको व्यवहारमें परमार्थ-सिद्धिकी कला सिखाती है। उसका आशय कर्तव्य-कर्म करानेमें है, छुड़ानेमें नहीं। इसलिये भगवान् कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों ही साधनोंमें कर्म करनेकी बात कहते हैं।


यह एक स्वाभाविक बात है कि जब साधक अपना कल्याण चाहता है, तब वह सांसारिक कर्मोंसे उकताने लगता है और उन्हें छोड़ना चाहता है। इसी कारण अर्जुन भी कर्मोंसे उकताकर भगवान् से पूछते हैं कि जब कर्मयोग और ज्ञानयोग-दोनों प्रकारके साधनोंका तात्पर्य समतासे है, तो फिर कर्म करनेकी बात आप क्यों कहते हैं? मुझे युद्ध-जैसे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? परन्तु भगवान् ने दोनों ही प्रकारके साधनोंमें अर्जुनको कर्म करनेकी आज्ञा दी है; जैसे-कर्मयोगमें 'योगस्थः कुरु कर्माणि' (गीता २। ४८) और सांख्ययोगमें 'तस्माद्युध्यस्व भारत' (गीता २। १८)। इससे सिद्ध होता है कि भगवान् का अभिप्राय कर्मोंको स्वरूपसे छुड़ानेमें नहीं, प्रत्युत कर्म करानेमें है। हाँ, भगवान् कर्मोंमें जो जहरीला अंश- कामना, ममता और आसक्ति है, उसका त्याग करके ही कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।


कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी अपेक्षा साधकको उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहिये। कर्मयोगी निःस्वार्थभावसे कर्म करते हुए शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिको संसारकी वस्तु मानकर संसारकी सेवामें लगाता है और कर्मों तथा पदार्थोंके साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता (गीता- पाँचवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक)। ज्ञानयोगमें सत्-असत् के विवेककी प्रधानता रहती है। अतएव ज्ञानयोगी ऐसा मानता है कि गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे ही कर्म हो रहे हैं। मेरा कर्मोंके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है (गीता-तीसरे अध्यायका अट्ठाईसवाँ और पाँचवें अध्यायका आठवाँ-नवाँ श्लोक)।


प्रायः सभी साधकोंके अनुभवकी बात है कि कल्याणकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होते ही कर्म, पदार्थ और व्यक्ति (परिवार) से उनकी अरुचि होने लगती है। परन्तु वास्तवमें देहके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होनेसे यह आराम-विश्रामकी इच्छा ही है, जो साधककी उन्नतिमें बाधक है। साधकोंके मनमें ऐसा भाव रहता है कि कर्म, पदार्थ और व्यक्तिका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही हम परमार्थमार्गमें आगे बढ़ सकते हैं। परन्तु वास्तवमें इनका स्वरूपसे त्याग न करके इनमें आसक्तिका त्याग करना ही आवश्यक है। सांख्ययोगमें उत्कट वैराग्यके बिना आसक्तिका त्याग करना कठिन होता है। परन्तु कर्मयोगमें वैराग्यकी कमी होनेपर भी केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे आसक्तिका त्याग सुगमतापूर्वक हो जाता है।


गीताने एकान्तमें रहकर साधन करनेका भी आदर किया है; परन्तु एकान्तमें सात्त्विक पुरुष तो साधन-भजनमें अपना समय बिताता है, पर राजस पुरुष संकल्प-विकल्पमें, तामस पुरुष निद्रा-आलस्य- प्रमादमें अपना समय बिताता है, जो पतन करनेवाला है। इसलिये साधककी रुचि तो एकान्तकी ही रहनी चाहिये अर्थात् सांसारिक कर्मोंका त्याग करके पारमार्थिक कार्य करनेमें ही उसकी प्रवृत्ति रहनी चाहिये, परन्तु कर्तव्यरूपसे जो कर्म सामने आ जाय, उसको वह तत्परतापूर्वक करे। उस कर्ममें उसका राग नहीं होना चाहिये। राग न तो जन-समुदायमें होना चाहिये और न अकर्मण्यतामें ही। कहीं भी राग न रहनेसे साधकका बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है। वास्तवमें शरीरको एकान्तमें ले जानेको ही एकान्त मान लेना भूल है; क्योंकि शरीर संसारका ही एक अंश है। अतः शरीरसे सम्बन्ध- विच्छेद  होना अर्थात् उसमें अहंता-ममता न रहना ही वास्तविक एकान्त है।"

परिशिष्ट भाव - जो अपना है, अपनेमें है और अभी है, उस तत्त्वकी प्राप्ति कुछ करनेसे नहीं होती; क्योंकि उसकी अप्राप्ति कभी होती ही नहीं। हम कुछ करेंगे, तब प्राप्ति होगी- यह भाव देहाभिमानको पुष्ट करनेवाला है। प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है; अतः क्रिया करनेसे उसकी प्राप्ति होगी, जो विद्यमान नहीं है। परन्तु प्रकृतिके साथ सम्बन्ध होनेके कारण प्रत्येक प्राणीमें क्रियाका वेग रहता है, जो उसको क्रियारहित नहीं होने देता। क्रियाका वेग शान्त करनेके लिये यह आवश्यक है कि जो नहीं करना चाहिये, उसको न करें और जो करना चाहिये, उसको निर्मम तथा निष्काम होकर करें अर्थात् अपने लिये कुछ न करें, प्रत्युत केवल दूसरेके हितके लिये ही करें। अपने लिये करनेसे क्रियाका वेग कभी समाप्त नहीं होगा; क्योंकि अपना स्वरूप नित्य है और कर्म अनित्य हैं। अतः निष्कामभावसे दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे क्रियाका वेग शान्त होकर प्रकृतिसे सम्बन्ध विच्छेद हो जायगा और सब देश, काल आदिमें विद्यमान परमात्मतत्त्व प्रकट हो जायगा, उसका अनुभव हो जायगा।

कल के वीडियो में हम श्लोक 5 की चर्चा करेंगे, जिसमें श्रीकृष्ण यह समझाएंगे कि कोई भी व्यक्ति क्षण मात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। इस श्लोक का गहरा प्रभाव हमारे जीवन के हर पहलू पर पड़ता है, तो कल इस पर गहन चर्चा करेंगे।

"दोस्तों, अगर आपको हमारा यह वीडियो पसंद आया हो तो इसे लाइक करें और चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें। हमें कमेंट्स में बताइए कि आपने आज के श्लोक से क्या सीखा। साथ ही, कल के श्लोक की चर्चा में आपसे मिलेंगे, तब तक के लिए धन्यवाद!


खास ऑफर:

अपना लर्निंग शेयर करें और 100 लाइक्स पाएं अपने कमेंट पर। इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ शेयर करें और 100 लाइक्स प्राप्त करें, ताकि आपको 2 महीने का YouTube प्रीमियम मुफ्त पाने का मौका मिल सके!


धन्यवाद और फिर मिलेंगे एक नए ज्ञान के साथ!"


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

Comments

Popular posts from this blog

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 34 - 🧠 मन, बुद्धि और भक्ति से पाओ भगवान को!