ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 6 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue



श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

नमस्कार दोस्तों! आपका स्वागत है हमारे यूट्यूब चैनल पर, जहाँ हम श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों पर गहन चर्चा करते हैं। आज हम अध्याय 3 के श्लोक 6 पर विचार करेंगे। अगर आपने हमारे पिछले एपिसोड्स नहीं देखे हैं, तो ज़रूर देखें ताकि आप हमारी इस अद्भुत यात्रा का हिस्सा बन सकें।

कल हमने श्लोक 5 पर चर्चा की थी, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि कोई भी व्यक्ति क्षणभर भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। कर्म करना हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इससे बचना असंभव है।

"अब हम अध्याय 3, श्लोक 6 पर चर्चा करेंगे:

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह बता रहे हैं कि जो व्यक्ति अपने इंद्रियों को रोकता है लेकिन मन से विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहलाता है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण हमें सिखा रहे हैं कि केवल बाहरी संयम काफी नहीं है, बल्कि आंतरिक संयम भी अत्यंत आवश्यक है। जो केवल दिखावे के लिए इंद्रियों का संयम करता है, लेकिन मन में विषयों का चिंतन करता है, उसे दम्भी और धोखेबाज कहा जाता है।"

"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 6

"""(श्लोक-६)


कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥


उच्चारण की विधि


कर्मेन्द्रियाणि, संयम्य, यः, आस्ते, मनसा, स्मरन्, इन्द्रियार्थान्, विमूढात्मा, मिथ्याचारः, सः, उच्यते ॥ ६ ॥


यः अर्थात् जो, विमूढात्मा अर्थात् मूढ़बुद्धि मनुष्य, कर्मेन्द्रियाणि अर्थात् समस्त मनसे इन्द्रियों को (हठपूर्वक ऊपरसे), संयम्य अर्थात् रोककर, मनसा अर्थात् मनसे (उन), इन्द्रियार्थान् अर्थात् इन्द्रियोंके विषयोंका, स्मरन् अर्थात् चिन्तन करता, आस्ते अर्थात् रहता है, सः अर्थात् वह, मिथ्याचारः अर्थात् मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी, उच्यते अर्थात् कहा जाता है।


व्याख्या 'कर्मेन्द्रियाणि संयम्य...... मिथ्याचारः स उच्यते' - यहाँ 'कर्मेन्द्रयाणि' पदका अभिप्राय पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा) से ही नहीं है, प्रत्युत इनके साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण) से भी है; क्योंकि ज्ञानेन्द्रियोंके बिना केवल कर्मेन्द्रियोंसे कर्म नहीं हो सकते। इसके सिवाय केवल हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रियोंको रोकनेसे तथा आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियोंको न रोकनेसे पूरा मिथ्याचार भी सिद्ध नहीं होता।


गीतामें कर्मेन्द्रियोंके अन्तर्गत ही ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं। इसलिये गीतामें 'कर्मेन्द्रिय' शब्द तो आता है, पर 'ज्ञानेन्द्रिय' शब्द कहीं नहीं आता। पाँचवें अध्यायके आठवें नवें श्लोकोंमें देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि ज्ञानेन्द्रियोंकी क्रियाओंको भी कर्मेन्द्रियोंकी क्रियाओंके साथ सम्मिलित किया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि गीता ज्ञानेन्द्रियोंको भी कर्मेन्द्रियाँ ही मानती है। गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती है- 'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (१८। १५)। तात्पर्य यह है कि मात्र प्रकृति क्रियाशील होनेसे प्रकृतिका कार्यमात्र क्रियाशील है।


यद्यपि 'संयम्य' पदका अर्थ होता है- इन्द्रियोंका अच्छी तरहसे नियमन अर्थात् उन्हें वशमें करना, तथापि यहाँ इस पदका अर्थ इन्द्रियोंको वशमें करना न होकर उन्हें हठपूर्वक बाहरसे रोकना ही है। कारण कि इन्द्रियोंके वशमें होनेपर उसे मिथ्याचार कहना नहीं बनता।


मूढ़ बुद्धिवाला (सत्-असत् के विवेकसे रहित) मनुष्य बाहरसे तो इन्द्रियोंकी क्रियाओंको हठपूर्वक रोक देता है, पर मनसे उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है और ऐसी स्थितिको क्रियारहित मान लेता है। इसलिये वह मिथ्याचारी अर्थात् मिथ्या आचरण करनेवाला कहा जाता है।


यद्यपि उसने इन्द्रियोंके विषयोंको बाहरसे त्याग दिया है और ऐसा समझता है कि मैं कर्म नहीं करता हूँ, तथापि ऐसी अवस्थामें भी वह वस्तुतः कर्मरहित नहीं हुआ है। कारण कि बाहरसे क्रियारहित दीखनेपर भी अहंता, ममता और कामनाके कारण रागपूर्वक विषयचिन्तनके रूपमें विषय-भोगरूप कर्म तो हो ही रहा है।


सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा सकता है और मनसे भी। बाहरसे रागपूर्वक भोगोंको भोगनेसे अन्तःकरणमें भोगोंके जैसे संस्कार पड़ते हैं, वैसे ही संस्कार मनसे भोगोंको भोगनेसे अर्थात् रागपूर्वक भोगोंका चिन्तन करनेसे भी पड़ते हैं। बाहरसे भोगोंका त्याग तो मनुष्य विचारसे, लोक-लिहाजसे और व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके भयसे भी कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती। अतः वह मनसे भोगोंको भोगता रहता है और मिथ्या अभिमान करता है कि मैं भोगोंका त्यागी हूँ। मनसे भोग भोगनेसे विशेष हानि होती है; क्योंकि इसके सेवनका विशेष अवसर मिलता है। अतः साधकको चाहिये कि जैसे वह बाहरके भोगोंसे अपनेको बचाता है, उनका त्याग करता है, ऐसे ही मनसे भोगोंके चिन्तनका भी विशेष सावधानीसे त्याग करे।


अर्जुन भी कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना चाहते हैं और भगवान् से पूछते हैं कि आप मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? इसके उत्तरमें यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि रखते हुए केवल बाहरसे कर्मोंका त्याग करके अपनेको क्रियारहित मानता है, उसका आचरण मिथ्या है। तात्पर्य यह है कि साधकको कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके उन्हें कामना-आसक्तिसे रहित होकर तत्परतापूर्वक करते रहना चाहिये।


परिशिष्ट भाव - सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा सकता है और मनसे भी। बाहरसे भोग भोगना और मनसे उनके चिन्तनका रस (सुख) लेना-दोनोंमें कोई फर्क नहीं है। बाहरसे रागपूर्वक भोग भोगनेसे जैसा संस्कार पड़ता है, वैसा ही संस्कार मनसे भोग भोगनेसे अर्थात् मनसे भोगोंके चिन्तनमें रस लेनेसे पड़ता है। भोगकी याद आनेपर उसकी यादसे रस लेते हैं तो कई वर्ष बीतनेपर भी वह भोग ज्यों-का-त्यों (ताजा) बना रहता है। अतः भोगके चिन्तनसे भी एक नया भोग बनता है! इतना ही नहीं, मनसे भोगोंके चिन्तनका सुख लेनेसे विशेष हानि होती है। कारण कि लोक-लिहाजसे, व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके भयसे मनुष्य बाहरसे तो भोगोंका त्याग कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती। अतः मनसे भोग भोगनेका विशेष अवसर मिलता है। इसलिये मनसे भोग भोगना साधकके लिये बहुत नुकसान करनेवाली बात है। वास्तवमें मनसे भोगोंका त्याग ही वास्तविक त्याग है (गीता-दूसरे अध्यायका चौंसठवाँ श्लोक)।


सम्बन्ध-चौथे श्लोकमें भगवान् ने कर्मयोग और सांख्ययोग- दोनोंकी दृष्टिसे कर्मोंका त्याग अनावश्यक बताया। फिर पाँचवें श्लोकमें कहा कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। छठे श्लोकमें हठपूर्वक इन्द्रियोंकी क्रियाओंको रोककर अपनेको क्रियारहित मान लेनेवालेका आचरण मिथ्या बताया। इससे सिद्ध हुआ कि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेमात्रसे उनका वास्तविक त्याग नहीं होता। अतः आगेके श्लोकमें भगवान् वास्तविक त्यागकी पहचान बताते हैं।

"कल के एपिसोड में हम श्लोक 7 पर चर्चा करेंगे, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण इस मिथ्याचार से अलग सही मार्ग की ओर संकेत करते हैं। इस श्लोक में बताया जाएगा कि किस प्रकार मन और इंद्रियों का सही संयम करते हुए कर्म किया जाना चाहिए।

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धन्यवाद और फिर मिलेंगे एक नए ज्ञान के साथ!"


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण || 

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