ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 9 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आप सभी का हमारे यूट्यूब चैनल पर, जहाँ हम श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों का गहन अध्ययन और चर्चा कर रहे हैं। आज हम अध्याय 3, श्लोक 9 पर विचार करेंगे। अगर आपने हमारे पिछले एपिसोड्स नहीं देखे हैं, तो पहले उन्हें देखें ताकि आपको पूरी श्रृंखला समझ में आ सके।
कल हमने श्लोक 8 पर चर्चा की थी, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म के महत्व को समझाते हुए कहा था कि कर्म करना न करने से श्रेष्ठ है, और बिना कर्म के शरीर का भी पालन-पोषण नहीं हो सकता।
"अब हम अध्याय 3, श्लोक 9 पर चर्चा करेंगे:
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ के लिए किए गए कर्मों के अतिरिक्त अन्य सभी कर्म मनुष्य को कर्मबंधन में डाल देते हैं। इसलिए हे अर्जुन! तुझे आसक्ति रहित होकर यज्ञ के निमित्त कर्म करना चाहिए।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि कर्म का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत लाभ नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे यज्ञ यानी समर्पण और दूसरों के कल्याण के लिए किया जाना चाहिए। ऐसे कर्म करने से व्यक्ति संसार के बंधनों से मुक्त हो सकता है और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। इसलिए, अपने कर्मों को निष्काम भाव से और यज्ञ भावना के साथ करना चाहिए।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 9"
"(श्लोक-९)
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥
उच्चारण की विधि
यज्ञार्थात्, कर्मणः, अन्यत्र, लोकः, अयम्, कर्मबन्धनः, तदर्थम्, कर्म, कौन्तेय, मुक्तसङ्गः, समाचर ॥ ९ ॥
यज्ञार्थात् अर्थात् यज्ञके निमित्त किये जानेवाले, कर्मणः अर्थात् कर्मोंसे अतिरिक्त, अन्यत्र अर्थात् दूसरे कर्मोंमें, (लगा हुआ ही), अयम् अर्थात् यह, लोकः अर्थात् मनुष्य-समुदाय, कर्मबन्धनः अर्थात् कर्मोंसे बँधता है (इसलिये), कौन्तेय अर्थात् हे अर्जुन ! (तू), मुक्तसङ्गः अर्थात् आसक्तिसे रहित होकर, तदर्थम् अर्थात् उस यज्ञके निमित्त (ही भलीभाँति), कर्म अर्थात् कर्तव्यकर्म, समाचर अर्थात् कर।"
"व्याख्या'यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र'- गीताके अनुसार कर्तव्यमात्रका नाम 'यज्ञ' है। 'यज्ञ' शब्दके अन्तर्गत यज्ञ, दान, तप, होम, तीर्थ-सेवन, व्रत, वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ आ जाती हैं। कर्तव्य मानकर किये जानेवाले व्यापार, नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मोंका नाम भी यज्ञ है। दूसरोंको सुख पहुँचाने तथा उनका हित करनेके लिये जो भी कर्म किये जाते हैं, वे सभी यज्ञार्थ कर्म हैं। यज्ञार्थ कर्म करनेसे आसक्ति बहुत जल्दी मिट जाती है तथा कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं (गीता ४। २३) अर्थात् वे कर्म स्वयं तो बन्धनकारक होते नहीं, प्रत्युत पूर्वसंचित कर्मसमूहको भी समाप्त कर देते हैं।
वास्तवमें मनुष्यकी स्थिति उसके उद्देश्यके अनुसार होती है, क्रियाके अनुसार नहीं। जैसे व्यापारीका प्रधान उद्देश्य धन कमाना रहता है; अतः वास्तवमें उसकी स्थिति धनमें ही रहती है और दुकान बंद करते ही उसकी वृत्ति धनकी तरफ चली जाती है। ऐसे ही यज्ञार्थ कर्म करते समय कर्मयोगीकी स्थिति अपने उद्देश्य- परमात्मामें ही रहती है और कर्म समाप्त करते ही उसकी वृत्ति परमात्माकी तरफ चली जाती है।
सभी वर्णोंके लिये अलग-अलग कर्म हैं। एक वर्णके लिये कोई कर्म स्वधर्म है तो वही दूसरे वर्णोंके लिये (विहित न होनेसे) परधर्म अर्थात् अन्यत्र कर्म हो जाता है; जैसे- भिक्षासे जीवन-निर्वाह करना ब्राह्मणके लिये तो स्वधर्म है, पर क्षत्रियके लिये परधर्म है। इसी प्रकार निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करना मनुष्यका स्वधर्म है और सकामभावसे कर्म करना परधर्म है। जितने भी सकाम और निषिद्ध कर्म हैं वे सब-के-सब 'अन्यत्र कर्म' की श्रेणीमें ही हैं। अपने सुख, मान, बड़ाई, आराम आदिके लिये जितने कर्म किये जायें, वे सब- के-सब भी 'अन्यत्र-कर्म' हैं * ।
* अपने लिये कर्म करनेसे सकामभाव रहता है और सकामभाव रहनेसे निषिद्ध कर्म होनेकी पूर्ण सम्भावना रहती है।
अतः छोटा-से-छोटा तथा बड़ा-से-बड़ा जो भी कर्म किया जाय, उसमें साधकको सावधान रहना चाहिये कि कहीं किसी स्वार्थकी भावनासे तो कर्म नहीं हो रहा है! साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर सावधान रहता है। इसलिये साधकको अपनी साधनाके प्रति सतर्क, जागरूक रहना ही चाहिये।
'अन्यत्र-कर्म' के विषयमें दो गुप्त भाव- (१) किसीके आनेपर यदि कोई मनुष्य उसके प्रति 'आइये! बैठिये!' आदि आदरसूचक शब्दोंका प्रयोग करता है, पर भीतरसे अपनेमें सज्जनताका आरोप करता है अथवा 'ऐसा कहनेसे आनेवाले व्यक्तिपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा'- इस भावसे कहता है तो इसमें स्वार्थकी भावना छिपी रहनेसे यह 'अन्यत्र कर्म' ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं।
(२) सत्संग, सभा आदिमें कोई व्यक्ति मनमें इस भावको रखते हुए प्रश्न करता है कि वक्ता और श्रोतागण मुझे अच्छा जानकार समझेंगे तथा उनपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा तो यह 'अन्यत्र कर्म' ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं।
तात्पर्य यह है कि साधक कर्म तो करे, पर उसमें स्वार्थ, कामना आदिका भाव नहीं रहना चाहिये। कर्मका निषेध नहीं है, प्रत्युत सकामभावका निषेध है।
साधकको भोग और ऐश्वर्य-बुद्धिसे कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसी बुद्धिमें भोगासक्ति और कामना रहती है, जिससे कर्मयोगका आचरण नहीं हो पाता। निर्वाह-बुद्धिसे कर्म करनेपर भी जीनेकी कामना बनी रहती है। अतः निर्वाह-बुद्धि भी त्याज्य है। साधकको केवल साधन-बुद्धिसे ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये। सबसे उत्तम साधक तो वह है, जो अपनी मुक्तिके लिये भी कोई कर्म न करके केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्म करता है। कारण कि अपना हित दूसरोंके लिये कर्म करनेसे होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं। दूसरोंके हितमें ही अपना हित है। दूसरोंके हितसे अपना हित अलग मानना ही गलती है। इसलिये लौकिक तथा शास्त्रीय जो कर्म किये जायें, वे सब-के-सब केवल लोक- हितार्थ होने चाहिये।
अपने सुखके लिये किया गया कर्म तो बन्धनकारक है ही, अपने व्यक्तिगत हितके लिये किया गया कर्म भी बन्धनकारक है। केवल अपने हितकी तरफ दृष्टि रखनेसे व्यक्तित्व बना रहता है। इसलिये और तो क्या, जप, चिन्तन, ध्यान, समाधि भी केवल लोकहितके लिये ही करे। तात्पर्य यह कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरोंसे होनेवाली मात्र क्रिया संसारके लिये ही हो, अपने लिये नहीं। 'कर्म' संसारके लिये है और संसारसे सम्बन्ध विच्छेद होनेपर परमात्माके साथ 'योग' अपने लिये है। इसीका नाम है- कर्मयोग।
'लोकोऽयं कर्मबन्धनः '- कर्तव्य-कर्म (यज्ञ) करनेका अधिकार मुख्यरूपसे मनुष्यको ही है। इसका वर्णन भगवान् ने आगे सृष्टिचक्रके प्रसंग (तीसरे अध्यायके चौदहवेंसे सोलहवें श्लोकतक) में भी किया है। जिसका उद्देश्य प्राणिमात्रका हित करना, उनको सुख पहुँचाना होता है, उसीके द्वारा कर्तव्य-कर्म हुआ करते हैं। जब मनुष्य दूसरोंके हितके लिये कर्म न करके केवल अपने सुखके लिये कर्म करता है, तब वह बंध जाता है।
आसक्ति और स्वार्थभावसे कर्म करना ही बन्धनका कारण है। आसक्ति और स्वार्थके न रहनेपर स्वतः सबके हितके लिये कर्म होते हैं। बन्धन भावसे होता है, क्रियासे नहीं। मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत कर्मोंमें वह जो आसक्ति और स्वार्थभाव रखता है, उनसे ही वह बँधता है।
'तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर' - यहाँ 'मुक्तसंगः' पदसे भगवान् का यह तात्पर्य है कि कर्मोंमें, पदार्थोंमें तथा जिनसे कर्म किये जाते हैं, उन शरीर, मन, बुद्धि आदि सामग्रीमें ममता- आसक्ति होनेसे ही बन्धन होता है। ममता, आसक्ति रहनेसे कर्तव्य- कर्म भी स्वाभाविक एवं भलीभाँति नहीं होते। ममता-आसक्ति न रहनेसे परहितके लिये कर्तव्य कर्मका स्वतः आचरण होता है और यदि कर्तव्य-कर्म प्राप्त न हो तो स्वतः निर्विकल्पतामें, स्वरूपमें स्थिति होती है। परिणामस्वरूप साधन निरन्तर होता है और असाधन कभी होता ही नहीं।
आलस्य और प्रमादके कारण नियत कर्मका त्याग करना 'तामस त्याग' कहलाता है (गीता- अठारहवें अध्यायका सातवाँ श्लोक), जिसका फल मूढ़ता अर्थात् मूढ़योनियोंकी प्राप्ति है- 'अज्ञानं तमसः फलम्' (गीता १४। १६)। कर्मोंको दुःखरूप समझकर उनका त्याग करना 'राजस त्याग' कहलाता है (गीता - अठारहवे अध्यायका आठवाँ श्लोक), जिसका फल दुःखोंकी प्राप्ति है - ' रजसस्तु फलं दुःखम्' (गीता १४। १६)। इसलिये यहाँ भगवान् अर्जुनको कर्मोंका त्याग करनेके लिये नहीं कहते, प्रत्युत स्वार्थ, ममता, फलासक्ति, कामना, वासना, पक्षपात आदिसे रहित होकर शास्त्रविधिके अनुसार सुचारुरूपसे उत्साहपूर्वक कर्तव्य- कर्मोंको करनेकी आज्ञा देते हैं, जो 'सात्त्विक त्याग' कहलाता है (गीता-अठारहवें अध्यायका नवाँ श्लोक)। स्वयं भगवान् भी आगे चलकर कहते हैं कि मेरे लिये कुछ भी करना शेष नहीं है, फिर भी मैं सावधानीपूर्वक कर्म करता हूँ (तीसरे अध्यायका बाईसवाँ-तेईसवाँ श्लोक)।
कर्तव्य-कर्मोंका अच्छी तरह आचरण करनेमें दो कारणोंसे शिथिलता आती है- (१) मनुष्यका स्वभाव है कि वह पहले फलकी कामना करके ही कर्ममें प्रवृत्त होता है। जब वह देखता है कि कर्मयोगके अनुसार फलकी कामना नहीं रखनी है, तब वह विचार करता है कि कर्म ही क्यों करूँ ? (२) कर्म आरम्भ करनेके बाद जब अन्तमें उसे पता लग जाय कि इसका फल विपरीत होगा, तब वह विचार करता है कि मैं कर्म तो अच्छा-से-अच्छा करूँ, पर फल विपरीत मिले तो फिर कर्म करूँ ही क्यों ?
कर्मयोगी न तो कोई कामना करता है और न कोई नाशवान् फल ही चाहता है, वह तो मात्र संसारका हित सामने रखकर ही कर्तव्य- कर्म करता है। अतः उपर्युक्त दोनों कारणोंसे उसके कर्तव्य-कर्ममें शिथिलता नहीं आ सकती।"
"मार्मिक बात
मनुष्यका प्रायः ऐसा स्वभाव हो गया है कि जिसमें उसको अपना स्वार्थ दिखायी देता है, उसी कर्मको वह बड़ी तत्परतासे करता है। परन्तु वही कर्म उसके लिये बन्धनकारक हो जाता है। अतः इस बन्धनसे छूटनेके लिये उसे कर्मयोगके अनुसार आचरण करनेकी बड़ी आवश्यकता है।
कर्मयोगमें सभी कर्म केवल दूसरोंके लिये किये जाते हैं, अपने लिये कदापि नहीं। दूसरे कौन-कौन हैं ? इसे समझना भी बहुत जरूरी है। अपने शरीरके सिवाय दूसरे प्राणी-पदार्थ तो दूसरे हैं ही, पर ये अपने कहलानेवाले स्थूल शरीर, सूक्ष्म-शरीर (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण) और कारण-शरीर (जिसमें माना हुआ 'अहम्' है) भी स्वयंसे दूसरे ही हैं*।
* जैसे संसार 'पर' है, ऐसे ही शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि भी 'पर' अर्थात् दूसरे ही हैं, अतः कर्मयोगी इनको अपना न मानकर इनकी भी सेवा करता है। शरीरको निद्रालु, आलसी, प्रमादी, निकम्मा और भोगी न बनने देना 'शरीर' की सेवा है। इन्द्रियोंको सांसारिक भोगोंमें न लगने देना 'इन्द्रियों' की सेवा है। मनको किसीका अहित सोचनेमें, विषयोंके चिन्तनमें तथा व्यर्थ चिन्तनमें न लगने देना 'मन' की सेवा है। बुद्धिको दूसरोंके कर्तव्यपर विचार न करने देना, दूसरा क्या करता है, क्या नहीं- यह न सोचने देना 'बुद्धि' की सेवा है। वास्तवमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिमें ममता-आसक्ति न रखना ही इनकी सबसे बड़ी सेवा है।
कारण कि स्वयं (जीवात्मा) चेतन परमात्माका अंश है और ये शरीर आदि पदार्थ जड प्रकृतिके अंश हैं। समस्त क्रियाएँ जडमें और जडके लिये ही होती हैं। चेतनमें और चेतनके लिये कभी कोई क्रिया नहीं होती। अतः 'करना' अपने लिये है ही नहीं, कभी हुआ नहीं और हो सकता भी नहीं। हाँ, संसारसे मिले हुए इन शरीर आदि जड पदार्थोंको चेतन जितने अंशमें 'मैं', 'मेरा' और 'मेरे लिये' मान लेता है, उतने अंशमें उसका स्वभाव 'अपने लिये' करनेका हो जाता है। अतः दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ममता-आसक्ति सुगमतासे मिट जाती है।
शरीरकी अवस्थाएँ (बचपन, जवानी आदि) बदलनेपर भी 'मैं वही हूँ'- इस रूपमें अपनी एक निरन्तर रहनेवाली सत्ताका प्राणिमात्रको अनुभव होता है। इस अपरिवर्तनशील सत्ता (अपने होनेपन) की परमात्मतत्त्वके साथ स्वतः एकता है और परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी संसारके साथ स्वतः एकता है। हमारे द्वारा जो भी क्रिया की जाती है, वह शरीर, इन्द्रियों आदिके द्वारा ही की जाती है; क्योंकि क्रियामात्रका सम्बन्ध प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ है, स्वयं (अपने स्वरूप) के साथ नहीं। इसलिये शरीरके सम्बन्धके बिना हम कोई भी क्रिया नहीं कर सकते। इससे यह बात निश्चितरूपसे सिद्ध होती है कि हमें अपने लिये कुछ भी नहीं करना है; जो कुछ करना है, संसारके लिये ही करना है। कारण कि 'करना' उसीपर लागू होता है, जो स्वयं कर सकता है। जो स्वयं कुछ कर ही नहीं सकता, उसके लिये 'करने' का विधान है ही नहीं। जो कुछ किया जाता है, संसारकी सहायतासे ही किया जाता है।
अतः 'करना' संसारके लिये ही है। अपने लिये करनेसे ही मनुष्य
कर्मोंसे बँधता है- 'यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।'
विनाशी और परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिके साथ अपने अविनाशी और अपरिवर्तनशील स्वरूपका कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिये अपना और अपने लिये कुछ भी नहीं है। शरीरादिकी सहायताके बिना हम कुछ नहीं कर सकते, इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं करना है। अपने सत्-स्वरूपमें कभी कोई कमी नहीं आती और कमी आये बिना कोई इच्छा नहीं होती, इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये। इस प्रकार जब क्रिया और पदार्थसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है (जो वास्तवमें है) तब यदि ज्ञानके संस्कार हैं तो स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता है और यदि भक्तिके संस्कार हैं तो भगवान् में प्रेम हो जाता है।
परिशिष्ट भाव - मनुष्य कर्म करनेसे नहीं बँधता, प्रत्युत 'अन्यत्र कर्म' करनेसे अर्थात् अपने लिये कर्म करनेसे बँधता है (गीता - इसी अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)। अतः 'यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः' पदोंका तात्पर्य है- अपने लिये कुछ नहीं करना है।
मनुष्य कर्म-बन्धनसे तभी मुक्त हो सकता है, जब वह संसारसे मिले हुए शरीर, वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य (बल) संसारकी ही सेवामें लगा दे और बदलेमें कुछ न चाहे। कारण कि संसार हमें वह वस्तु दे ही नहीं सकता, जो हम वास्तवमें चाहते हैं। हम सुख चाहते हैं, अमरता चाहते हैं, निश्चिन्तता चाहते हैं, निर्भयता चाहते हैं, स्वाधीनता चाहते हैं। परन्तु यह सब हमें संसारसे नहीं मिलेगा, प्रत्युत संसारके सम्बन्ध विच्छेदसे मिलेगा। संसारसे सम्बन्ध- विच्छेदके लिये यह आवश्यक है कि हमें संसारसे जो मिला है, उसको केवल संसारकी ही सेवामें समर्पित कर दें।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने कहा कि यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) के अतिरिक्त कर्म बन्धनकारक होते हैं। अतः इस बन्धनसे मुक्त होनेके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके कर्तव्यबुद्धिसे कर्म करना आवश्यक है। अब कर्मोंकी अवश्यकर्तव्यताको पुष्ट करनेके लिये और भी हेतु बताते हैं।"
कल के एपिसोड में हम श्लोक 10 पर चर्चा करेंगे, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के निर्माण और यज्ञ के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। इसे देखने के लिए जुड़े रहिए!
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धन्यवाद और फिर मिलेंगे एक नए ज्ञान के साथ!"
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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