ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 20 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
नमस्कार दोस्तों! श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय की हमारी ज्ञानमयी यात्रा में आपका स्वागत है। आज हम श्लोक 20 पर चर्चा करेंगे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण कर्म के महत्व को और अधिक गहराई से समझाते हैं।
कल हमने श्लोक 19 पर चर्चा की थी, जहाँ श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म की महत्ता पर जोर दिया और बताया कि हमें कर्म तो करना चाहिए लेकिन बिना किसी फल की आसक्ति के।
"आज का श्लोक है:
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥
श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि “राजा जनक और अन्य महान व्यक्तियों ने भी केवल कर्म द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की है। इसलिए, दूसरों का कल्याण करने के लिए भी आपको कर्म करना चाहिए।” इसका अर्थ यह है कि हमें न केवल अपनी आत्मोन्नति के लिए बल्कि समाज और लोगों के कल्याण के लिए भी कर्म करना चाहिए।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 20"
"जनकादिके दृष्टान्तसे कर्म करनेके लिये प्रेरणा ।
(श्लोक-२०)
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।।
उच्चारण की विधि
कर्मणा, एव, हि, संसिद्धिम्, आस्थिताः, जनकादयः, लोकसङ्ग्रहम्, एव, अपि, सम्पश्यन्, कर्तुम्, अर्हसि ॥ २० ॥
जनकादयः अर्थात् जनकादि, ज्ञानीजन भी, कर्मणा अर्थात् (आसक्ति रहित) कर्मद्वारा, एव अर्थात् ही, संसिद्धिम् अर्थात् परमसिद्धिको, आस्थिताः अर्थात् प्राप्त हुए थे, हि अर्थात् इसलिये (तथा), लोकसङ्ग्रहम् अर्थात् लोकसंग्रहको, सम्पश्यन् अर्थात् देखते हुए, अपि अर्थात् भी (तू), कर्तुम् अर्थात् कर्म करनेको, एव अर्थात् ही, अर्हसि अर्थात् योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है।"
"व्याख्या-'कर्मणैव
हि
जनकादयः ''आदि' पद 'प्रभृति' (आरम्भ) तथा 'प्रकार' दोनोंका वाचक माना जाता है। यदि यहाँ आये 'आदि' पदको 'प्रभृति' का वाचक माना जाय तो 'जनकादयः' पदका अर्थ होगा - जिनके आदि (आरम्भ) में राजा जनक हैं अर्थात् राजा जनक तथा उनके बादमें होनेवाले महापुरुष। परन्तु यहाँ ऐसा अर्थ मानना ठीक नहीं प्रतीत होता; क्योंकि राजा जनकसे पहले भी अनेक महापुरुष कर्मोंके द्वारा परमसिद्धिको प्राप्त हो चुके थे; जैसे सूर्य, वैवस्वत मनु, राजा इक्ष्वाकु आदि (गीता-चौथे अध्यायका पहला- दूसरा श्लोक)। इसलिये यहाँ 'आदि' पदको 'प्रकार' का वाचक मानना ही उचित है, जिसके अनुसार 'जनकादयः' पदका अर्थ है - राजा जनक-जैसे गृहस्थाश्रममें रहकर निष्कामभावसे सब कर्म करते हुए परमसिद्धिको प्राप्त हुए महापुरुष, जो राजा जनकसे पहले तथा बादमें (आजतक) हो चुके हैं।
कर्मयोग बहुत पुरातन योग है, जिसके द्वारा राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष परमात्माको प्राप्त हो चुके हैं। अतः वर्तमानमें तथा भविष्यमें भी यदि कोई कर्मयोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो उसे चाहिये कि वह मिली हुई प्राकृत वस्तुओं (शरीरादि) को कभी अपनी और अपने लिये न माने। कारण कि वास्तवमें वे अपनी और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत संसारकी और संसारके लिये ही हैं। इस वास्तविकताको मानकर संसारसे मिली वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध- विच्छेद होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है।
इसलिये कर्मयोग परमात्मप्राप्तिका सुगम, श्रेष्ठ और स्वतन्त्र साधन है- इसमें कोई सन्देह नहीं।"
"यहाँ 'कर्मणा एव' पदोंका सम्बन्ध पूर्वश्लोकके 'असक्तो ह्याचरन्कर्म' पदोंसे अर्थात् आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे है; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त होता है, केवल कर्म करनेसे नहीं। केवल कर्म करनेसे तो प्राणी बँधता है- 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' (महा० शान्ति० २४१। ७)।
गीताकी यह शैली है कि भगवान् पीछेके श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको (जो साधकोंके लिये विशेष उपयोगी होती है) संक्षेपसे आगेके श्लोकमें पुनः कह देते हैं; जैसे पीछेके (उन्नीसवें) श्लोकमें आसक्तिरहित होकर कर्म करनेकी आज्ञा देकर इस बीसवें श्लोकमें उसी बातको संक्षेपसे 'कर्मणा एव' पदोंसे कहते हैं। इसी प्रकार आगे बारहवें अध्यायके छठे श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको सातवें श्लोकमें संक्षेपसे 'मय्यावेशितचेतसाम्' (मुझमें चित्त लगानेवाले भक्त) पदसे पुनः कहेंगे।
यहाँ भगवान् 'कर्मणा एव' के स्थानपर 'योगेन एव' भी कह सकते थे। परन्तु अर्जुनका आग्रह कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेका होने तथा (आसक्तिरहित होकर किये जानेवाले) कर्मका ही प्रसंग चलनेके कारण 'कर्मणा एव' पदोंका प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ इन पदोंका अभिप्राय (पूर्वश्लोकके अनुसार) आसक्तिरहित होकर किये गये कर्मयोगसे ही है।
वास्तवमें चिन्मय परमात्माकी प्राप्ति जड कर्मोंसे नहीं होती। नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव होनेमें जो बाधाएँ हैं, वे आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे दूर हो जाती हैं। फिर सर्वत्र परिपूर्ण स्वतःसिद्ध परमात्माका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार परमात्मतत्त्वके अनुभवमें आनेवाली बाधाओंको दूर करनेके कारण यहाँ कर्मके द्वारा परमसिद्ध (परमात्मतत्त्व) की प्राप्तिकी बात कही गयी है।
"
"परमात्मप्राप्ति-सम्बन्धी मार्मिक बात
मनुष्य सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिकी तरह परमात्माकी प्राप्तिको भी कर्मजन्य मान लेते हैं। वे ऐसा विचार करते हैं कि जब किसी बड़े (उच्चपदाधिकारी) मनुष्यसे मिलनेमें भी इतना परिश्रम करना पड़ता है, तब अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक परमात्मासे मिलनेमें तो बहुत ही परिश्रम (तप, व्रत आदि) करना पड़ेगा। वस्तुतः यही साधककी सबसे बड़ी भूल है।
मनुष्ययोनिका कर्मोंसे घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिये मनुष्ययोनिको 'कर्मसंगी' अर्थात् 'कर्मोंमें आसक्तिवाली' कहा गया है- 'रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते' (गीता १४। १५)। यही कारण है कि कर्मोंमें मनुष्यकी विशेष प्रवृत्ति रहती है और वह कर्मोंके द्वारा ही अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त करना चाहता है। प्रारब्धका साथ रहनेपर वह कर्मोंके द्वारा ही अभीष्ट सांसारिक वस्तुओंको प्राप्त भी कर लेता है, जिससे उसकी यह धारणा पुष्ट हो जाती है कि प्रत्येक वस्तु कर्म करनेसे ही मिलती है और मिल सकती है। परमात्माके विषयमें भी उसका यही भाव रहता है और वह चेतन परमात्माको भी जड कर्मोंके ही द्वारा प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है। परन्तु वास्तविकता यही है कि परमात्माकी प्राप्ति कर्मोंके द्वारा नहीं होती। इस विषयको बहुत गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिये।
कर्मोंसे नाशवान् वस्तु (संसार) की प्राप्ति होती है, अविनाशी वस्तु (परमात्मा) की नहीं; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म नाशवान् (शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि) के सम्बन्धसे ही होते हैं, जबकि परमात्माकी प्राप्ति नाशवान् से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेपर होती है।"
"प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है, इसलिये कर्मके फलरूप प्राप्त होनेवाली वस्तु भी उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होती है। कर्मोंके द्वारा उसी वस्तुकी प्राप्ति होती है, जो देश-काल आदिकी दृष्टिसे दूर (अप्राप्त) हो। सांसारिक वस्तु एक देश, काल आदिमें रहनेवाली, उत्पन्न और नष्ट होनेवाली एवं प्रतिक्षण बदलनेवाली है। अतः उसकी प्राप्ति कर्म-साध्य है। परन्तु परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें परिपूर्ण (नित्यप्राप्त) * एवं उत्पत्ति-विनाश और परिवर्तनसे सर्वथा रहित हैं।
* देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥
(मानस १। १८५।३)
अतः उनकी प्राप्ति स्वतः सिद्ध है, कर्म-साध्य नहीं। यही कारण है कि सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्ति चिन्तनसे नहीं होती, जबकि परमात्माकी प्राप्तिमें चिन्तन मुख्य है। चिन्तनसे वही वस्तु प्राप्त हो सकती है, जो समीप-से-समीप हो। वास्तवमें देखा जाय तो परमात्माकी प्राप्ति चिन्तनरूप क्रियासे भी नहीं होती। परमात्माका चिन्तन करनेकी सार्थकता दूसरे (संसारके) चिन्तनका त्याग करानेमें ही है। संसारका चिन्तन सर्वथा छूटते ही नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जाता है।
सर्वव्यापी परमात्माकी हमसे दूरी है ही नहीं और हो सकती भी नहीं। जिससे हम अपनी दूरी नहीं मानते, उस 'मैं'-पनसे भी परमात्मा अत्यन्त समीप हैं। 'मैं'- पन तो परिच्छिन्न (एकदेशीय) है, पर परमात्मा परिच्छिन्न नहीं हैं। ऐसे अत्यन्त समीपस्थ, नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव करनेके लिये सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिके समान तर्क तथा युक्तियाँ लगाना अपने-आपको धोखा देना ही है।"
"सांसारिक वस्तुकी प्राप्ति इच्छामात्रसे नहीं होती; परन्तु परमात्माकी प्राप्ति उत्कट अभिलाषामात्रसे हो जाती है। इस उत्कट अभिलाषाके जाग्रत् होनेमें सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छा ही बाधक है, दूसरा कोई बाधक है ही नहीं। यदि परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत् हो जाय, तो अभी ही परमात्माका अनुभव हो जाय।
मनुष्यजीवनका उद्देश्य कर्म करना और उसका फल भोगना नहीं है। सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छाके त्यागपूर्वक परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा तभी जाग्रत् हो सकती है, जब साधकके जीवनभरका एक ही उद्देश्य - परमात्मप्राप्ति करना हो जाय। परमात्माको प्राप्त करनेके अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्यका कोई महत्त्व न रहे। वास्तवमें परमात्मप्राप्तिके अतिरिक्त मनुष्यजीवनका अन्य कोई प्रयोजन है ही नहीं। जरूरत केवल इस प्रयोजन या उद्देश्यको पहचान कर इसे पूरा करनेकी ही है।
यहाँ उद्देश्य और फलेच्छा- दोनोंमें भेद समझ लेना आवश्यक है। नित्य परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेका 'उद्देश्य' होता है, और अनित्य (उत्पत्ति-विनाशशील) पदार्थोंको प्राप्त करनेकी 'फलेच्छा' होती है। उद्देश्य तो पूरा होता है, पर फलेच्छा मिटनेवाली होती है। स्वरूपबोध और भगवत्प्राप्ति- ये दोनों उद्देश्य हैं, फल नहीं। उद्देश्यकी प्राप्तिके लिये किया गया कर्म सकाम नहीं कहलाता। इसलिये निष्काम पुरुष (कर्मयोगी) के सभी कर्म उद्देश्यको लेकर होते हैं, फलेच्छाको लेकर नहीं।"
"कर्मयोगमें कर्मों (जडता) से सम्बन्ध विच्छेदका उद्देश्य रखकर शास्त्रविहित शुभ-कर्म किये जाते हैं। सकाम पुरुष फलकी इच्छा रखकर अपने लिये कर्म करता है और कर्मयोगी फलकी इच्छाका त्याग करके दूसरोंके लिये कर्म (सेवा) करता है। कर्म ही फलरूपसे परिणत होता है। अतः फलका सम्बन्ध कर्मसे होता है। उद्देश्यका सम्बन्ध कर्मसे नहीं होता। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे 'परमात्मा दूर हैं' यह धारणा दूर हो जाती है।
'लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ' - 'लोक' शब्दके तीन अर्थ होते हैं- (१) मनुष्यलोक आदि लोक, (२) उन लोकोंमें रहनेवाले प्राणी और (३) शास्त्र (वेदोंके अतिरिक्त सब शास्त्र)। मनुष्यलोककी, उसमें रहनेवाले प्राणियोंकी और शास्त्रोंकी मर्यादाके अनुसार समस्त आचरणों (जीवनचर्यामात्र) का होना 'लोकसंग्रह' है।
लोकसंग्रहका तात्पर्य है- लोकमर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, लोगोंको असत् से विमुख करके सत् के सम्मुख करनेके लिये निःस्वार्थभावपूर्वक कर्म करना। इसको गीतामें 'यज्ञार्थ कर्म' के नामसे भी कहा गया है। अपने आचरणों एवं वचनोंसे लोगोंको असत् से विमुख करके सत् के सम्मुख कर देना बहुत बड़ी सेवा है; क्योंकि सत् के सम्मुख होनेसे लोगोंका सुधार एवं उद्धार हो जाता है।
लोगोंको दिखानेके लिये अपने कर्तव्यका पालन करना लोक- संग्रह नहीं है। कोई देखे या न देखे, लोक-मर्यादाके अनुसार अपने- अपने (वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके अनुसार) कर्तव्यका पालन करनेसे लोकसंग्रह स्वतः होता है।"
"कोई भी कर्तव्य-कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभावसे) करनेपर समान ही है। देश, काल, परिस्थिति, अवसर, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके अनुसार जो कर्तव्यकर्म सामने आ जाय, वही कर्म बड़ा होता है। कर्मके स्वरूप और फलकी दृष्टिसे ही कर्म छोटा या बड़ा, घोर या सौम्य प्रतीत होता है।*
* उदाहरणार्थ-कर्मके स्वरूपकी दृष्टिसे झाड़ लगाना छोटा कर्म और व्याख्यान देना बड़ा कर्म प्रतीत होता है, एवं कर्म फलकी दृष्टिसे कम दान करनेका कम पुण्य और अधिक दान करनेका अधिक पुण्य प्रतीत होता है।
फलेच्छाका त्याग करनेपर सभी कर्म उद्देश्यकी सिद्धि करनेवाले हो जाते हैं। अतः जडतासे सम्बन्ध विच्छेद करनेमें छोटे-बड़े सभी कर्म समान हैं।
किसी भी मनुष्यका जीवन दूसरोंकी सहायताके बिना नहीं चल सकता। शरीर माता-पितासे मिलता है और विद्या, योग्यता, शिक्षा आदि गुरुजनोंसे मिलती है। जो अन्न ग्रहण करते हैं, वह दूसरोंके द्वारा उत्पन्न किया गया होता है; जो वस्त्र पहनते हैं, वे दूसरोंके द्वारा बनाये गये होते हैं; जिस मकानमें रहते हैं, उसका निर्माण दूसरोंके द्वारा किया गया होता है; जिस सड़कपर चलते हैं, वह दूसरोंके द्वारा बनायी गयी होती है, आदि-आदि। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्यका जीवन-निर्वाह दूसरोंके आश्रित है। अतः हरेक मनुष्यपर दूसरोंका ऋण है, जिसे उतारनेके लिये यथाशक्ति दूसरोंकी निःस्वार्थभावसे सेवा (हित) करना आवश्यक है। अपने कहलानेवाले शरीरादि सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थोंको किंचिन्मात्र भी अपना और अपने लिये न माननेसे मनुष्य ऋणसे मुक्त हो जाता है।"
"परिशिष्ट भाव - यहाँ आये 'कर्मणैव ही संसिद्धिमास्थिताः' पदोंसे सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है। जनकादि राजाओंने भी कर्मयोगके द्वारा ही परमसिद्धि प्राप्त की; क्योंकि उन्होंने केवल दूसरोंकी सेवाके लिये, उनको सुख पहुँचानेके लिये ही राज्य किया, अपने लिये राज्य नहीं किया।
'लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि' पदोंका तात्पर्य है कि तेरेको लोगोंमें कर्मयोगका यह आदर्श स्थापित करना चाहिये कि कर्मयोगका पालन करनेसे परमसिद्धिकी प्राप्ति हो जाती है।
सम्बन्ध-कर्म करनेसे लोकसंग्रह कैसे होता है- इसका विवेचन भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं।"
कल के एपिसोड में हम श्लोक 21 पर चर्चा करेंगे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण आदर्श नेतृत्व के बारे में महत्वपूर्ण शिक्षा देंगे।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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