ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 25 से 26 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue

 


"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

नमस्ते दोस्तों! स्वागत है आपका हमारी भगवद्गीता चर्चा श्रृंखला में। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 3 के श्लोक 25 और 26 की। श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि कैसे हमें अपने कर्म करते हुए दूसरों का मार्गदर्शन करना चाहिए। अगर आप हमारे चैनल पर नए हैं, तो इसे सब्सक्राइब करना न भूलें ताकि आप हर श्लोक की गहन चर्चा से जुड़े रहें।

कल हमने श्लोक 23 और 24 की चर्चा की, जिसमें हमने सीखा कि कर्म से भागना सृष्टि के लिए हानिकारक हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह बताया कि सभी को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, चाहे वे कितने ही बड़े क्यों न हों।

आज के श्लोक 25 और 26 में भगवान श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि ज्ञानी और अज्ञानी व्यक्ति दोनों अपने-अपने स्तर पर कर्म करते हैं। ज्ञानी व्यक्ति अपने कर्मों द्वारा अज्ञानी लोगों को सही रास्ता दिखाता है। इन श्लोकों का उद्देश्य यह है कि हमें अपने कर्मों से दूसरों को प्रेरित करना चाहिए और उन्हें मार्गदर्शन देना चाहिए।

"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 25 से 26"

"ज्ञानीके लिये भी लोक-संग्रहार्थ स्वयं कर्म करने और दूसरोंसे करवानेका विधान।


(श्लोक-२५)


सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्-चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ।।


उच्चारण की विधि


सक्ताः, कर्मणि, अविद्वांसः, यथा, कुर्वन्ति, भारत, कुर्यात्, विद्वान्, तथा, असक्तः, चिकीर्षुः, लोकसङ्ग्रहम् ॥ २५ ॥


भारत अर्थात् हे भारत!, कर्मणि अर्थात् कर्ममें, सक्ताः अर्थात् आसक्त हुए, अविद्वांसः अर्थात् अज्ञानीजन, यथा अर्थात् जिस प्रकार (कर्म), कुर्वन्ति अर्थात् करते हैं, असक्तः अर्थात् आसक्तिरहित, विद्वान् अर्थात् विद्वान् (भी), लोकसङ्ग्रहम् अर्थात् लोक-संग्रह, चिकीर्षुः अर्थात् करना चाहता हुआ, तथा अर्थात् उसी प्रकार (कर्म), कुर्यात् अर्थात् करे।


अर्थ - हे भारत ! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान् भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे ॥ २५ ॥"

"व्याख्या'सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत' - जिन मनुष्योंकी शास्त्र, शास्त्र पद्धति और शास्त्रविहित शुभकर्मोपर पूरी श्रद्धा है एवं शास्त्रविहित कर्मोंका फल अवश्य मिलता है-इस बातपर पूरा विश्वास है; जो न तो तत्त्वज्ञ हैं और न दुराचारी हैं; किन्तु कर्मों, भोगों एवं पदार्थोंमें आसक्त हैं, ऐसे मनुष्योंके लिये यहाँ 'सक्ताः', 'अविद्वांसः' पद आये हैं। शास्त्रोंके ज्ञाता होनेपर भी केवल कामनाके कारण ऐसे मनुष्य अविद्वान् (अज्ञानी) कहे गये हैं। ऐसे पुरुष शास्त्रज्ञ तो हैं, पर तत्त्वज्ञ नहीं। ये केवल अपने लिये कर्म करते हैं, इसीलिये अज्ञानी कहलाते हैं।


ऐसे अविद्वान् मनुष्य कर्मोंमें कभी प्रमाद, आलस्य आदि न रखकर सावधानी और तत्परतापूर्वक सांगोपांग विधिसे कर्म करते हैं; क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता रहती है कि कर्मोंको करनेमें कोई कमी आ जानेसे उनके फलमें भी कमी आ जायगी। भगवान् उनके इस प्रकार कर्म करनेकी रीतिको आदर्श मानकर सर्वथा आसक्तिरहित विद्वान् के लिये भी इसी विधिसे लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं।


'कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम्' - जिसमें कामना, ममता, आसक्ति, वासना, पक्षपात, स्वार्थ आदिका सर्वथा अभाव हो गया है और शरीरादि पदार्थोंके साथ किंचिन्मात्र भी लगाव नहीं रहा, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुषके लिये यहाँ 'असक्तः, विद्वान्' पद आये हैं*।"

"* यद्यपि परमात्मतत्त्वको प्राप्त होनेपर सांख्ययोगी और कर्मयोगी-दोनों एक हो जाते हैं (गीता ५।४-५), तथापि साधनावस्थामें दोनोंकी साधनप्रणालीमें अन्तर रहनेसे सिद्धावस्थामें भी उनके लक्षणोंमें, स्वभावमें थोड़ा अन्तर रहता है। सांख्ययोगीकी तो कर्मोंसे विशेष उपरति रहती है, पर कर्मयोगीकी कर्मोंमें विशेष तत्परता रहती है; क्योंकि पहले कर्म करनेका स्वभाव पड़ा हुआ रहता है। यह अन्तर भी कहीं-कहीं होता है।


बीसवें श्लोकमें 'लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्' कहकर फिर इक्कीसवें श्लोकमें जिसकी व्याख्या की गयी, उसीको यहाँ 'लोकसङ्ग्रहं चिकीर्षुः' पदोंसे कहा गया है। 


श्रेष्ठ मनुष्य (आसक्तिरहित विद्वान्) के सभी आचरण स्वाभाविक ही यज्ञके लिये, मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये होते हैं। जैसे भोगी मनुष्यकी भोगोंमें, मोही मनुष्यकी कुटुम्बमें और लोभी मनुष्यकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्ठ मनुष्यकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है। उसके अन्तःकरणमें 'मैं लोकहित करता हूँ'- ऐसा भाव भी नहीं होता, प्रत्युत उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक लोकहित होता है। प्राकृत पदार्थमात्रसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जानेके कारण उस ज्ञानी महापुरुषके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी 'लोकसंग्रह' पदमें आये 'लोक' शब्दके अन्तर्गत आते हैं"

"दूसरे लोगोंको ऐसे ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रहकी इच्छावाले दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें लोकसंग्रहकी भी इच्छा नहीं होती। कारण कि वे संसारसे प्राप्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, पद, अधिकार, धन, योग्यता, सामर्थ्य आदिको साधनावस्थासे ही कभी किंचिन्मात्र भी अपने और अपने लिये नहीं मानते, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही मनते हैं, जो कि वास्तवमें है। वही प्रवाह रहनेके कारण सिद्धावस्थामें भी उनके कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ स्वतः-स्वाभाविक, किसी प्रकारकी इच्छाके बिना संसारकी सेवामें लगे रहते हैं।


इस श्लोकमें 'यथा' और 'तथा' पद कर्म करनेके प्रकारके अर्थमें आये हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अज्ञानी (सकाम) पुरुष अपने स्वार्थके लिये सावधानी और तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी लोकसंग्रह अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करे। ज्ञानी पुरुषको प्राणिमात्रके हितका भाव रखकर सम्पूर्ण लौकिक और वैदिक कर्तव्य-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये। सबका कल्याण कैसे हो? - इस भावसे कर्तव्य कर्म करनेपर लोकमें अच्छे भावोंका प्रचार स्वतः होता है। 


अज्ञानी पुरुष तो फलकी प्राप्तिके लिये सावधानी और तत्परतासे विधिपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, पर ज्ञानी पुरुषकी फलमें आसक्ति नहीं होती और उसके लिये कोई कर्तव्य भी नहीं होता। अतः उसके द्वारा कर्मकी उपेक्षा होना सम्भव है। इसीलिये भगवान् कर्म करनेके विषयमें ज्ञानी पुरुषको भी अज्ञानी (सकाम) पुरुषकी ही तरह कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।"

"इक्कीसवें श्लोकमें तो विद्वान् को 'आदर्श' बताया गया था, पर यहाँ उसे 'अनुयायी' बताया है। तात्पर्य यह है कि विद्वान् चाहे आदर्श हो अथवा अनुयायी, उसके द्वारा स्वतः लोकसंग्रह होता है। जैसे भगवान् श्रीराम प्रजाको उपदेश भी देते हैं और पिताजीकी आज्ञाका पालन करके वनवास भी जाते हैं। दोनों ही परिस्थितियोंमें उनके द्वारा लोकसंग्रह होता है; क्योंकि उनका कर्मोंके करने अथवा न करनेसे अपना कोई प्रयोजन नहीं था।


जब विद्वान् आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म करता है, तब आसक्तियुक्त चित्तवाले पुरुषोंके अन्तःकरणपर भी विद्वान् के कर्मोंका स्वतः प्रभाव पड़ता है, चाहे उन पुरुषोंको 'यह महापुरुष निष्कामभावसे कर्म कर रहा है'- ऐसा प्रत्यक्ष दीखे या न दीखे। मनुष्यके निष्कामभावका दूसरोंपर स्वाभाविक प्रभाव पड़ता है- यह सिद्धान्त है। इसलिये आसक्तिरहित विद्वान् के भावों, आचरणोंका प्रभाव मनुष्योंपर ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी आदिपर भी पड़ता है।


विशेष बात


मनुष्य जबतक निष्कामभावपूर्वक विहित-कर्म नहीं करता, तबतक उसका जन्म-मरण नहीं मिट सकता। वह जबतक अपने लिये कर्म करता है, तबतक वह कृतकृत्य नहीं होता अर्थात् उसका 'करना' समाप्त नहीं होता। कारण कि 'स्वयं' नित्य रहनेवाला है और कर्म एवं उसका फल नष्ट होनेवाला है। अतः प्रत्येक मनुष्यके लिये स्वार्थ-त्यागपूर्वक (अपने लिये न करके केवल दूसरोंके हितके लिये) कर्तव्य-कर्म करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है।"

"सांसारिक पदार्थोंको मूल्यवान् समझनेके कारण ही कर्मयोग- (निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य कर्म) के पालनमें कठिनाई प्रतीत होती है। हमें दूसरोंसे कुछ न चाहकर केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करने हैं- इस बातको यदि स्वीकार कर लें तो आज ही कर्मयोगका पालन सुगम हो जाय।


वास्तवमें महत्ता पदार्थकी नहीं, प्रत्युत आचरण (उसके उपयोग) की ही होती है। आचरणकी महत्ता भी तब है, जब अन्तःकरणमें पदार्थकी महत्ता न हो। कोई भी पदार्थ व्यक्तिगत नहीं है; केवल उपयोगके लिये ही व्यक्तिगत है। पदार्थको व्यक्तिगत माननेसे ही परहितके लिये उसका त्याग कठिन प्रतीत होता है। कोई भी पदार्थ या क्रिया बन्धन-कारक नहीं, उनका सम्बन्ध ही बन्धनकारक है।


विद्वान् पुरुषोंसे भी लोकसंग्रहके लिये सब कर्म होते हैं। परन्तु ऐसा होते हुए भी उनमें 'मैं लोकसंग्रह कर रहा हूँ'- यह अभिमान नहीं रहता। कारण यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, विद्या, योग्यता, पद आदि सब संसारके हैं और संसारसे मिले हैं। संसारसे मिली सामग्रीको संसारकी ही सेवामें लगा देना ईमानदारी है। उस सामग्रीको बहुत सच्चाईसे, ईमानदारीसे संसारके अर्पण कर देना है। यह अर्पण करना कोई बड़ा काम नहीं है। जैसे किसीने हमारे पास धरोहररूपसे रुपये रखे और कुछ समय बाद उसके माँगनेपर हमने उसके रुपये उसे वापस कर दिये, तो कौन-सा बड़ा काम किया ? हाँ, हमारा दायित्व समाप्त हो गया, हम ऋणमुक्त हो गये। इसी प्रकार संसारकी वस्तु संसारके अर्पण कर देनेसे हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है, हम ऋणमुक्त हो जाते हैं- जन्म-मरणके बन्धनसे सदाके लिये छूट जाते हैं। इसलिये सांसारिक पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर कोई दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन पदार्थोंसे अपना पिण्ड छुड़ाना है।"

"(श्लोक-२६)


न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥


उच्चारण की विधि


न, बुद्धिभेदम्, जनयेत्, अज्ञानाम्, कर्मसङ्गिनाम्, जोषयेत्, सर्वकर्माणि , विद्वान्, युक्तः, समाचरन् ॥ २६ ॥


युक्तः अर्थात् परमात्माके स्वरूपमें अटल स्थित हुए, विद्वान् अर्थात् ज्ञानी पुरुषको (चाहिये कि वह), कर्मसङ्गिनाम् अर्थात् शास्त्रविहितकर्मों में आसक्तिवाले, अज्ञानाम् अर्थात् अज्ञानियोंकी, बुद्धिभेदम् अर्थात् बुद्धिमें भ्रम अर्थात् कर्मोंमें अश्रद्धा, न जनयेत् अर्थात् उत्पन्न न करे (किंतु स्वयम्), सर्वकर्माणि अर्थात् शास्त्रविहित, समस्त कर्म, समाचरन् अर्थात् भलीभाँति करता हुआ , जोषयेत् अर्थात् (उनसे भी वैसे ही)करवावे ।


अर्थ - परमात्माके स्वरूपमें अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि वह शास्त्रविहित कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भ्रम अर्थात् कर्मोंमें अश्रद्धा उत्पन्न न करे। किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे ॥ २६ ॥"

"श्रेष्ठ पुरुषपर विशेष जिम्मेवारी होती है; क्योंकि दूसरे लोग स्वाभाविक ही उसका अनुसरण करते हैं। इसलिये भगवान् उपर्युक्त पदोंसे विद्वान् को आज्ञा देते हैं कि उसे ऐसा कोई आचरण नहीं करना चाहिये और ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिये, जिसे अज्ञानी (कामनायुक्त) पुरुषोंका वर्तमान स्थितिसे पतन हो जाय। अज्ञानी पुरुष अभी जिस स्थितिमें हैं, उस स्थितिसे उन्हें विचलित करना (नीचे गिराना) ही उनमें 'बुद्धिभेद' उत्पन्न करना है। अतः विद्वान् को सबके हितका भाव रखते हुए अपने वर्णाश्रम धर्मके अनुसार शास्त्रविहित शुभ-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये, जिससे दूसरे पुरुषोंको भी निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा मिलती रहे। समाज एवं परिवारके मुख्य व्यक्तियोंपर भी यही बात लागू होती है। उनको भी सावधानीपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्मीका अच्छी तरह आचरण करते रहना चाहिये, जिससे समाज और परिवारपर अच्छा प्रभाव पड़े।


बुद्धिभेद पैदा करनेके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-


१-'कर्मोंमें क्या रखा है? कर्मोंसे तो जीव बँधता है; कर्म निकृष्ट हैं; कर्म छोड़कर ज्ञानमें लगना चाहिये' आदि उपदेश देना अथवा इस प्रकारके अपने आचरणों और वचनोंसे दूसरोंमें कर्तव्य-कर्मोंके प्रति अश्रद्धा-अविश्वास उत्पन्न करना।


२-'जहाँ देखो, वहीं स्वार्थ है; स्वार्थके बिना कोई रह नहीं सकता; सभी स्वार्थके लिये कर्म करते हैं; मनुष्य कोई कर्म करे तो फलकी इच्छा रहती ही है; फलकी इच्छा न रहे तो वह कर्म करेगा ही क्यों' आदि उपदेश देना।"

३-'फलकी इच्छा रखकर (अपने लिये) कर्म करनेसे (फल भोगनेके लिये) बार-बार जन्म लेना पड़ता है' आदि उपदेश देना। इस प्रकारके उपदेशोंसे कामनावाले पुरुषोंका कर्मफलपर विश्वास नहीं रहता। फलस्वरूप उनकी (फलमें) आसक्ति तो छूटती नहीं; शुभ-कर्म जरूर छूट जाते हैं। बन्धनका कारण आसक्ति ही है, कर्म नहीं। इस प्रकार लोगोंमें बुद्धिभेद उत्पन्न न करके तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह अपने वर्णाश्रमधर्मके अनुसार स्वयं कर्तव्य-कर्म करे और दूसरोंसे भी वैसे ही करवाये। उसे चाहिये कि वह अपने आचरणों और वचनोंके द्वारा अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भ्रम पैदा न करते हुए उन्हें वर्तमान स्थितिसे क्रमशः ऊँचे उठाये। जिन शास्त्रविहित शुभ-कर्मोंको अज्ञानी पुरुष अभी कर रहे हैं, उनकी वह विशेषरूपसे प्रशंसा करे और उनके कर्मोंमें होनेवाली त्रुटियोंसे उन्हें अवगत कराये, जिससे वे उन त्रुटियोंको दूर करके सांगोपांग विधिसे कर्म कर सकें। इसके साथ ही ज्ञानी पुरुष उन्हें यह उपदेश दें कि यज्ञ, दान, पूजा, पाठ आदि शुभकर्म करना तो बहुत अच्छा है, पर उन कर्मोंमें फलकी इच्छा रखना उचित नहीं; क्योंकि हीरेको कंकड़- पत्थरोंके बदले बेचना बुद्धिमत्ता नहीं है। अतः सकामभावका त्याग करके शुभ-कर्म करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है। इस प्रकार सकामभावसे निष्कामभावकी ओर जाना बुद्धिभेद नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है।

"इसी तरह उपासनाके विषयमें भी तत्त्वज्ञ पुरुषको बुद्धिभेद पैदा नहीं करना चाहिये। जैसे, प्रायः लोग कह दिया करते हैं कि नाम- जप करते समय भगवान् में मन नहीं लगा तो नामजप करना व्यर्थ है। परन्तु तत्त्वज्ञ पुरुषको ऐसा न कहकर यह उपदेश देना चाहिये कि नामजप कभी व्यर्थ हो ही नहीं सकता; क्योंकि भगवान् के प्रति कुछ-न-कुछ भाव रहनेसे ही नामजप होता है। भावके बिना नामजपमें प्रवृत्ति ही नहीं होती। अतः नामजपका किसी भी अवस्थामें त्याग नहीं करना चाहिये। जो यह कहा गया है कि 'मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं' इसका भी यही अर्थ है कि मन न लगनेसे यह 'सुमिरन' (स्मरण) नहीं है, 'जप' तो है ही। हाँ, मन लगाकर ध्यानपूर्वक नाम-जप करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है।


कोई भी मनुष्य सर्वथा गुणरहित नहीं होता। उसमें कुछ-न-कुछ गुण रहते ही हैं। इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुषको चाहिये कि अगर किसी व्यक्तिको (उसकी उन्नतिके लिये) कोई शिक्षा देनी हो, कोई बात समझानी हो, तो उस व्यक्तिकी निन्दा या अपमान न करके उसके गुणोंकी प्रशंसा करे। गुणोंकी प्रशंसा करते हुए आदरपूर्वक उसे जो शिक्षा दी जायगी, उस शिक्षाका उसपर विशेष असर पड़ेगा। समाज और परिवारके मुख्य व्यक्तियोंको भी इसी रीतिसे दूसरोंको शिक्षा देनी चाहिये।"

"समाचरन्' और 'जोषयेत्' पदोंसे भगवान् विद्वान् को दो आज्ञाएँ देते हैं- (१) स्वयं सावधानीपूर्वक शास्त्र-विहित कर्तव्य- कर्मोंको अच्छी तरह करे और (२) कर्मोंमें आसक्त अज्ञानी पुरुषोंसे भी वैसे ही कर्म करवाये। लोगोंको दिखानेके लिये कर्म करना 'दम्भ' है, जो पतन करनेवाली आसुरी-सम्पत्तिका लक्षण है (गीता - सोलहवें अध्यायका चौथा श्लोक)। अतः भगवान् लोगोंको दिखानेके लिये नहीं, प्रत्युत लोकसंग्रहके लिये ही कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।


तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि कर्म करनेसे अपना कोई प्रयोजन न


रहनेपर भी वह समस्त कर्तव्य कर्मोंको सुचारुरूपसे करता रहे, जिससे कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंकी निष्काम कर्मोंके प्रति महत्त्वबुद्धि जाग्रत् हो और वे भी निष्कामभावसे कर्म करने लगें। तात्पर्य यह है कि उस महापुरुषके आसक्तिरहित आचरणोंको देखकर अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करनेकी चेष्टा करने लगेंगे।


इस प्रकार ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंको आदरपूर्वक समझाकर उनसे निषिद्धकर्मोंका स्वरूपसे (सर्वथा) त्याग करवाये, और विहित कर्मोंमेंसे सकामभावका त्याग करनेकी प्रेरणा करे।


""परिशिष्ट भाव


तत्त्वज्ञ महापुरुष और भगवान्- दोनोंमें ही कर्तृत्वाभिमान नहीं होता। अतः वे केवल लोकसंग्रहके लिये ही कर्तव्य-कर्म किया करते हैं, अपने लिये नहीं। साधकको भी अपने लिये कुछ नहीं करना चाहिये; क्योंकि स्वरूपमें कर्तृत्व नहीं है। लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगाना लोकसंग्रह है। लोकसंग्रहका उपाय है- शास्त्रके अनुसार ठीक आचरण करना, पर भीतरमें साधक यह भाव

रखे कि मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है। वह लोगोंमें यह न कहे कि मैं अपने लिये कुछ नहीं करता हूँ।


सम्बन्ध-ज्ञानी और अज्ञानीमें क्या अन्तर है- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।"""

कल हम चर्चा करेंगे श्लोक 27 की, जहाँ श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि कैसे प्रकृति के गुणों के द्वारा सभी कर्म संपन्न होते हैं और हम केवल उसके साधन हैं। इस श्लोक के माध्यम से हम यह समझेंगे कि कर्म कैसे होते हैं और हमें इन पर कैसे दृष्टिकोण रखना चाहिए।


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