ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 32 - ज्ञान का अनादर और उसका परिणाम
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आपने कभी सोचा है कि श्रीकृष्ण के उपदेशों का अनादर करने का जीवन पर क्या असर होता है? आज हम गीता के श्लोक 32 में जानेंगे कि जो लोग इस दिव्य ज्ञान को नहीं मानते और ईर्ष्या से ग्रसित होते हैं, उनके जीवन में किस प्रकार की कठिनाइयाँ आती हैं।
कल हमने श्लोक 31 पर चर्चा की थी, जिसमें श्रीकृष्ण ने बताया कि जो व्यक्ति उनके ज्ञान का पालन करते हैं, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं और शांति प्राप्त करते हैं। आज हम देखेंगे कि जो लोग इस ज्ञान को अनसुना करते हैं, उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
"श्लोक 32 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥
इसका अर्थ है कि 'जो लोग मेरे इस मत का अनादर करते हैं और इसका पालन नहीं करते, वे सभी ज्ञान से भ्रमित होकर विनाश की ओर जाते हैं।'
श्रीकृष्ण यहां हमें चेतावनी देते हैं कि जो लोग उनके द्वारा दिए गए उपदेशों को नहीं मानते और ईर्ष्या के कारण इसे अस्वीकार करते हैं, वे अपने जीवन में शांति और सफलता से वंचित रह जाते हैं। यह श्लोक हमें बताता है कि ज्ञान का अनादर हमें अज्ञानता और विनाश की ओर ले जाता है।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 32"
"भगवत्-सिद्धान्तके अनुसार न बरतनेसे पतन ।
(श्लोक-३२)
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान् विद्धि नष्टानचेतसः ।॥
उच्चारण की विधि
ये, तु, एतत्, अभ्यसूयन्तः, न, अनुतिष्ठन्ति, मे, मतम्, सर्वज्ञानविमूढान्, तान्, विद्धि, नष्टान्, अचेतसः ॥ ३२ ॥
तु अर्थात् परंतु, ये अर्थात् जो मनुष्य (मुझमें), अभ्यसूयन्तः अर्थात् दोषारोपण करते हुए, मे अर्थात् मेरे, एतत् अर्थात् इस, मतम् अर्थात् मतके, न अनुतिष्ठन्ति अर्थात् अनुसार नहीं चलते हैं, तान् अर्थात् उन, अचेतसः अर्थात् मूर्खाको (तू), सर्वज्ञानविमूढान् अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित (और), नष्टान् अर्थात् नष्ट हुए (ही), विद्धि अर्थात् समझ।
अर्थ - परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मतके अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खाको तू सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और नष्ट हुए ही समझ ॥ ३२ ॥"
"व्याख्या 'ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्' - तीसवें श्लोकमें वर्णित सिद्धान्तके अनुसार चलनेवालोंके लाभका वर्णन इकतीसवें श्लोकमें करनेके बाद इस सिद्धान्तके अनुसार न चलनेवालोंकी पृथक्ता करनेहेतु यहाँ 'तु' पदका प्रयोग हुआ है।
जैसे संसारमें सभी स्वार्थी मनुष्य चाहते हैं कि हमें ही सब पदार्थ मिलें, हमें ही लाभ हो, ऐसे ही भगवान् भी चाहते हैं कि समस्त कर्मोंको मेरे ही अर्पण किया जाय, मेरेको ही स्वामी माना जाय- इस प्रकार मानना 'भगवान्' पर दोषारोपण करना है।
कामनाके बिना संसारका कार्य कैसे चलेगा? ममताका सर्वथा त्याग तो हो ही नहीं सकता; राग-द्वेषादि विकारोंसे रहित होना असम्भव है- इस प्रकार मानना भगवान् के 'मत' पर दोषारोपण करना है।
भोग और संग्रहकी इच्छावाले जो मनुष्य शरीरादि पदार्थोंको अपने और अपने लिये मानते हैं और समस्त कर्म अपने लिये ही करते हैं, वे भगवान् के मतके अनुसार नहीं चलते।
'सर्वज्ञानविमूढान् तान्' - जो मनुष्य भगवान् के मतका अनुसरण नहीं करते, वे सब प्रकारके सांसारिक ज्ञानों (विद्याओं, कलाओं आदि) में मोहित रहते हैं। वे मोटर, हवाई जहाज, रेडियो, टेलीविजन आदि आविष्कारोंमें, उनके कला- कौशलको जाननेमें तथा नये-नये आविष्कार करनेंमें ही रचे-पचे रहते हैं। जलपर तैरने, मकान आदि बनाने, चित्रकारी करने आदि शिल्प-कलाओंमें; मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र आदिकी जानकारी प्राप्त करनेमें तथा उनके द्वारा विलक्षण-विलक्षण चमत्कार दिखानेमें, देश- विदेशकी भाषाओं, लिपियों, रीति-रिवाजों, खान-पान आदिकी जानकारी प्राप्त करनेमें ही वे लगे रहते हैं।"
"जो कुछ है, वह यही है - ऐसा उनका निश्चय होता है (गीता-सोलहवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक)। ऐसे लोगोंको यहाँ सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित कहा गया है।
'अचेतसः'- भगवान् के मतका अनुसरण न करने वाले मनुष्योंमें सत्-असत्, सार-असार, धर्म-अधर्म, बन्धन-मोक्ष आदि पारमार्थिक बातोंका भी ज्ञान (विवेक) नहीं होता। उनमें चेतनता नहीं होती, वे पशुकी तरह बेहोश रहते हैं। वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त मूढ़ पुरुष होते हैं- 'मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः' (गीता ९। १२) ।
'विद्धि नष्टान् ' - मनुष्य-शरीरको पाकर भी जो भगवान् के मतके अनुसार नहीं चलते, उन मनुष्योंको नष्ट हुए ही समझना चाहिये। तात्पर्य है कि वे मनुष्य जन्म-मरणके चक्रमें ही पड़े रहेंगे।
मनुष्यजीवनमें अन्तकालतक मुक्तिकी सम्भावना रहती है (गीता - आठवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)। अतः जो मनुष्य वर्तमानमें भगवान् के मतका अनुसरण नहीं करते, वे भी भविष्यमें सत्संग आदिके प्रभावसे भगवान् के मतका अनुसरण कर सकते हैं, जिससे उनकी मुक्ति हो सकती है।
परन्तु यदि उन मनुष्योंका भाव जैसा वर्तमानमें है, वैसा ही भविष्यमें भी बना रहा तो उन्हें (भगवत्प्राप्तिसे वंचित रह जानेके कारण) नष्ट हुए ही समझना चाहिये। इसी कारण भगवान् ने ऐसे मनुष्योंके लिये 'नष्टान् विद्धि' पदोंका प्रयोग किया है।"
"भगवान् के मतका अनुसरण न करनेवाला मनुष्य समस्त कर्म राग अथवा द्वेषपूर्वक करता है। राग और द्वेष-दोनों ही मनुष्यके महान् शत्रु हैं- 'तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ' (गीता ३। ३४)। नाशवान् होनेके कारण पदार्थ और कर्म तो सदा साथ नहीं रहते, पर राग- द्वेषपूर्वक कर्म करनेसे मनुष्य तादात्म्य, ममता और कामनासे आबद्ध होकर बार-बार नीच योनियों और नरकोंको प्राप्त होता रहता है। इसीलिये भगवान् ने ऐसे मनुष्योंको नष्ट हुए ही समझनेकी बात कही है।
इकतीसवें और बत्तीसवें- दोनों श्लोकोंमें भगवान् ने कहा है कि मेरे सिद्धान्तके अनुसार चलनेवाले मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं और न चलनेवाले मनुष्योंका पतन हो जाता है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि मनुष्य भगवान् को माने या न माने, इसमें भगवान् का कोई आग्रह नहीं है; परन्तु उसे भगवान् के मत (सिद्धान्त) का पालन अवश्य करना चाहिये-इसमें भगवान् की आज्ञा है। अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो उसका पतन अवश्य हो जायगा। हाँ, यदि साधक भगवान् को मानकर उनके मतका अनुष्ठान करे तो भगवान् उसे अपने-आपको दे देंगे। परन्तु यदि भगवान् को न मानकर केवल उनके मतका अनुष्ठान करे तो भगवान् उसका उद्धार कर देंगे। तात्पर्य यह है कि भगवान् को माननेवालेको 'प्रेम' की प्राप्ति और भगवान् का मत माननेवालेको 'मुक्ति' की प्राप्ति होती है।
सम्बन्ध-भगवान् के मतके अनुसार कर्म न करनेसे मनुष्यका पतन हो जाता है-ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।"
कल के श्लोक 33 में हम जानेंगे कि प्रकृति के गुण कैसे व्यक्ति को उसके स्वभाव के अनुसार कर्म करने पर मजबूर करते हैं और क्यों हर इंसान को अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करना चाहिए। यह श्लोक हमें कर्म और स्वभाव के गहरे संबंध की समझ देता है।
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कल मिलते हैं नये श्लोक की व्याख्या के साथ। तब तक ""Keep Learning, Keep Growing!"
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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