ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 33 - स्वभाव और कर्म का गहरा संबंध


 


"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

क्या आपने कभी सोचा है कि इंसान अपने स्वभाव के अनुसार ही क्यों कर्म करता है? आज के श्लोक में श्रीकृष्ण हमें समझाते हैं कि प्रकृति के गुणों का प्रभाव हर व्यक्ति पर कैसे होता है और क्यों हमें अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करना चाहिए।

कल हमने श्लोक 32 पर चर्चा की थी, जिसमें श्रीकृष्ण ने बताया कि जो लोग उनके उपदेशों का अनादर करते हैं, वे अज्ञानता में फंसकर विनाश की ओर बढ़ते हैं। आज हम इस बात को और गहराई से समझेंगे कि कैसे व्यक्ति का स्वभाव उसके कर्मों को निर्धारित करता है।

"श्लोक 33 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥

इसका अर्थ है कि 'ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं, तो दबाव या रोक-टोक से क्या लाभ?'

इस श्लोक में भगवान हमें यह बताते हैं कि हर व्यक्ति का स्वभाव उसके कर्मों को प्रभावित करता है, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी। हमारे कर्म प्राकृतिक गुणों का परिणाम होते हैं, और किसी व्यक्ति को उसकी प्रकृति के विपरीत चलाने की कोशिश करना व्यर्थ है। इस श्लोक का मुख्य संदेश है कि हमें अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना चाहिए और दूसरों पर अपनी इच्छाएं थोपने से बचना चाहिए।"


"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 33"

"स्वाभाविक कर्मोंकी चेष्टामें प्रकृतिकी प्रबलताका कथन ।


(श्लोक-३३)


सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ 


उच्चारण की विधि


सदृशम्, चेष्टते, स्वस्याः, प्रकृतेः, ज्ञानवान्, अपि, प्रकृतिम्, यान्ति, भूतानि, निग्रहः, किम्, करिष्यति ॥ ३३॥


भूतानि अर्थात् सभी प्राणी, प्रकृतिम् अर्थात् प्रकृतिको, यान्ति अर्थात् प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश हुए कर्म करते हैं, ज्ञानवान् अर्थात् ज्ञानवान्, अपि अर्थात् भी, स्वस्याः अर्थात् अपनी, प्रकृतेः अर्थात् प्रकृतिके, सदृशम् अर्थात् अनुसार, चेष्टते अर्थात् चेष्टा करता है (फिर इसमें किसीका), निग्रहः अर्थात् हठ, किम् अर्थात् क्या, करिष्यति अर्थात् करेगा।


अर्थ - सभी प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसीका हठ क्या करेगा ? ॥ ३३॥"

"व्याख्या'प्रकृतिं यान्ति भूतानि'- जितने भी कर्म किये जाते हैं, वे स्वभाव अथवा सिद्धान्तको सामने रखकर किये जाते हैं।


१-सिद्धान्त वह है, जो शास्त्र और भगवान् की आज्ञाके अनुसार हो। शास्त्र और भगवान् की आज्ञाके विपरीत सिद्धान्त मान्य नहीं है।


स्वभाव दो प्रकारका होता है- राग-द्वेषरहित और राग-द्वेषयुक्त। जैसे, रास्तेमें चलते हुए कोई बोर्ड दिखायी दिया और उसपर लिखा हुआ पढ़ लिया तो यह पढ़ना न तो राग-द्वेषसे हुआ और न किसी सिद्धान्तसे, अपितु राग-द्वेषरहित स्वभावसे स्वतः हुआ। किसी मित्रका पत्र आनेपर उसे रागपूर्वक पढ़ते हैं और शत्रुका पत्र आनेपर उसे द्वेषपूर्वक पढ़ते हैं, तो यह पढ़ना राग-द्वेषयुक्त स्वभावसे हुआ। गीता, रामायण आदि सत् शास्त्रोंको पढ़ना 'सिद्धान्त' से पढ़ना हुआ। मनुष्य-जन्म परमात्मप्राप्तिके लिये ही है; अतः परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे कर्म करना भी सिद्धान्तके अनुसार कर्म करना है।


इस प्रकार देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना आदि मात्र क्रियाएँ स्वभाव और सिद्धान्त- दोनोंसे होती हैं। राग-द्वेषरहित स्वभाव दोषी नहीं होता, प्रत्युत राग-द्वेषयुक्त स्वभाव दोषी होता है। राग-द्वेषपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ मनुष्यको बाँधती हैं; क्योंकि इनसे स्वभाव अशुद्ध होता है और सिद्धान्तसे होनेवाली क्रियाएँ उद्धार करनेवाली होती हैं; क्योंकि इनसे स्वभाव शुद्ध होता है। स्वभाव अशुद्ध होनेके कारण ही संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद नहीं होता। स्वभाव शुद्ध होनेसे संसारसे माने हुए सम्बन्धका सुगमतापूर्वक विच्छेद हो जाता है।"

"ज्ञानी महापुरुषके अपने कहलानेवाले शरीरद्वारा स्वतः क्रियाएँ हुआ करती हैं; क्योंकि उसमें कर्तृत्वाभिमान नहीं होता। परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले साधककी क्रियाएँ सिद्धान्तके अनुसार होती हैं। जैसे लोभी पुरुष सदा सावधान रहता है कि कहीं कोई घाटा न लग जाय, ऐसे ही साधक निरन्तर सावधान रहता है कि कहीं कोई क्रिया राग-द्वेषपूर्वक न हो जाय। ऐसी सावधानी होनेपर साधकका स्वभाव शीघ्र शुद्ध हो जाता है और परिणाम-स्वरूप वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।


यद्यपि क्रियामात्र स्वाभाविक ही प्रकृतिके द्वारा होती है, तथापि अज्ञानी पुरुष क्रियाओंके साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता मान लेता है (गीता- तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। पदार्थों और क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, जिनसे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है। परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध न माननेवाला साधक अपनेको सदा अकर्ता ही देखता है (गीता- तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ श्लोक) ।


स्वभावमें मुख्य दोष प्राकृत पदार्थोंका राग ही है। जबतक स्वभावमें राग रहता है, तभीतक अशुद्ध कर्म होते हैं। अतः साधकके लिये राग ही बन्धनका मुख्य कारण है।


राग माने हुए 'अहम्' में रहता है और मन, बुद्धि, इन्द्रियों एवं इन्द्रियोंके विषयोंमें दिखायी देता है।


'अहम्' दो प्रकारका है-


१-चेतनद्वारा जडके साथ माने हुए सम्बन्धसे होनेवाला तादात्म्यरूप 'अहम् '।


२-जड प्रकृतिका धातुरूप 'अहम्'- 'महाभूतान्यह‌ङ्कारः ' (गीता १३।५)।"

"जड प्रकृतिके धातुरूप 'अहम्' में कोई दोष नहीं है; क्योंकि यह 'अहम्' मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिकी तरह एक करण ही है। इसलिये सम्पूर्ण दोष माने हुए 'अहम्' में ही हैं। ज्ञानी महापुरुषमें तादात्म्यरूप 'अहम्' का सर्वथा अभाव होता है; अतः उसके कहलानेवाले शरीरके द्वारा होनेवाली समस्त क्रियाएँ प्रकृतिके धातुरूप 'अहम्' से ही होती हैं। वास्तवमें समस्त प्राणियोंकी सब क्रियाएँ इस धातुरूप 'अहम्' से ही होती हैं, परन्तु जड शरीरको 'मैं' और 'मेरा' माननेवाला अज्ञानी पुरुष उन क्रियाओंको अपनी तथा अपने लिये मान लेता है और बंध जाता है। कारण कि क्रियाओंको अपनी और अपने लिये माननेसे ही राग उत्पन्न होता है।


२-शरीरके बढ़ने, बदलने आदि क्रियाओंके समान शरीर-निर्वाहकी व्यावहारिक क्रियाएँ भी स्वाभाविकरूपसे होती हैं; परन्तु राग-द्वेष रहनेसे साधारण पुरुषोंकी तो इन (व्यावहारिक) क्रियाओंमें लिप्तता रहती है, पर राग-द्वेष न रहनेसे ज्ञानी महापुरुषकी लिप्तता नहीं होती।


'सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि' - यद्यपि अन्तःकरणमें राग-द्वेष न रहनेसे ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति निर्दोष होती है और वह प्रकृतिके वशीभूत नहीं होता, तथापि वह चेष्टा तो अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार ही करता है। जैसे, कोई ज्ञानी महापुरुष अंग्रेजी भाषा नहीं जानता और उससे अंग्रेजी बोलनेके लिये कहा जाय, तो वह बोल नहीं सकेगा। वह जिस भाषाको जानता है, उसी भाषामें बोलेगा।"

"भगवान् भी अपनी प्रकृति (स्वभाव) को वशमें करके जिस योनिमें अवतार लेते हैं, उसी योनिके स्वभावके अनुसार चेष्टा करते हैं; जैसे- भगवान् राम या कृष्णरूपसे मनुष्य-योनिमें अवतार लेते हैं तथा मत्स्य, कच्छप, वराह आदि योनियोंमें अवतार लेते हैं तो वहाँ उस-उस योनिके अनुसार ही चेष्टा करते हैं। तात्पर्य है कि भगवान् के अवतारी शरीरोंमें भी वर्ण, योनिके अनुसार स्वभावकी भिन्नता रहती है, पर परवशता नहीं रहती। इसी तरह जिन महापुरुषोंका प्रकृति (जडता) से सम्बन्ध विच्छेद हो गया है, उनमें स्वभावकी भिन्नता तो रहती है, पर परवशता नहीं रहती। परन्तु जिन मनुष्योंका प्रकृतिसे सम्बन्ध विच्छेद नहीं हुआ है, उनमें स्वभावकी भिन्नता और परवशता-दोनों रहती हैं।


यहाँ 'स्वस्याः' पदका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति निर्दोष होती है। वह प्रकृतिके वशमें नहीं होता, प्रत्युत प्रकृति उसके वशमें होती है। कर्मोंकी फल-जनकताका मूल बीज कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थ-बुद्धि है। ज्ञानी महापुरुषमें कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थ-बुद्धि नहीं होती। उसके द्वारा चेष्टामात्र होती है। बन्धनकारक कर्म होता है, चेष्टा या क्रिया नहीं। इसीलिये यहाँ 'चेष्टते' पद आया है। उसका स्वभाव इतना शुद्ध होता है कि उसके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ भी महान् शुद्ध एवं साधकोंके लिये आदर्श होती हैं।


पीछेके और वर्तमान जन्मके संस्कार, माता-पिताके संस्कार, वर्तमानका संग, शिक्षा, वातावरण, अध्ययन, उपासना, चिन्तन, क्रिया, भाव आदिके अनुसार स्वभाव बनता है। यह स्वभाव सभी मनुष्योंमें भिन्न-भिन्न होता है और इसे निर्दोष बनानेमें सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं।"

"व्यक्तिगत स्वभावकी भिन्नता ज्ञानी महापुरुषोंमें भी रहती है। चेतनमें भिन्नता होती ही नहीं और प्रकृति (स्वभाव) में स्वाभाविक भिन्नता रहती है। प्रकृति है ही विषम। जैसे एक जाति होनेपर भी आम आदिके वृक्षोंमें अवान्तर भेद रहता है, ऐसे ही प्रकृति (स्वभाव) शुद्ध होनेपर भी ज्ञानी महापुरुषोंमें प्रकृतिका भेद रहता है।


ज्ञानी महापुरुषका स्वभाव शुद्ध (राग-द्वेषरहित) होता है; अतः वह प्रकृतिके वशमें नहीं होता। इसके विपरीत अशुद्ध (राग- द्वेषयुक्त) स्वभाववाले मनुष्य अपनी बनायी हुई परवशतासे बाध्य होकर कर्म करते हैं।


'निग्रहः किं करिष्यति'- जिनका स्वभाव महान् शुद्ध एवं श्रेष्ठ है, उनकी क्रियाएँ भी अपनी प्रकृतिके अनुसार हुआ करती हैं, फिर जिनका स्वभाव अशुद्ध (राग-द्वेषयुक्त) है, उन पुरुषोंकी क्रियाएँ तो प्रकृतिके अनुसार होंगी ही। इस विषयमें हठ उनके काम नहीं आयेगा। जिसका जैसा स्वभाव है, उसे उसीके अनुसार कर्म करने पड़ेंगे। यदि स्वभाव अशुद्ध हो तो वह अशुद्ध कर्मोंमें और शुद्ध हो तो वह शुद्ध कर्मोंमें मनुष्यको लगा देगा।


अर्जुन भी जब हठपूर्वक युद्धरूप कर्तव्य कर्मका त्याग करना चाहते हैं, तब भगवान् उन्हें यही कहते हैं कि तेरा स्वभाव तुझे बलपूर्वक युद्धमें लगा देगा - 'प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति' (१८। ५९); क्योंकि तेरे स्वभावमें क्षात्रकर्म (युद्ध आदि) करनेका प्रवाह है। इसलिये स्वाभाविक कर्मोंसे बँधा हुआ तू परवश होकर युद्ध करेगा अर्थात् इसमें तेरा हठ काम नहीं आयेगा - 'करिष्यस्यवशोऽपि तत् ' (१८।६०) ।"

"जैसे सौ मील प्रति घंटेकी गतिसे चलनेवाली मोटर अपनी नियत क्षमतासे अधिक नहीं चलेगी, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषके द्वारा भी अपनी शुद्ध प्रकृतिके विपरीत चेष्टा नहीं होगी। जिनकी प्रकृति अशुद्ध है, उनकी प्रकृति बिगड़ी हुई मोटरके समान है। बिगड़ी हुई मोटरको सुधारनेके दो मुख्य उपाय हैं- (१) मोटरको खुद ठीक करना और (२) मोटरको कारखानेमें पहुँचा देना। इसी प्रकार अशुद्ध प्रकृतिको सुधारनेके भी दो मुख्य उपाय हैं- (१) राग-द्वेषसे रहित होकर कर्म करना (गीता-तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक) और (२) भगवान् के शरणमें चले जाना (गीता- अठारहवें अध्यायका बासठवाँ श्लोक)। यदि मोटर ठीक चलती है तो हम मोटरके वशमें नहीं हैं और यदि मोटर बिगड़ी हुई है तो हम मोटरके वशमें हैं। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष प्रकृतिके शुद्ध होनेके कारण प्रकृतिके वशमें नहीं होता और अज्ञानी पुरुष प्रकृतिके अशुद्ध होनेके कारण प्रकृतिके वशमें होता है।


जिसकी बुद्धिमें जडता (सांसारिक भोग और संग्रह) का ही महत्त्व है, ऐसा मनुष्य कितना ही विद्वान् क्यों न हो, उसका पतन अवश्यम्भावी है। परन्तु जिसकी बुद्धिमें जडताका महत्त्व नहीं है और भगवत्प्राप्ति ही जिसका उद्देश्य है, ऐसा मनुष्य विद्वान् न भी हो, तो भी उसका उत्थान अवश्यम्भावी है। कारण कि जिसका उद्देश्य भोग और संग्रह न होकर केवल परमात्माको प्राप्त करना ही है, उसके समस्त भाव, विचार, कर्म आदि उसकी उन्नतिमें सहायक हो जाते हैं।"

"अतः साधकको सर्वप्रथम परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य बना लेना चाहिये, फिर उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये राग-द्वेषसे रहित होकर कर्तव्य-कर्म करने चाहिये। राग-द्वेषसे रहित होनेका सुगम उपाय है-मिले हुए शरीरादि पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानते हुए दूसरोंकी सेवामें लगाना और बदलेमें दूसरोंसे कुछ भी चाहना। प्रकृतिके वशमें न होनेके लिये साधकको चाहिये कि वह किसी आदर्शको सामने रखकर कर्तव्य-कर्म करे। आदर्श दो हो सकते हैं - (१) भगवान् का मत (सिद्धान्त) और (२) श्रेष्ठ महापुरुषोंका आचरण। आदर्शको सामने रखकर कर्म करनेवाले मनुष्यकी प्रकृति शुद्ध हो जाती है और नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है। इसके विपरीत आदर्शको सामने न रखकर कर्म करनेवाला मनुष्य राग-द्वेषपूर्वक ही सब कर्म करता है, जिससे राग-द्वेष पुष्ट हो जाते हैं और उसका पतन हो जाता है- 'नष्टान् विद्धि' (गीता ३। ३२)।


जैसे नदीके प्रवाहको हम रोक तो नहीं सकते, पर नहर बनाकर मोड़ सकते हैं, ऐसे ही कर्मोंके प्रवाहको रोक तो नहीं सकते, पर उसका प्रवाह मोड़ सकते हैं। निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना ही कर्मोंके प्रवाहको मोड़ना है। अपने लिये किंचिन्मात्र भी कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह मुड़ेगा नहीं। तात्पर्य यह कि केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी ओर हो जाता है और साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।"

"परिशिष्ट भाव - ज्ञानी महापुरुष भी जब व्यवहार करता है तो स्वभावके अनुसार ही करता है। कारण कि करणोंके बिना कोई व्यवहार नहीं कर सकता। जैसे आचार्य बालककी स्थितिमें आकर ही उसको वर्णमाला (क-ख-ग) सिखाता है, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष भी साधारण मनुष्यकी स्थितिमें आकर ही उसको समझाता है, व्यवहार करता है।


'चेष्टते' पदका तात्पर्य है कि वह कर्म करता नहीं, प्रत्युत उससे प्रकृतिके अनुसार स्वतः क्रिया होती है। जैसे वृक्षके पत्ते हिलते हैं तो उनसे कोई फलजनक कर्म (पाप या पुण्य) नहीं होता, ऐसे ही कर्तृत्वाभिमान न होनेके कारण उसके द्वारा कोई शुभ-अशुभ कर्म नहीं बनता।


ज्ञानी महापुरुष भी दूसरोंके हितमें लगे रहते हैं; क्योंकि साधनावस्थामें ही उनका स्वभाव प्राणिमात्रका हित करनेका रहा है - 'सर्वभूतहिते रताः' (गीता ५। २५; १२। ४)। इसलिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष न रहनेपर भी उनमें सबका हित करनेका स्वभाव रहता है। तात्पर्य है कि दूसरोंका हित करते-करते जब उनका संसारसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, तब उनको हित करना नहीं पड़ता, प्रत्युत पहलेके प्रवाहके कारण उनके द्वारा स्वतः दूसरोंका हित होता है।


सम्बन्ध-प्रत्येक मनुष्यका अपनी प्रकृतिको साथ लेकर ही जन्म होता है; अतः उसे अपनी प्रकृतिके अनुसार कर्म करने ही पड़ते हैं। इसलिये अब भगवान् आगेके श्लोकमें प्रकृतिको शुद्ध करनेका उपाय बताते हैं।"

कल के श्लोक 34 में हम जानेंगे कि राग और द्वेष (आसक्ति और घृणा) कैसे हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं और हमें इनसे कैसे मुक्त होना चाहिए। यह श्लोक हमें आंतरिक संतुलन की आवश्यकता को समझाएगा।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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