ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 36 - हम जानते हुए भी गलत काम क्यों करते हैं?
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आपने कभी महसूस किया है कि गलत को सही समझने के बावजूद हम अक्सर उसी गलती को दोहराते हैं? आज के श्लोक में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से यही गहरा प्रश्न किया है। जानिए श्रीकृष्ण का क्या उत्तर है और कैसे यह हमारे जीवन पर लागू होता है।
कल हमने श्लोक 35 पर चर्चा की थी, जिसमें श्रीकृष्ण ने बताया था कि स्वधर्म का पालन ही हमारे लिए सबसे श्रेष्ठ है, भले ही वह कठिन क्यों न लगे। आज अर्जुन के एक और गहन प्रश्न की चर्चा होगी—क्यों हम चाहकर भी बुरे कर्मों से नहीं बच पाते?
"आज के श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्न करते हैं:
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥
इसका अर्थ है: 'हे कृष्ण, मनुष्य किस प्रेरणा के कारण पाप करता है, जबकि वह ऐसा करना नहीं चाहता? मानो वह बलपूर्वक ऐसा करने के लिए प्रेरित किया गया हो।'
यह प्रश्न हमारी आंतरिक कमजोरियों और इच्छाओं को उजागर करता है, जो हमें सही और गलत का ज्ञान होने के बावजूद गलत कार्यों की ओर ले जाती हैं। यह श्लोक मन के संघर्ष और प्रलोभन की चुनौती को सामने लाता है।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 36"
"बलात् मनुष्यको पापमें प्रवृत्त कौन करता है ? इस विषयमें अर्जुनका प्रश्न ।
(श्लोक-३६)
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्नपि वाष्र्णेय बलादिव नियोजितः ॥
उच्चारण की विधि
अथ, केन, प्रयुक्तः, अयम्, पापम्, चरति, पूरुषः, अनिच्छन्, अपि, वाष्र्णेय, बलात्, इव, नियोजितः ॥ ३६ ॥
वाष्र्णेय अर्थात् हे कृष्ण ! (तो), अथ अर्थात् फिर, अयम् अर्थात् यह, पूरुषः अर्थात् मनुष्य (स्वयम्), अनिच्छन् अर्थात् न चाहता हुआ, अपि अर्थात् भी, बलात् अर्थात् बलात्, नियोजितः अर्थात् लगाये हुएकी, इव अर्थात् भाँति, केन अर्थात् किससे, प्रयुक्तः अर्थात् प्रेरित होकर, पापम् अर्थात् पापका, चरति अर्थात् आचरण करता है।
अर्थ - अर्जुन बोले-हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुएकी भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है ? ॥ ३६ ॥"
"व्याख्या' अथ केन प्रयुक्तोऽयं
बलादिव नियोजितः ' - यदुकुलमें 'वृष्णि' नामका एक वंश था। उसी वृष्णिवंशमें अवतार लेनेसे भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम 'वाष्र्णेय' है। पूर्वश्लोकमें भगवान् ने स्वधर्म-पालनकी प्रशंसा की है। धर्म 'वर्ण' और 'कुल' का होता है; अतः अर्जुन भी कुल (वंश) के नामसे भगवान् को सम्बोधित करके प्रश्न करते हैं।
विचारवान् पुरुष पाप नहीं करना चाहता; क्योंकि पापका परिणाम दुःख होता है और दुःखको कोई भी प्राणी नहीं चाहता।
यहाँ 'अनिच्छन्' पदका तात्पर्य भोग और संग्रहकी इच्छाका त्याग नहीं, प्रत्युत पाप करनेकी इच्छाका त्याग है। कारण कि भोग और संग्रहकी इच्छा ही समस्त पापोंका मूल है, जिसके न रहनेपर पाप होते ही नहीं।
विचारशील मनुष्य पाप करना तो नहीं चाहता, पर भीतर सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छा रहनेसे वह करनेयोग्य कर्तव्य कर्म नहीं कर पाता और न करनेयोग्य पाप-कर्म कर बैठता है।
'अनिच्छन्' पदकी प्रबलताको बतानेके लिये अर्जुन 'बलादिव नियोजितः' पदोंको कहते हैं। तात्पर्य यह है कि पापवृत्तिके उत्पन्न होनेपर विचारशील पुरुष उस पापको जानता हुआ उससे सर्वथा दूर रहना चाहता है; फिर भी वह उस पापमें ऐसे लग जाता है, जैसे कोई उसको जबर्दस्ती पापमें लगा रहा हो। इससे ऐसा मालूम होता है कि पापमें लगानेवाला कोई बलवान् कारण है।
पापोंमें प्रवृत्तिका मूल कारण है- 'काम' अर्थात् सांसारिक सुख-भोग और संग्रहकी कामना। परन्तु इस कारणकी ओर दृष्टि न रहनेसे मनुष्यको यह पता नहीं चलता कि पाप करानेवाला कौन है ? वह यह समझता है कि मैं तो पापको जानता हुआ उससे निवृत्त होना चाहता हूँ, पर मेरेको कोई बलपूर्वक पापमें प्रवृत्त करता है; जैसे दुर्योधनने कहा है-"
"जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति र्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः । केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥
(गर्गसंहिता, अश्वमेध० ५०। ३६)
'मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदयमें स्थित कोई देव है, जो मेरेसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।'
दुर्योधन द्वारा कहा गया यह 'देव' वस्तुतः 'काम' (भोग और संग्रहकी इच्छा) ही है, जिससे मनुष्य विचारपूर्वक जानता हुआ भी धर्मका पालन और अधर्मका त्याग नहीं कर पाता।
'केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति' पदोंसे भी 'अनिच्छन्' पदकी प्रबलता प्रतीत होती है। तात्पर्य यह है कि विचारवान् मनुष्य स्वयं पाप करना नहीं चाहता; कोई दूसरा ही उसे जबर्दस्ती पापमें प्रवृत्त करा देता है। वह दूसरा कौन है ? - यह अर्जुनका प्रश्न है।
भगवान् ने अभी-अभी चौंतीसवें श्लोकमें बताया है कि राग और द्वेष (जो काम और क्रोधके ही सूक्ष्म रूप हैं) साधकके महान् शत्रु हैं अर्थात् ये दोनों पापके कारण हैं। परन्तु वह बात सामान्य रीतिसे कहनेके कारण अर्जुन उसे पकड़ नहीं सके। अतः वे प्रश्न करते हैं कि मनुष्य विचारपूर्वक पाप करना न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?
अर्जुनके प्रश्नका अभिप्राय यह है कि (इकतीसवेंसे लेकर पैंतीसवें श्लोकतक देखते हुए) अश्रद्धा, असूया, दुष्टचित्तता, मूढ़ता, प्रकृति (स्वभाव) की परवशता, राग-द्वेष, स्वधर्ममें अरुचि और परधर्ममें रुचि-इनमेंसे कौन-सा कारण है, जिससे मनुष्य विचारपूर्वक न चाहता हुआ भी पापमें प्रवृत्त होता है ? इसके अलावा ईश्वर, प्रारब्ध, युग, परिस्थिति, कर्म, कुसंग, समाज, रीतिरिवाज, सरकारी कानून आदिमेंसे भी किस कारणसे मनुष्य पापमें प्रवृत्त होता है ?
सम्बन्ध-अब भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हैं।"
कल के श्लोक 37 में श्रीकृष्ण इस प्रश्न का उत्तर देंगे और बताएंगे कि काम और क्रोध मनुष्य को कैसे नियंत्रित करते हैं और गलत मार्ग पर ले जाते हैं। जानेंगे कि इन भावनाओं से बचने का क्या उपाय है।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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