ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 2 - दिव्य ज्ञान की खोई हुई परंपरा
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आपने कभी सोचा है कि सदियों से चल रहा यह दिव्य ज्ञान समय के साथ कैसे खो गया? आज के श्लोक में श्रीकृष्ण हमें बताएंगे कि किसने इस ज्ञान को संरक्षित किया और कैसे यह ज्ञान समय के साथ विलुप्त हो गया। आइए इस रहस्य को जानें!
कल हमने श्लोक 1 में जाना कि यह दिव्य ज्ञान सबसे पहले सूर्य-देवता विवस्वान को दिया गया था, फिर यह मनु और इक्ष्वाकु तक पहुंचा। श्रीकृष्ण ने हमें बताया कि यह ज्ञान सदियों से पीढ़ियों के माध्यम से आगे बढ़ता आया है।
"आज के श्लोक 2 में श्रीकृष्ण कहते हैं:
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥
इसका अर्थ है:
'इस प्रकार राजर्षियों द्वारा यह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त किया गया था, लेकिन समय के साथ यह योग यहाँ पृथ्वी पर लुप्त हो गया।'
यह श्लोक हमें यह बताता है कि यह दिव्य योग पहले राजर्षियों द्वारा संरक्षित किया गया था। लेकिन समय के प्रभाव से, यह ज्ञान धीरे-धीरे खो गया। इसका मुख्य कारण यह है कि मनुष्य की प्रवृत्तियाँ और जीवनशैली बदलने लगीं, जिससे यह अमूल्य ज्ञान विलुप्त हो गया।"
"भगवतगीता अध्याय 4
श्लोक 2"
कल के श्लोक 3 में श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताएंगे कि उन्होंने यह दिव्य ज्ञान अब अर्जुन को क्यों प्रदान किया है। यह श्लोक अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण की विशेष कृपा का संकेत देगा। कल की चर्चा और भी महत्वपूर्ण होगी।
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कल मिलते हैं नये श्लोक की व्याख्या के साथ। तब तक ""Keep Learning, Keep Growing!
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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