ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 15 - प्राचीन ज्ञानी पुरुषों के कर्म का अनुसरण


"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे पूर्वजों के ज्ञान और कर्म का अनुसरण क्यों महत्वपूर्ण है? आज के श्लोक में श्रीकृष्ण समझाते हैं कि अतीत के ज्ञानी पुरुषों के मार्ग पर चलते हुए हमें भी अपना कर्म कैसे करना चाहिए।

कल के श्लोक 13 और 14 में हमने जाना कि श्रीकृष्ण ने समाज में कर्म-व्यवस्था का निर्माण किया और खुद को कर्मों से अछूता बताया। आज के श्लोक में वे इस परंपरा को जारी रखने और ज्ञानी पुरुषों का अनुसरण करने की बात करते हैं।

"आज के श्लोक 15 में श्रीकृष्ण कहते हैं:

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥


इसका अर्थ है:

'भूतकाल में मुक्ति चाहने वाले पुरुषों ने इस ज्ञान को प्राप्त कर कर्म किया। इसलिए तुम्हें भी उसी प्रकार कर्म करना चाहिए जैसे उन प्राचीन ज्ञानी पुरुषों ने किया।'


इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने हमें सिखाया है कि ज्ञानी और समझदार व्यक्ति ने भी इस मार्ग पर चलकर अपने कर्म किए हैं। यह हमें दिखाता है कि कर्म से मुक्ति संभव है यदि उसे सही ज्ञान और निष्ठा के साथ किया जाए। अतीत के आदर्श हमारे लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन का स्रोत हैं।"

"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 15"

"पूर्वज मुमुक्षुओंकी भाँति निष्काम कर्म करनेके लिये आज्ञा ।


(श्लोक-१५)


एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥ 


उच्चारण की विधि


एवम्, ज्ञात्वा, कृतम्, कर्म, पूर्वैः, अपि, मुमुक्षुभिः, कुरु, कर्म, एव, तस्मात्, त्वम्, पूर्वैः, पूर्वतरम्, कृतम् ॥ १५ ॥


पूर्वैः अर्थात् पूर्वकालके, मुमुक्षुभिः अर्थात् मुमुक्षुओंने, अपि अर्थात् भी, एवम् अर्थात् इस प्रकार, ज्ञात्वा अर्थात् जानकर (ही), कर्म अर्थात् कर्म, कृतम् अर्थात् किये हैं, तस्मात् अर्थात् इसलिये, त्वम् अर्थात् तू (भी), पूर्वैः अर्थात् पूर्वजोंद्वारा, पूर्वतरम् कृतम् अर्थात् सदासे किये जानेवाले, कर्म अर्थात् कर्मोंको, एव अर्थात् ही, कुरु अर्थात् कर ।


अर्थ - पूर्वकालमें मुमुक्षुओंने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किये हैं। इसलिये तू भी पूर्वजोंद्वारा सदासे किये जानेवाले कर्मोंको ही कर ॥ १५ ॥"

"व्याख्या [नवें श्लोकमें भगवान् ने अपने कर्मोंकी दिव्यताका जो प्रसंग आरम्भ किया था, उसका यहाँ उपसंहार करते हैं।] 


'एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः' अर्जुन मुमुक्षु थे अर्थात् अपना कल्याण चाहते थे। परन्तु युद्धरूपसे प्राप्त अपने कर्तव्य-कर्मको करनेमें उन्हें अपना कल्याण नहीं दीखता, प्रत्युत वे उसको घोर-कर्म समझकर उसका त्याग करना चाहते हैं (गीता- तीसरे अध्यायका पहला श्लोक)। इसलिये भगवान् अर्जुनको पूर्वकालके मुमुक्षु पुरुषोंका उदाहरण देते हैं कि उन्होंने भी अपने- अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन करके कल्याणकी प्राप्ति की है, इसलिये तुम्हें भी उनकी तरह अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।


तीसरे अध्यायके बीसवें श्लोकमें जनकादिका उदाहरण देकर तथा इसी (चौथे) अध्यायके पहले दूसरे श्लोकोंमें विवस्वान्, मनु, इक्ष्वाकु आदिका उदाहरण देकर भगवान् ने जो बात कही थी, वही बात इस श्लोकमें भी कह रहे हैं।


शास्त्रोंमें ऐसी प्रसिद्धि है कि मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि मुमुक्षाके बाद मनुष्य कर्मका अधिकारी नहीं होता; प्रत्युत ज्ञानका अधिकारी हो जाता है।


२-तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।


मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ।।


(श्रीमद्भा० ११।२०।९) 'तभीतक कर्म करने चाहिये, जबतक वैराग्य न हो जाय अथवा जबतक मेरी (भगवान् की) कथाके श्रवण आदिमें श्रद्धा उत्पन्न न हो जाय।'


परन्तु यहाँ भगवान् कहते हैं कि मुमुक्षुओंने भी कर्मयोगका तत्त्व जानकर कर्म किये हैं। इसलिये मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर भी अपने कर्तव्य-कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करते रहना चाहिये।"

"कर्मयोगका तत्त्व है-कर्म करते हुए योगमें स्थित रहना और योगमें स्थित रहते हुए कर्म करना। कर्म संसारके लिये और योग अपने लिये होता है। कर्मोंको करना और न करना-दोनों अवस्थाएँ हैं। अतः प्रवृत्ति (कर्म करना) और निवृत्ति (कर्म न करना) - दोनों ही प्रवृत्ति (कर्म करना) है। प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनोंसे ऊँचा उठ जाना योग है, जो पूर्ण निवृत्ति है। पूर्ण निवृत्ति कोई अवस्था नहीं है।


चौदहवें श्लोकमें भगवान् ने कहा कि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते। जो मनुष्य कर्म करनेकी इस विद्या-(कर्मयोग) को जानकर फलेच्छाका त्याग करके कर्म करता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता; कारण कि फलेच्छासे ही मनुष्य बँधता है- 'फले सक्तो निबध्यते' (गीता ५। १२)। अगर मनुष्य अपने सुखभोगके लिये अथवा धन, मान, बड़ाई, स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये कर्म करता है तो वे कर्म उसे बाँध देते हैं (गीता-तीसरे अध्यायका नवाँ श्लोक)। परन्तु यदि उसका लक्ष्य उत्पत्ति-विनाशशील संसार नहीं है, प्रत्युत वह संसारसे सम्बन्ध- विच्छेद करनेके लिये निःस्वार्थ सेवा-भावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है, तो वे कर्म उसे बाँधते नहीं (गीता-चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)। कारण कि दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है, जिससे कर्मोंका सम्बन्ध (राग) मिट जाता है और फलेच्छा न रहनेसे नया सम्बन्ध पैदा नहीं होता।


'कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्'- इन पदोंसे भगवान् अर्जुनको आज्ञा दे रहे हैं कि तू मुमुक्षु है, इसलिये जैसे पहले अन्य मुमुक्षुओंने लोकहितार्थ कर्म किये हैं, ऐसे ही तू भी संसारके हितके लिये कर्म कर।"

"शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि कर्मकी सब सामग्री अपनेसे भिन्न तथा संसारसे अभिन्न है। वह संसारकी है और संसारकी सेवाके लिये ही मिली है। उसे अपनी मानकर अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंका सम्बन्ध अपने साथ हो जाता है। जब सम्पूर्ण कर्म केवल दूसरोंके हितके लिये किये जाते हैं, तब कर्मोंका सम्बन्ध हमारे साथ नहीं रहता। कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेपर 'योग' अर्थात् परमात्माके साथ हमारे नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव हो जाता है, जो कि पहलेसे ही है।


परिशिष्ट भाव-तेरहवें-चौदहवें श्लोकोंमें भगवान् ने बताया कि कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छासे रहित होकर सृष्टि-रचना आदि कर्म करनेके कारण वे कर्म मुझे नहीं बाँधते। यहाँ भगवान् कहते हैं कि मुमुक्षुओंने भी इसी तरह कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छाका त्याग करके कर्म किये हैं। कारण कि कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा होनेपर ही कर्म बन्धनकारक होते हैं। इसलिये तू भी उसी प्रकारसे कर्म कर।


ज्ञानयोगमें पहले कर्तृत्वाभिमानका त्याग किया जाता है, फिर फलेच्छाका त्याग स्वतः होता है। कर्मयोगमें पहले फलेच्छाका त्याग किया जाता है, फिर कर्तृत्वाभिमानका त्याग सुगमतासे हो जाता है।


सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें 'एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म' पदोंसे कर्मोंको जाननेकी बात कही गयी थी। अब भगवान् आगेके श्लोकसे कर्मोंको 'तत्त्व' से जाननेके लिये प्रकरण आरम्भ करते हैं।"

कल के श्लोक 16 में श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करेंगे कि कर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है और इसे समझने का सही तरीका क्या है। यह चर्चा भी बहुत ज्ञानवर्धक होगी!

"दोस्तों, अगर आपको आज का वीडियो पसंद आया हो और आपने कुछ नया सीखा हो, तो वीडियो को लाइक और शेयर करना न भूलें। चैनल को सब्सक्राइब करें ताकि आपसे कोई भी महत्वपूर्ण जानकारी मिस न हो। आप अपने सवाल या विचार भी कमेंट बॉक्स में शेयर कर सकते हैं।


अब ध्यान दें! आज के वीडियो से आपने क्या सीखा, उसे कमेंट में जरूर लिखें। अगर आपके कमेंट पर 9 लाइक्स मिलते हैं और आप इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ शेयर करते हैं, तो आपको और उन्हें 2 महीने का YouTube प्रीमियम सब्सक्रिप्शन जीतने का मौका मिल सकता है – बिल्कुल मुफ्त! अपनी एंट्री सबमिट करने के लिए नीचे दिए गए QR Code या लिंक पर जाकर Detail शेयर करें।

ऑफर की वैधता: 31 दिसंबर 2024 तक। इसलिए अभी एंट्री करें और इस बेहतरीन मौके का लाभ उठाएं!


https://forms.gle/CAWMedA7hK6ZdNDy6


कल मिलते हैं नये श्लोक की व्याख्या के साथ। तब तक ""Keep Learning, Keep Growing!


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

Comments

Popular posts from this blog

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 34 - 🧠 मन, बुद्धि और भक्ति से पाओ भगवान को!

📖 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 8, श्लोक 22 "परम सत्य की प्राप्ति का मार्ग"