ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 16 - कर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है?

 





"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या आपने कभी सोचा है कि कर्म क्या वास्तव में उतना सरल है जितना हम समझते हैं? आज के श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म की जटिलताओं को समझने का तरीका बता रहे हैं। इस ज्ञान से हम अपने जीवन में कर्म को सही दिशा दे सकते हैं!

कल के श्लोक 15 में हमने जाना कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्राचीन ज्ञानी पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा दी थी। आज के श्लोक में, वे कर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने पर जोर देते हैं।

"आज के श्लोक 16 में श्रीकृष्ण कहते हैं:

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥



इसका अर्थ है:

'कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इस विषय में बुद्धिमान लोग भी भ्रमित होते हैं। इसलिए मैं तुम्हें कर्म का वास्तविक रूप बताऊंगा, जिसे समझने के बाद तुम अशुभ से मुक्त हो सकोगे।'


इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्म के गहरे रहस्य को उजागर करने की तैयारी कर रहे हैं। वे यह कहते हैं कि कर्म की समझ से हम अपने जीवन को सही दिशा में ले जा सकते हैं और अशुभ परिणामों से बच सकते हैं। यह ज्ञान हर इंसान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।"

"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 16"

"(कर्म और अकर्मको तत्त्वसे जाननेका फल)



(श्लोक-१६)


किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥


उच्चारण की विधि


किम्, कर्म, किम्, अकर्म, इति, कवयः, अपि, अत्र, मोहिताः, तत्, ते, कर्म, प्रवक्ष्यामि, यत्, ज्ञात्वा, मोक्ष्यसे, अशुभात् ॥ १६ ॥


कर्म अर्थात् कर्म, किम् अर्थात् क्या है (और), अकर्म अर्थात् अकर्म, किम् अर्थात् क्या है- इति अर्थात् इस प्रकार (इसका), अत्र अर्थात् निर्णय करनेमें, कवयः अर्थात् बुद्धिमान् पुरुष, अपि अर्थात् भी, मोहिताः अर्थात् मोहित हो जाते हैं (इसलिये), तत् अर्थात् वह, कर्म अर्थात् कर्म तत्त्व (मैं), ते अर्थात् तुझे, प्रवक्ष्यामि अर्थात् भलीभाँति समझाकर कहूँगा, यत् अर्थात् जिसे, ज्ञात्वा अर्थात् जानकर (तू), अशुभात् अर्थात् अशुभसे अर्थात् कर्मबन्धनसे, मोक्ष्यसे अर्थात् मुक्त हो जायगा। 


अर्थ - कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करनेमें बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिये वह कर्मतत्त्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभसे अर्थात् कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा ॥ १६ ॥"

"व्याख्या-'किं कर्म' - साधारणतः मनुष्य-शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको ही कर्म मान लेते हैं तथा शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाएँ बंद होनेको अकर्म मान लेते हैं। परन्तु भगवान् ने शरीर, वाणी और मनके द्वारा होनेवाली मात्र क्रियाओंको कर्म माना है - 'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (गीता १८। १५)।



भावके अनुसार ही कर्मकी संज्ञा होती है। भाव बदलनेपर कर्मकी संज्ञा भी बदल जाती है। जैसे, कर्म स्वरूपसे सात्त्विक दीखता हुआ भी यदि कर्ताका भाव राजस या तामस होता है, तो वह कर्म भी राजस या तामस हो जाता है। जैसे, कोई देवीकी उपासनारूप कर्म कर रहा है, जो स्वरूपसे सात्त्विक है। परन्तु यदि कर्ता उसे किसी कामनाकी सिद्धिके लिये करता है, तो वह कर्म राजस हो जाता है और किसीका नाश करनेके लिये करता है, तो वही कर्म तामस हो जाता है। इसी प्रकार यदि कर्तामें फलेच्छा, ममता और आसक्ति नहीं है, तो उसके द्वारा किये गये कर्म 'अकर्म' हो जाते हैं अर्थात् फलमें बाँधनेवाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि केवल बाहरी क्रिया करने अथवा न करनेसे कर्मके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान नहीं होता। इस विषयमें शास्त्रोंको जाननेवाले बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं अर्थात् कर्मके तत्त्वका यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते। जिस क्रियाको वे कर्म मानते हैं वह कर्म भी हो सकता है, अकर्म भी हो सकता है और विकर्म भी हो सकता है। कारण कि कर्ताके भावके अनुसार कर्मका स्वरूप बदल जाता है। इसलिये भगवान् मानो यह कहते हैं कि वास्तविक कर्म क्या है? वह क्यों बाँधता है? कैसे बाँधता है? इससे किस तरह मुक्त हो सकते हैं?"

"इन सबका मैं विवेचन करूँगा, जिसको जानकर उस रीतिसे कर्म करनेपर वे बाँधनेवाले न हो सकेंगे।


यदि मनुष्यमें ममता, आसक्ति और फलेच्छा है, तो कर्म न करते हुए भी वास्तवमें कर्म ही हो रहा है अर्थात् कर्मोंसे लिप्तता है। परन्तु यदि ममता, आसक्ति और फलेच्छा नहीं है, तो कर्म करते हुए भी कर्म नहीं हो रहा है अर्थात् कर्मोंसे निर्लिप्तता है। तात्पर्य यह है कि यदि कर्ता निर्लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना-दोनों ही अकर्म हैं और यदि कर्ता लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना - दोनों ही कर्म हैं और बाँधनेवाले हैं।


'किमकर्मेति'- भगवान् ने कर्मके दो भेद बताये हैं- कर्म और अकर्म। कर्मसे जीव बँधता है और अकर्मसे (दूसरोंके लिये कर्म करनेसे) मुक्त हो जाता है।



कर्मोंका त्याग करना अकर्म नहीं है। भगवान् ने मोहपूर्वक किये गये कर्मोंके त्यागको 'तामस' बताया है (गीता- अठारहवें अध्यायका सातवाँ श्लोक)। शारीरिक कष्टके भयसे किये गये कर्मोंके त्यागको 'राजस' बताया गया है (गीता- अठारहवें अध्यायका आठवाँ श्लोक)। तामस और राजस त्यागमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग होनेपर भी कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता। कर्मोंमें फलेच्छा और आसक्तिका त्याग 'सात्त्विक' है (गीता- अठारहवें अध्यायका नवाँ श्लोक)। सात्त्विक त्यागमें स्वरूपसे कर्म करना भी वास्तवमें अकर्म है; क्योंकि सात्त्विक त्यागमें कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। अतः कर्म करते हुए भी उससे निर्लिप्त रहना वास्तवमें अकर्म है। शास्त्रोंके तत्त्वको जाननेवाले विद्वान् भी अकर्म क्या है-इस विषयमें मोहित हो जाते हैं।"

"अतः कर्म करने अथवा न करने- दोनों ही अवस्थाओंमें जिससे जीव बँधे नहीं, उस तत्त्वको समझनेसे ही कर्म क्या है और अकर्म क्या है- यह बात समझमें आयेगी। अर्जुन युद्धरूप कर्म न करनेको कल्याणकारक समझते हैं। इसलिये भगवान् मानो यह कहते हैं कि युद्धरूप कर्मका त्याग करनेमात्रसे तेरी अकर्म-अवस्था (बन्धनसे मुक्ति) नहीं होगी (गीता- तीसरे अध्यायका चौथा श्लोक), प्रत्युत युद्ध करते हुए भी तू अकर्म- अवस्थाको प्राप्त कर सकता है (गीता-दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक); अतः अकर्म क्या है- इस तत्त्वको तू समझ।


निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना-यही वास्तवमें अकर्म-अवस्था है।


'कवयोऽप्यत्र मोहिताः' - साधारण मनुष्योंमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि वे कर्म और अकर्मका तात्त्विक निर्णय कर सकें। शास्त्रोंके ज्ञाता बड़े-बड़े विद्वान् भी इस विषयमें भूल कर जाते हैं। कर्म और अकर्मका तत्त्व जाननेमें उनकी बुद्धि भी चकरा जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि इनका तत्त्व या तो कर्मयोगसे सिद्ध हुए अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष जानते हैं अथवा भगवान् जानते हैं।


'तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि'- जीव कर्मोंसे बँधा है तो कर्मोंसे ही मुक्त होगा। यहाँ भगवान् प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं वह कर्म-तत्त्व भलीभाँति कहूँगा, जिससे कर्म करते हुए भी वे बन्धनकारक न हों। तात्पर्य यह है कि कर्म करनेकी वह विद्या बताऊँगा, जिससे तू कर्म करते हुए भी जन्म-मरणरूप बन्धनसे मुक्त हो जायगा। 




कर्म करनेके दो मार्ग हैं- प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग। प्रवृत्तिमार्गको 'कर्म करना' कहते हैं और निवृत्तिमार्गको 'कर्म न करना' कहते हैं।"

"ये दोनों ही मार्ग बाँधनेवाले नहीं हैं। बाँधनेवाली तो कामना, ममता, आसक्ति है, चाहे यह प्रवृत्तिमार्गमें हो, चाहे निवृत्तिमार्गमें हो। यदि कामना, ममता, आसक्ति न हो तो मनुष्य प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग - दोनोंमें स्वतः मुक्त है। इस बातको समझना ही कर्म-तत्त्वको समझना है।


दूसरे अध्यायके पचासवें श्लोकमें भगवान् ने 'योगः कर्मसु कौशलम्' 'कर्मोंमें योग ही कुशलता है'- ऐसा कहकर कर्म-तत्त्व बताया है। तात्पर्य है कि कर्म-बन्धनसे छूटनेका वास्तविक उपाय 'योग' अर्थात् समता ही है। परन्तु अर्जुन इस तत्त्वको पकड़ नहीं सके, इसलिये भगवान् इस तत्त्वको पुनः समझानेकी प्रतिज्ञा कर रहे हैं।

विशेष बात


कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत सेवा है। सेवामें त्यागकी मुख्यता होती है। सेवा और त्याग- ये दोनों ही कर्म नहीं हैं। इन दोनोंमें विवेककी ही प्रधानता है।


हमारे पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब मिली हुई हैं और बिछुड़नेवाली हैं। मिली हुई वस्तुको अपनी माननेका हमें अधिकार नहीं है। संसारसे मिली वस्तुको संसारकी ही सेवामें लगानेका हमें अधिकार है। जो वस्तु वास्तवमें अपनी है, उस (स्वरूप या परमात्मा) का त्याग कभी हो ही नहीं सकता और जो वस्तु अपनी नहीं है, उस (शरीर या संसार) का त्याग स्वतः सिद्ध है। अतः त्याग उसीका होता है जो अपना नहीं है, पर जिसे भूलसे अपना मान लिया है अर्थात् अपनेपनकी मान्यताका ही त्याग होता है। इस प्रकार जो वस्तु अपनी है ही नहीं, उसे अपना न मानना त्याग कैसे ? यह तो विवेक है। कर्म-सामग्री (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) अपनी और अपने लिये नहीं हैं, "

"प्रत्युत दूसरोंकी और दूसरोंके लिये ही हैं। इसका सम्बन्ध संसारके साथ है। स्वयंके साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि स्वयं नित्य-निरन्तर निर्विकाररूपसे एकरस रहता है, पर कर्म-सामग्री पहले अपने पास नहीं थी, बादमें भी अपने पास नहीं रहेगी और अब भी निरन्तर बिछुड़ रही है। इसलिये इसके द्वारा जो भी कर्म किया जाय, वह दूसरोंके लिये ही होता है, अपने लिये नहीं। इसमें एक मार्मिक बात है कि कर्म-सामग्रीके बिना कोई भी 

कर्म नहीं किया जा सकता; जैसे- कितना ही बड़ा लेखक क्यों न हो, स्याही, कलम और कागजके बिना वह कुछ भी नहीं लिख सकता। अतः जब कर्म-सामग्रीके बिना कुछ किया नहीं जा सकता, तब यह विधान मानना ही पड़ेगा कि अपने लिये कुछ करना नहीं है। कारण कि कर्म-सामग्रीका सम्बन्ध संसारके साथ है, अपने साथ नहीं। इसलिये कर्म-सामग्री और कर्म सदा दूसरोंके हितके लिये ही होते हैं, जिसे सेवा कहते हैं। दूसरोंकी ही वस्तु दूसरोंको मिल गयी तो यह सेवा कैसे ? यह तो विवेक है।


इस प्रकार त्याग और सेवा- ये दोनों ही कर्मसाध्य नहीं हैं, प्रत्युत विवेकसाध्य हैं। मिली हुई वस्तु अपनी नहीं है, दूसरोंकी और दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही है- यह विवेक है। इसलिये मूलतः कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत विवेक है।


विवेक किसी कर्मका फल नहीं है, प्रत्युत प्राणिमात्रको अनादिकालसे स्वतः प्राप्त है। यदि विवेक किसी शुभ कर्मका फल होता तो विवेकके बिना उस शुभ कर्मको कौन करता ? क्योंकि विवेकके द्वारा ही मनुष्य शुभ और अशुभ कर्मके भेदको जानता है तथा अशुभ कर्मका त्याग करके शुभ कर्मका आचरण करता है। अतः विवेक शुभ कर्मोंका कारण है, कार्य नहीं। "

"यह विवेक स्वतः सिद्ध है, इसलिये कर्मयोग भी स्वतः सिद्ध है अर्थात् कर्मयोगमें परिश्रम नहीं है। इसी प्रकार ज्ञानयोगमें अपना असंग स्वरूप स्वतःसिद्ध है और भक्ति-योगमें भगवान् के साथ अपना सम्बन्ध स्वतः सिद्ध है। 'यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्' - जीव स्वयं शुभ है और परिवर्तनशील संसार अशुभ है। जीव स्वयं परमात्माका नित्य अंश होते हुए भी परमात्मासे विमुख होकर अनित्य संसारमें फँस गया है। भगवान् कहते हैं कि मैं उस कर्म-तत्त्वका वर्णन करूँगा, जिसे जानकर कर्म करनेसे तू अशुभसे अर्थात् जन्म-मरणरूप संसार- बन्धनसे मुक्त हो जायगा।


[इस श्लोकमें कर्मोंको जाननेका जो प्रकरण आरम्भ हुआ है, उसका उपसंहार बत्तीसवें श्लोकमें 'एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे' पदोंसे किया गया है।]



मार्मिक बात


कर्मयोगका तात्पर्य है- 'कर्म' संसारके लिये और 'योग' अपने लिये। कर्मके दो अर्थ होते हैं- करना और न करना। कर्म करना और न करना-ये दोनों प्राकृत अवस्थाएँ हैं। इन दोनों ही अवस्थाओंमें अहंता रहती है। कर्म करनेमें 'कार्य' रूपसे अहंता रहती है, और कर्म न करनेमें 'कारण' रूपसे। जबतक अहंता है तबतक संसारसे सम्बन्ध है और जबतक संसारसे सम्बन्ध है, तबतक अहंता है। परन्तु 'योग' दोनों अवस्थाओंसे अतीत है। उस योगका अनुभव करनेके लिये अहंतासे रहित होना आवश्यक है। अहंतासे रहित होनेका उपाय है-कर्म करते हुए अथवा न करते हुए योगमें स्थित रहना और योगमें स्थित रहते हुए कर्म करना अथवा न करना। तात्पर्य है कि कर्म करने अथवा न करने- दोनों अवस्थाओंमें निर्लिप्तता रहे- 'योगस्थः कुरु कर्माणि' (गीता २। ४८)।"

"कर्म करनेसे संसारमें और कर्म न करनेसे परमात्मामें प्रवृत्ति होती है-ऐसा मानते हुए संसारसे निवृत्त होकर एकान्तमें ध्यान और समाधि लगाना भी कर्म करना ही है। एकान्तमें ध्यान और समाधि लगानेसे तत्त्वका साक्षात्कार होगा- इस प्रकार भविष्यमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करनेका भाव भी कर्मका सूक्ष्म रूप है। कारण कि करनेके आधारपर ही भविष्यमें तत्त्वप्राप्तिकी आशा होती है। परन्तु परमात्मतत्त्व करने और न करने- दोनोंसे अतीत है।


भगवान् कहते हैं कि मैं वह कर्म-तत्त्व कहूँगा जिसे जाननेसे तत्काल परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी। इसके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं है; क्योंकि परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिमें समानरूपसे परिपूर्ण है। मनुष्य अपनेको जहाँ मानता है, परमात्मा वहीं हैं। कर्म करते समय अथवा न करते समय दोनों अवस्थाओंमें परमात्मतत्त्वका हमारे साथ सम्बन्ध ज्यों-का-त्यों रहता है। केवल प्रकृतिजन्य क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध माननेके कारण ही उसकी अनुभूति नहीं हो रही है।


अहंतापूर्वक किया हुआ साधन और साधनका अभिमान जबतक रहता है, तबतक अहंता मिटती नहीं, प्रत्युत दृढ़ होती है, चाहे वह अहंता स्थूलरूपसे (कर्म करनेके साथ) रहे अथवा सूक्ष्मरूपसे (कर्म न करनेके साथ) रहे।


'मैं करता हूँ'- इसमें जैसी अहंता है, ऐसी ही अहंता 'मैं नहीं करता हूँ'- इसमें भी है। अपने लिये कुछ न करनेसे अर्थात् कर्ममात्र संसारके हितके लिये करनेसे अहंता संसारमें विलीन हो जाती है।


सम्बन्ध-अब भगवान् कर्मोंके तत्त्वको जाननेकी प्रेरणा करते हैं।"

कल के श्लोक 17 में श्रीकृष्ण बताएंगे कि किस प्रकार हमें सच्चे कर्म और अकर्म को पहचानना चाहिए। यह हमें कर्म के सही अर्थ को समझने में मदद करेगा!

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"



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