ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 19 से 20 - कर्मयोगी का वास्तविक स्वरूप क्या है?
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आप जानना चाहते हैं कि कैसे एक सच्चा कर्मयोगी अपने कर्मों में बंधता नहीं है? आज के श्लोकों में, श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि बिना फल की चिंता किए कर्म करने से ही हमें सच्ची मुक्ति मिलती है।
कल के श्लोक 18 में हमने सीखा कि सच्चे कर्मयोगी के लिए कर्म और अकर्म में कोई भेद नहीं होता। आज, श्रीकृष्ण यह विस्तार से बताएंगे कि सच्चा कर्मयोगी कौन होता है और कैसे वह अपने कर्मों से बंधन से मुक्त रहता है।
"आज के श्लोक 19 और 20 में श्रीकृष्ण कहते हैं:
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः॥
इनका अर्थ है:
'जिसके सभी कर्म ज्ञान की अग्नि में भस्म हो चुके हैं और जो हर कर्म से कामना को त्याग चुका है, उसे ही ज्ञानी कहते हैं। जो कर्मफल की आसक्ति त्याग कर संतुष्ट रहता है और अपने में स्थिर होता है, वही सच्चा कर्मयोगी है।'
श्रीकृष्ण के अनुसार, सच्चा कर्मयोगी वह है जो अपने सभी कार्यों को ज्ञान और समर्पण की भावना से करता है और परिणामों की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करता है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा सुख बाहरी चीजों में नहीं, बल्कि आत्मज्ञान और कर्म में स्थित रहकर आता है।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 19 से 20"
"कामना और संकल्परहित आचरणवाले ज्ञानीकी प्रशंसा।
(श्लोक-१९)
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥
उच्चारण की विधि
यस्य, सर्वे, समारम्भाः, कामसङ्कल्पवर्जिताः, ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्, तम्, आहुः, पण्डितम्, बुधाः ॥ १९ ॥
यस्य अर्थात् जिसके, सर्वे अर्थात् सम्पूर्ण (शास्त्रसम्मत), समारम्भाः अर्थात् कर्म, कामसङ्कल्पवर्जिताः अर्थात् बिना कामना और संकल्पके होते हैं (तथा), ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम् अर्थात् जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं, तम् अर्थात् उस महापुरुषको, बुधाः अर्थात् ज्ञानीजन (भी), पण्डितम् अर्थात् पण्डित, आहुः अर्थात् कहते हैं।
अर्थ - जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं॥ १९ ॥"
"व्याख्या'यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः –
विषयोंका बार-बार चिन्तन होनेसे, उनकी बार-बार याद आनेसे उन विषयोंमें 'ये विषय अच्छे हैं, काममें आनेवाले हैं, जीवनमें उपयोगी हैं और सुख देनेवाले हैं'- ऐसी सम्यग्बुद्धिका होना 'संकल्प' है और 'ये विषय-पदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं, हानिकारक हैं'- ऐसी बुद्धिका होना 'विकल्प' है।
१-जहाँ दोनों पदोंका अर्थ प्रधान होता है, वहाँ 'द्वन्द्वसमास' होता है। यहाँ 'संकल्प' और 'काम' दोनों शब्द अपने-अपने अर्थमें प्रधान हैं। अतः यहाँ 'संकल्पाश्च कामाश्च'- ऐसा द्वन्द्वसमास होनेसे 'संकल्पकामाः'- ऐसा रूप बना। परन्तु द्वन्द्वसमासके जिस पदमें कम स्वर होते हैं, उसका पूर्वप्रयोग होता है। यहाँ भी 'काम' शब्दमें कम स्वर होनेसे उसका पूर्वप्रयोग हुआ है; अतः 'कामसंकल्पाः' - ऐसा रूप बना। अब 'कामसंकल्पैर्वर्जिताः' ऐसा तृतीया समास करनेपर पूरा पद 'कामसंकल्पवर्जिताः' बना।
ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धिमें होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है, तब 'ये विषय-पदार्थ हमें मिलने चाहिये, ये हमारे होने चाहिये' इस तरह अन्तःकरणमें उनको प्राप्त करनेकी जो इच्छा पैदा हो जाती है, उसका नाम 'काम' (कामना) है। कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें संकल्प और कामना-दोनों ही नहीं रहते अर्थात् उसमें न तो कामनाओंका कारण संकल्प रहता है और न संकल्पोंका कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे सब संकल्प और कामनासे रहित होते हैं।"
"संकल्प और कामना- ये दोनों कर्मके बीज हैं। संकल्प और कामना न रहनेपर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्म बाँधनेवाले नहीं होते। सिद्ध महापुरुषमें भी संकल्प और कामना न रहनेसे उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते। उसके द्वारा लोकसंग्रहार्थ, कर्तव्यपरम्परासुरक्षार्थ सम्पूर्ण कर्म होते हुए भी वह उन कर्मोंसे स्वतः सर्वथा निर्लिप्त रहता है।भगवान् ने कहींपर संकल्पोंका (छठे अध्यायका चौथा श्लोक), कहींपर कामनाओंका (दूसरे अध्यायका पचपनवाँ श्लोक) और कहींपर संकल्प तथा कामना- दोनोंका (छठे अध्यायका चौबीसवाँ-पचीसवाँ श्लोक) त्याग बताया है। अतः जहाँ केवल संकल्पोंका त्याग बताया गया है, वहाँ कामनाओंका और जहाँ केवल कामनाओंका त्याग बताया गया है, वहाँ संकल्पोंका त्याग भी समझ लेना चाहिये; क्योंकि संकल्प कामनाओंका कारण है और कामना संकल्पोंका कार्य है। तात्पर्य है कि साधकको सम्पूर्ण संकल्पों और कामनाओंका त्याग कर देना चाहिये।
मोटरकी चार अवस्थाएँ होती हैं-
१- मोटर गैरेजमें खड़ी रहनेपर न इंजन चलता है और न पहिये चलते हैं। २-मोटर चालू करनेपर इंजन तो चलने लगता है, पर पहिये नहीं चलते। ३- मोटरको वहाँसे रवाना करनेपर इंजन भी चलता है और पहिये भी चलते हैं । ४- निरापद ढलवाँ मार्ग आनेपर इंजनको बंद कर देते हैं और पहिये चलते रहते हैं। इसी प्रकार मनुष्यकी भी चार अवस्थाएँ होती हैं-
१-न कामना होती है और न कर्म होता है। २- कामना होती है, पर कर्म नहीं होता।"
"३-कामना भी होती है और कर्म भी होता है। ४-कामना नहीं होती और कर्म होता है।
मोटरकी सबसे उत्तम (चौथी) अवस्था यह है कि इंजन न चले और पहिये चलते रहें अर्थात् तेल भी खर्च न हो और रास्ता भी तय हो जाय। इसी तरह मनुष्यकी सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें। ऐसी अवस्थावाले मनुष्यको ज्ञानिजन भी पण्डित कहते हैं।
'समारम्भाः २ पदका यह भाव है कि कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषके द्वारा हरेक कर्म सुचारुरूपसे, सांगोपांग और तत्परतापूर्वक होता है।
२-यहाँ 'समारम्भाः' पद सिद्ध कर्मयोगीकी राग-द्वेषरहित सांगोपांग प्रवृत्तिका वाचक है, चौदहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें आये हुए 'आरम्भ' पदका वाचक नहीं है। कारण कि वहाँ 'प्रवृत्ति' और 'आरम्भ'- ये दो शब्द आये हैं; अतः वहाँ कर्तव्य-कर्मको करना 'प्रवृत्ति' है तथा भोग और संग्रहके उद्देश्यसे नये-नये कर्मोंको शुरू करना 'आरम्भ' है।
दूसरा एक भाव यह भी है कि उसके कर्म शास्त्रसम्मत होते हैं। उसके द्वारा करनेयोग्य कर्म ही होते हैं। जिससे किसीका अहित होता हो, वह कर्म उससे कभी नहीं होता।
'सर्वे' पदका यह भाव है कि उसके द्वारा होनेवाले सब-के-सब कर्म संकल्प और कामनासे रहित होते हैं। कोई-सा भी कर्म संकल्पसहित नहीं होता। प्रातः उठनेसे लेकर रातमें सोनेतक शौच- स्नान, खाना-पीना, पाठ-पूजा, जप-चिन्तन, ध्यान-समाधि आदि शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी सम्पूर्ण कर्म संकल्प और कामनासे रहित ही होते हैं।"
"ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्' - कर्मोंका सम्बन्ध 'पर' (शरीर- संसार) के साथ है, 'स्व' (स्वरूप) के साथ नहीं; क्योंकि कर्मोंका आरम्भ और अन्त होता है, पर स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है - इस तत्त्वको ठीक-ठीक जानना ही 'ज्ञान' है। इस ज्ञानरूप अग्निसे सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात् कर्मोंमें फल देनेकी (बाँधनेकी) शक्ति नहीं रहती (गीता- चौथे अध्यायका सोलहवाँ और बत्तीसवाँ श्लोक)।
वास्तवमें शरीर और क्रिया- दोनों संसारसे अभिन्न हैं; पर स्वयं सर्वथा भिन्न होता हुआ भी भूलसे इनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। जब महापुरुषका अपने कहलानेवाले शरीरके साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता, तब जैसे संसार-मात्रसे सब कर्म होते हैं, ऐसे ही उसके कहलानेवाले शरीरसे सब कर्म होते हैं। इस प्रकार कर्मोंसे निर्लिप्तताका अनुभव होनेपर उस महापुरुषके वर्तमान कर्म ही नष्ट नहीं होते, प्रत्युत संचित कर्म भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्ध-कर्म भी केवल अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें उसके सामने आकर नष्ट हो जाते हैं; परन्तु फलसे असंग होनेके कारण वह उनका भोक्ता नहीं बनता अर्थात् किंचिन्मात्र भी सुखी या दुःखी नहीं होता। इसलिये प्रारब्ध-कर्म भी अस्थायी परिस्थितिमात्र उत्पन्न करके नष्ट हो जाते हैं।
'तमाहुः पण्डितं बुधाः' - जो कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके परमात्मामें लगा हुआ है, उस मनुष्यको समझना तो सुगम है, पर जो कर्मोंसे किंचिन्मात्र भी लिप्त हुए बिना तत्परतापूर्वक कर्म कर रहा है, उसे समझना कठिन है। "
"सन्तोंकी वाणीमें आया है-
त्यागी शोभा जगतमें करता है सब कोय। हरिया गृहस्थी संतका भेदी बिरला होय ॥
तात्पर्य यह है कि संसारमें (बाहरसे त्याग करनेवाले) त्यागी पुरुषकी महिमा तो सब गाते हैं, पर गृहस्थमें रहकर सब कर्तव्य- कर्म करते हुए भी जो निर्लिप्त रहता है, उस (भीतरका त्याग करनेवाले) पुरुषको समझनेवाला कोई बिरला ही होता है।
जैसे कमलका पत्ता जलमें ही उत्पन्न होकर और जलमें रहते हुए भी जलसे लिप्त नहीं होता, ऐसे ही कर्मयोगी कर्मयोनि (मनुष्यशरीर) में ही उत्पन्न होकर और कर्ममय जगत् में रहकर कर्म करते हुए भी कर्मोंसे लिप्त नहीं होता।
१-निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते । प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलदायिनी ।।
(अष्टावक्रगीता १८। ६१)
'मूढ़ पुरुषकी निवृत्ति भी प्रवृत्तिको उत्पन्न करनेवाली होती है और ज्ञानी पुरुषकी प्रवृत्ति भी निवृत्ति-रूप फलको देनेवाली होती है।'
कर्मोंसे लिप्त न होना कोई साधारण बुद्धिमानीका काम नहीं है। पीछेके अठारहवें श्लोकमें भगवान् ने ऐसे कर्मयोगीको 'मनुष्योंमें बुद्धिमान्' कहा है और यहाँ कहा है कि उसे ज्ञानिजन भी पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् कहते हैं। भाव यह है कि ऐसा कर्मयोगी पण्डितोंका भी पण्डित, ज्ञानियोंका भी ज्ञानी है।
२-गृहेषु पण्डिताः केचित्केचिन्मूर्खेषु पण्डिताः । सभायां पण्डिताः केचित्केचित्पण्डितपण्डिताः ।।"
"फलासक्तिको त्यागकर कर्म करनेवालेकी प्रशंसा।
(श्लोक-२०) त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥
उच्चारण की विधि
त्यक्त्वा, कर्मफलासङ्गम्, नित्यतृप्तः, निराश्रयः, कर्मणि, अभिप्रवृत्तः, अपि, न, एव, किंचित्, करोति, सः ॥ २० ॥
कर्मफलासङ्गम् अर्थात् समस्त कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्ति का (सर्वथा), त्यक्त्वा अर्थात् त्याग करके, निराश्रयः अर्थात् संसारके आश्रयसे रहित हो गया है (और), नित्यतृप्तः अर्थात् परमात्मामें नित्य तृप्त है, सः अर्थात् वह, कर्मणि अर्थात् कर्मोंमें, अभिप्रवृत्तः अर्थात् भलीभाँति बरतता हुआ, अपि अर्थात् भी (वास्तवमें), किंचित् अर्थात् कुछ, एव अर्थात् भी, न अर्थात् नहीं, करोति अर्थात् करता।
अर्थ - जो पुरुष समस्त कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्तिका सर्वथा त्याग करके संसारके आश्रयसे रहित हो गया है और परमात्मामें नित्य तृप्त है, वह कर्मोंमें भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता ॥ २० ॥"
"व्याख्या- 'त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम्' - जब कर्म करते समय कर्ताका यह भाव रहता है कि शरीरादि कर्म-सामग्री मेरी है, मैं कर्म करता हूँ, कर्म मेरा और मेरे लिये है तथा इसका मेरेको अमुक फल मिलेगा, तब वह कर्मफलका हेतु बन जाता है। कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषको प्राकृत पदार्थोंसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेदका अनुभव हो जाता है, इसलिये कर्म करनेकी सामग्रीमें, कर्ममें तथा कर्मफलमें किंचिन्मात्र भी आसक्ति न रहनेके कारण वह कर्मफलका हेतु नहीं बनता।
सेना विजयकी इच्छासे युद्ध करती है। विजय होनेपर विजय सेनाकी नहीं, प्रत्युत राजाकी मानी जाती है; क्योंकि राजाने ही सेनाके जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध किया है; उसे युद्ध करनेकी सामग्री दी है और उसे युद्ध करनेकी प्रेरणा की है और सेना भी राजाके लिये ही युद्ध करती है। इसी प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्म-सामग्रीके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही जीव उनके द्वारा किये गये कर्मोंके फलका भागी होता है।
कर्म-सामग्रीके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न होनेके कारण महापुरुषका कर्मफलके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता।
वास्तवमें कर्मफलके साथ स्वरूपका सम्बन्ध है ही नहीं। कारण कि स्वरूप चेतन, अविनाशी और निर्विकार है; परन्तु कर्म और कर्मफल-दोनों जड तथा विकारी हैं और उनका आरम्भ तथा अन्त होता है। "
"सदा स्वरूपके साथ न तो कोई कर्म रहता है तथा न कोई फल ही रहता है। इस तरह यद्यपि कर्म और फलसे स्वरूपका कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि जीवने भूलसे उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धनका कारण है। अगर यह माना हुआ सम्बन्ध मिट जाय, तो कर्म और फलसे उसकी स्वतःसिद्ध निर्लिप्तताका बोध हो जाता है। 'निराश्रयः'- देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिका किंचिन्मात्र भी आश्रय न लेना ही 'निराश्रय' अर्थात् आश्रयसे रहित होना है। कितना ही बड़ा धनी, राजा-महाराजा क्यों न हो, उसको देश, काल आदिका आश्रय लेना ही पड़ता है। परन्तु कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुष देश, काल आदिका कोई आश्रय नहीं मानता। आश्रय मिले या न मिले- इसकी उसे किचिंन्मात्र भी परवाह नहीं होती। इसलिये वह निराश्रय होता है।
'नित्यतृप्तः'- जीव (आत्मा) परमात्माका सनातन अंश होनेसे सत्-स्वरूप है। सत् का कभी अभाव नहीं होता- 'नाभावो विद्यते सतः' (गीता २। १६) । परन्तु जब वह असत् के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब उसे अपनेमें अभाव अर्थात् कमीका अनुभव होने लगता है। उस कमीकी पूर्ति करनेके लिये वह सांसारिक वस्तुओंकी कामना करने लगता है। इच्छित वस्तुओंके मिलनेसे एक तृप्ति होती है; परन्तु वह तृप्ति ठहरती नहीं, वह क्षणिक होती है। "
"कारण कि संसारकी प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि प्रतिक्षण अभावकी ओर जा रही है; अतः उनके आश्रित रहनेवाली तृप्ति स्थायी कैसे रह सकती है? सत्-वस्तुकी तृप्ति असत् वस्तुसे हो ही कैसे सकती है? अतः जीव जबतक उत्पत्ति-विनाशशील क्रियाओं और पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध मानता है तथा उनके आश्रित रहता है, तबतक उसे स्वतः सिद्ध नित्यतृप्तिका अनुभव नहीं होता।
कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुष निराश्रय अर्थात् संसारके आश्रयसे सर्वथा रहित होता है, इसलिये उसे स्वतःसिद्ध नित्यतृप्तिका अनुभव हो जाता है। तीसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें 'आत्मतृप्तः' पदसे भी इसी नित्यतृप्तिकी बात आयी है।
'कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः' - 'अभिप्रवृत्तः' पदका तात्पर्य है कि कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषके द्वारा होनेवाले सब कर्म सांगोपांग रीतिसे होते हैं; क्योंकि कर्मफलमें उसकी किंचिन्मात्र भी आसक्ति नहीं होती। उसके सम्पूर्ण कर्म केवल संसारके हितके लिये होते हैं।
जिसकी कर्मफलमें आसक्ति होती है, वह सांगोपांग रीतिसे कर्म नहीं कर सकता, क्योंकि फलके साथ सम्बन्ध होनेसे कर्म करते हुए बीच-बीचमें फलका चिन्तन होनेसे उसकी शक्ति व्यर्थ खर्च हो जाती है, जिससे उसकी शक्ति पूरी तरह कर्म करनेमें नहीं लगती।"
"अपि' पदका तात्पर्य है कि सांगोपांग रीतिसे सब कर्म करते हुए भी वह वास्तवमें किंचिन्मात्र भी कोई कर्म नहीं करता; क्योंकि सर्वथा निर्लिप्त होनेके कारण कर्मका स्पर्श ही नहीं होता। उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं।
जब वह कुछ भी नहीं करता, तब वह कर्मफलसे बँध ही कैसे सकता है ? इसीलिये अठारहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान् ने कहा है कि कर्मफलका त्याग करनेवाले कर्मयोगीको कर्मोंका फल कहीं भी नहीं मिलता- 'न तु सन्न्यासिनां क्वचित्।'
प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है। अतः जबतक प्रकृतिके गुणों- (क्रिया और पदार्थ) से सम्बन्ध है, तबतक कर्म न करते हुए भी मनुष्यका कर्मोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है। प्रकृतिके गुणोंसे सम्बन्ध न रहनेपर मनुष्य कर्म करते हुए भी कुछ नहीं करता। कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका प्रकृतिजन्य गुणोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता, इसलिये वह लोकहितार्थ सब कर्म करते हुए भी वास्तवमें कुछ नहीं करता। परिशिष्ट भाव - जबतक मनुष्यमें कर्तृत्व है, तबतक वह करता है तो करता है, नहीं करता है तो करता है। परन्तु कर्तृत्व मिटनेपर वह कभी कुछ नहीं करता।
सम्बन्ध-उन्नीसवें बीसवें श्लोकोंमें कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषकी कर्मोंसे निर्लिप्तताका वर्णन करके अब भगवान् इक्कीसवें श्लोकमें निवृत्तिपरायण और बाईसवें श्लोकमें प्रवृत्तिपरायण कर्मयोगके साधककी कर्मोंसे निर्लिप्तताका वर्णन करते हैं।"
कल के श्लोक 21 और 22 में श्रीकृष्ण बताएंगे कि कैसे एक कर्मयोगी संतुष्टि और स्थिरता के साथ जीता है और हर परिस्थिति में शांत रहता है। इस शांति को पाने का मार्ग जानने के लिए जुड़े रहें।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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