ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 33 से 34 - ज्ञान यज्ञ और गुरु के महत्व का गहरा अर्थ
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आप जानना चाहते हैं कि कैसे सच्चा ज्ञान हमारे जीवन को बदल सकता है? आज हम जानेंगे कि क्यों श्रीकृष्ण ज्ञान यज्ञ को सभी यज्ञों में श्रेष्ठ मानते हैं!
कल के श्लोकों में हमने देखा कि श्रीकृष्ण ने यज्ञ के विभिन्न रूपों पर चर्चा की थी, जो हमें जीवन में संतुलन और समर्पण के मार्ग पर ले जाते हैं। आज हम ज्ञान यज्ञ के महत्व पर बात करेंगे।
"आज के श्लोक 33 और 34 में श्रीकृष्ण बताते हैं कि किस प्रकार ज्ञान यज्ञ सभी यज्ञों से श्रेष्ठ है।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप। सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
श्रीकृष्ण कहते हैं कि भौतिक यज्ञों से बढ़कर ज्ञान का यज्ञ है, क्योंकि इससे हमारी आत्मा का उत्थान होता है।
तद्विन्द्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥
सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनम्रता और समर्पण के साथ गुरु के पास जाना आवश्यक है। इस श्लोक में गुरु के प्रति आदर और ज्ञान प्राप्ति में विनम्रता की भूमिका बताई गई है।
इन श्लोकों में हमें बताया गया है कि सच्चा ज्ञान किसी भी भौतिक यज्ञ से श्रेष्ठ होता है और इसे पाने के लिए सही मार्गदर्शन और गुरु की आवश्यकता होती है।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 33 से 34"
"द्रव्ययज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञके श्रेष्ठत्वका कथन। (श्लोक-३३)
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्-ज्ञानयज्ञः परन्तप। सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।।
उच्चारण की विधि
श्रेयान्, द्रव्यमयात्, यज्ञात्, ज्ञानयज्ञः, परन्तप, सर्वम्, कर्म, अखिलम्, पार्थ, ज्ञाने, परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥
परन्तप अर्थात् पार्थ हे परंतप अर्जुन, द्रव्यमयात् अर्थात् द्रव्यमय, यज्ञात् अर्थात् यज्ञकी अपेक्षा, ज्ञानयज्ञः अर्थात् ज्ञानयज्ञ, श्रेयान् अर्थात् अत्यन्त श्रेष्ठ है (तथा), अखिलम् अर्थात् यावन्मात्र, सर्वम् अर्थात् सम्पूर्ण, कर्म अर्थात् कर्म, ज्ञाने अर्थात् ज्ञानमें, परिसमाप्यते अर्थात् समाप्त हो जाते हैं।
अर्थ - हे परंतप अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है, तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञानमें समाप्त हो जाते हैं॥ ३३ ॥"
"व्याख्या' श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप' - यज्ञोंमें द्रव्यों (पदार्थों) तथा कर्मोंकी आवश्यकता होती है, वे सब यज्ञ 'द्रव्यमय' होते हैं। 'द्रव्य' शब्दके साथ 'मय' प्रत्यय प्रचुरताके अर्थमें है। जैसे मिट्टीकी प्रधानतावाला पात्र 'मृन्मय' कहलाता है, ऐसे ही द्रव्यकी प्रधानतावाला यज्ञ 'द्रव्यमय' कहलाता है। ऐसे द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानयज्ञमें द्रव्य और कर्मकी आवश्यकता नहीं होती।
सभी यज्ञोंको भगवान् ने कर्मजन्य कहा है (चौथे अध्यायका बत्तीसवाँ श्लोक)। यहाँ भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्म ज्ञानयज्ञमें परिसमाप्त हो जाते हैं अर्थात् ज्ञानयज्ञ कर्मजन्य नहीं है, प्रत्युत विवेक-विचारजन्य है। अतः यहाँ जिस ज्ञानयज्ञकी बात आयी है, वह पूर्ववर्णित बारह यज्ञोंके अन्तर्गत आये ज्ञानयज्ञ (चौथे अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक) का वाचक नहीं है, प्रत्युत आगेके (चौंतीसवें) श्लोकमें वर्णित ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रक्रियाका वाचक है। पूर्ववर्णित बारह यज्ञोंका वाचक यहाँ 'द्रव्यमय यज्ञ' है। द्रव्यमय यज्ञ समाप्त करके ही ज्ञानयज्ञ किया जाता है।
अगर सूक्ष्मदृष्टिसे देखा जाय तो ज्ञानयज्ञ भी क्रियाजन्य ही है, परन्तु इसमें विवेक-विचारकी प्रधानता रहती है।
'सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते' - "
"सर्वम्' और 'अखिलम्'- दोनों शब्द पर्यायवाची हैं और उनका अर्थ 'सम्पूर्ण' होता है।
इसलिये यहाँ 'सर्वम् कर्म' का अर्थ सम्पूर्ण कर्म (मात्र कर्म) और 'अखिलम्' का अर्थ सम्पूर्ण द्रव्य (मात्र पदार्थ) लेना ही ठीक मालूम देता है।
जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तबतक उसका सम्बन्ध क्रियाओं और पदार्थोंसे बना रहता है। जबतक क्रियाओं और पदार्थोंसे सम्बन्ध रहता है, तभीतक अन्तःकरणमें अशुद्धि रहती है, इसलिये अपने लिये कर्म न करनेसे ही अन्तःकरण शुद्ध होता है।
अन्तःकरणमें तीन दोष रहते हैं- मल (संचित पाप), विक्षेप (चित्तकी चंचलता) और आवरण (अज्ञान)। अपने लिये कोई भी कर्म न करनेसे अर्थात् संसारमात्रकी सेवाके लिये ही कर्म करनेसे जब साधकके अन्तःकरणमें स्थित मल और विक्षेप- दोनों दोष मिट जाते हैं, तब वह ज्ञानप्राप्तिके द्वारा आवरण-दोषको मिटानेके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके गुरुके पास जाता है। उस समय वह कर्मों और पदार्थोंसे ऊँचा उठ जाता है अर्थात् कर्म और पदार्थ उसके लक्ष्य नहीं रहते, प्रत्युत एक चिन्मय तत्त्व ही उसका लक्ष्य रहता है। यही सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थोंका तत्त्वज्ञानमें समाप्त होना है।
ज्ञानप्राप्तिकी प्रचलित प्रक्रिया
शास्त्रोंमें ज्ञानप्राप्तिके आठ अन्तरंग साधन कहे गये हैं- "
"(१) विवेक, (२) वैराग्य, (३) शमादि षट्सम्पत्ति (शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा और समाधान), (४) मुमुक्षुता, (५) श्रवण, (६) मनन, (७) निदिध्यासन और (८) तत्त्वपदार्थसंशोधन। इनमें पहला साधन विवेक है। सत् और असत् को अलग-अलग जानना 'विवेक' कहलाता है। सत्-असत् को अलग-अलग जानकर असत् का त्याग करना अथवा संसारसे विमुख होना 'वैराग्य' है। इसके बाद शमादि षट्सम्पत्ति आती है। मनको इन्द्रियोंके विषयोंसे हटाना 'शम' है। इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाना 'दम' है। ईश्वर, शास्त्र आदिपर पूज्यभावपूर्वक प्रत्यक्षसे भी अधिक विश्वास करना 'श्रद्धा' है। वृत्तियोंका संसारकी ओरसे हट जाना 'उपरति' है। सरदी-गरमी आदि द्वन्द्वोंको सहना, उनकी उपेक्षा करना 'तितिक्षा' है। अन्तःकरणमें शंकाओंका न रहना 'समाधान' है। इसके बाद चौथा साधन है- मुमुक्षुता। संसारसे छूटनेकी इच्छा 'मुमुक्षुता' है।
मुमुक्षुता जाग्रत् होनेके बाद साधक पदार्थों और कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरुके पास जाता है। गुरुके पास निवास करते हुए शास्त्रोंको सुनकर तात्पर्यका निर्णय करना तथा उसे धारण करना 'श्रवण' है। श्रवणसे प्रमाणगत संशय दूर होता है। परमात्मतत्त्वका युक्ति-प्रयुक्तियोंसे चिन्तन करना 'मनन' है। मननसे प्रमेयगत संशय दूर होता है। संसारकी सत्ताको मानना और परमात्म- तत्त्वकी सत्ताको न मानना 'विपरीत भावना' कहलाती है। "
"विपरीत भावनाको हटाना 'निदिध्यासन' है। प्राकृत पदार्थमात्रसे सम्बन्ध- विच्छेद हो जाय और केवल एक चिन्मयतत्त्व शेष रह जाय-यह 'तत्त्वपदार्थसंशोधन' है। इसे ही तत्त्व-साक्षात्कार कहते हैं * ।
* जो सांसारिक भोग और संग्रहमें लगे हुए हैं, ऐसे मनुष्योंके द्वारा 'श्रवण' होता है शास्त्रोंका, 'मनन' होता है विषयोंका, 'निदिध्यासन' होता है रुपयोंका और 'साक्षात्कार' होता है दुःखोंका !
विचारपूर्वक देखा जाय तो इन सब साधनोंका तात्पर्य है- असाधन अर्थात् असत् के सम्बन्धका त्याग। त्याज्य वस्तु अपने लिये नहीं होती, पर त्यागका परिणाम (तत्त्वसाक्षात्कार) अपने लिये होता है।
परिशिष्ट भाव - द्रव्यमय यज्ञमें क्रिया तथा पदार्थकी मुख्यता है;
अतः वह करणसापेक्ष है। ज्ञानयज्ञमें विवेक-विचारकी मुख्यता है; अतः वह करणनिरपेक्ष है। इसलिये द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। ज्ञानयज्ञमें सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् तत्त्वज्ञान होनेपर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता; क्योंकि एक परमात्मतत्त्वके सिवाय अन्य सत्ता ही नहीं रहती।
सम्बन्ध-अर्जुन अपना कल्याण चाहते हैं; अतः कल्याणप्राप्तिके विभिन्न साधनोंका यज्ञरूपसे वर्णन करके अब भगवान् ज्ञानयज्ञके द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करते हैं।"
"तत्त्वज्ञान-हेतु ज्ञानवानोंकी शरण जानेका कथन।
(श्लोक-३४)
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।
उच्चारण की विधि
तत्, विद्धि, प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन, सेवया, उपदेक्ष्यन्ति, ते, ज्ञानम्, ज्ञानिनः, तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥
तत् अर्थात् उस ज्ञानको (तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियोंके पास जाकर), विद्धि अर्थात् समझ (उनको), प्रणिपातेन अर्थात् भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे (उनकी), सेवया अर्थात् सेवा करनेसे और कपट छोड़कर, परिप्रश्नेन अर्थात् सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे, ते अर्थात् वे, तत्त्वदर्शिनः अर्थात् परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले, ज्ञानिनः अर्थात् ज्ञानी महात्मा (तुझे उस), ज्ञानम् अर्थात् तत्त्वज्ञानका, उपदेश्यन्ति अर्थात् उपदेश करेंगे।
अर्थ - उस ज्ञानको तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियोंके पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे ॥ ३४ ॥"
"व्याख्या- 'तद्विद्धि' - अर्जुनने पहले कहा था कि युद्धमें स्वजनोंको मारकर मैं हित नहीं देखता (गीता - पहले अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक); इन आततायियोंको मारनेसे तो पाप ही लगेगा (गीता-पहले अध्यायका छत्तीसवाँ श्लोक)। युद्ध करनेकी अपेक्षा मैं भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह करना श्रेष्ठ समझता हूँ (गीता- दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)। इस तरह अर्जुन युद्धरूप कर्तव्य- कर्मका त्याग करना श्रेष्ठ मानते हैं; परन्तु भगवान् के मतानुसार ज्ञानप्राप्तिके लिये कर्मोंका त्याग करना आवश्यक नहीं है (गीता- तीसरे अध्यायका बीसवाँ और चौथे अध्यायका पंद्रहवाँ श्लोक)। इसीलिये यहाँ भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि अगर तू कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके ज्ञान प्राप्त करनेको ही श्रेष्ठ मानता है, तो तू किसी तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषके पास ही जाकर विधिपूर्वक ज्ञानको प्राप्त कर; मैं तुझे ऐसा उपदेश नहीं दूँगा।
वास्तवमें यहाँ भगवान् का अभिप्राय अर्जुनको ज्ञानी महापुरुषके पास भेजनेका नहीं, प्रत्युत उन्हें चेतानेका प्रतीत होता है। जैसे कोई महापुरुष किसीको उसके कल्याणकी बात कह रहा है, पर श्रद्धाकी कमीके कारण सुननेवालेको वह बात नहीं जँचती, तो वह महापुरुष उसे कह देता है कि तू किसी दूसरे महापुरुषके पास जाकर अपने कल्याणका उपाय पूछ; ऐसे ही भगवान् मानो यह कह रहे हैं कि अगर तुझे मेरी बात नहीं जँचती, तो तू किसी ज्ञानी महापुरुषके पास जाकर प्रचलित प्रणालीसे ज्ञान प्राप्त कर। "
"ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणाली है-कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके, जिज्ञासापूर्वक श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरुके पास जाकर विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करना।
१-आदौ स्ववर्णाश्रमवर्णिताः क्रियाः कृत्वा समासादितशुद्धमानसः । समाप्य तत्पूर्वमुपात्तसाधनः समाश्रयेत् सद्गुरुमात्मलब्धये ।।
(अध्यात्मरामायण, उत्तर० ५।७)
'सबसे पहले अपने-अपने वर्ण और आश्रमके लिये शास्त्रोंमें वर्णित क्रियाओंका यथावत् पालन करके चित्त शुद्ध हो जानेपर उन क्रियाओंका त्याग कर दे, फिर शम-दम आदि साधनोंसे सम्पन्न होकर आत्मज्ञानकी प्राप्तिके लिये सद्गुरुकी शरणमें जाय।'
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।
(मुण्डक० १।२।१२)
'उस ज्ञानको प्राप्त करनेके लिये वह जिज्ञासु साधक हाथमें समिधा लिये हुए विनयपूर्वक वेदशास्त्रोंके ज्ञाता और तत्त्वज्ञानी गुरुके पास जाय।'
आगे चलकर भगवान् ने अड़तीसवें श्लोकमें कहा है कि यही तत्त्वज्ञान तुझे अपना कर्तव्य-कर्म करते-करते (कर्मयोग सिद्ध होते ही) दूसरे किसी साधनके बिना स्वयं अपने-आपमें प्राप्त हो जायगा। उसके लिये किसी दूसरेके पास जानेकी जरूरत नहीं है। 'प्रणिपातेन'- ज्ञान-प्राप्तिके लिये गुरुके पास जाकर उन्हें साष्टांग दण्डवत्-प्रणाम करे। तात्पर्य यह कि गुरुके पास नीच पुरुषकी तरह रहे- 'नीचवत् सेवेत सद्गुरुम्', जिससे अपने शरीरसे गुरुका कभी निरादर, तिरस्कार न हो जाय। नम्रता, सरलता और जिज्ञासुभावसे उनके पास रहे और उनकी सेवा करे। "
"अपने- आपको उनके समर्पित कर दे; उनके अधीन हो जाय। शरीर और वस्तुएँ-दोनों उनके अर्पण कर दे। साष्टांग दण्डवत् - प्रणामसे अपना शरीर और सेवासे अपनी वस्तुएँ उनके अर्पण कर दे। 'सेवया'- शरीर और वस्तुओंसे गुरुकी सेवा करे। जिससे वे प्रसन्न हों, वैसा काम करे। उनकी प्रसन्नता प्राप्त करनी हो तो अपने-आपको सर्वथा उनके अधीन कर दे। उनके मनके, संकेतके, आज्ञाके अनुकूल काम करे। यही वास्तविक सेवा है।
सन्त-महापुरुषकी सबसे बड़ी सेवा है- उनके सिद्धान्तोंके अनुसार अपना जीवन बनाना। कारण कि उन्हें सिद्धान्त जितने प्रिय होते हैं, उतना अपना शरीर प्रिय नहीं होता। सिद्धान्तकी रक्षाके लिये वे अपने शरीरतकका सहर्ष त्याग कर देते हैं। इसलिये सच्चा सेवक उनके सिद्धान्तोंका दृढ़तापूर्वक पालन करता है।
लिये, 'परिप्रश्नेन' केवल परमात्मतत्त्वको जाननेके जिज्ञासुभावसे सरलता और विनम्रतापूर्वक गुरुसे प्रश्न करे। अपनी विद्वत्ता दिखानेके लिये अथवा उनकी परीक्षा करनेके लिये प्रश्न न करे।
मैं कौन हूँ? संसार क्या है? बन्धन क्या है? मोक्ष क्या है? परमात्मतत्त्वका अनुभव कैसे हो सकता है? मेरे साधनमें क्या-क्या बाधाएँ हैं? उन बाधाओंको कैसे दूर किया जाय ? तत्त्व समझमें क्यों नहीं आ रहा है? आदि-आदि प्रश्न केवल अपने बोधके लिये (जैसे-जैसे जिज्ञासा हो, वैसे-वैसे) करे। 'ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः' 'तत्त्वदर्शिनः' पदका तात्पर्य यह है कि उस महापुरुषको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो गया हो; "
"और 'ज्ञानिनः' पदका तात्पर्य यह है कि उन्हें वेदों तथा शास्त्रोंका अच्छी तरह ज्ञान हो। ऐसे तत्त्वदर्शी और ज्ञानी महापुरुषके पास जाकर ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
अन्तःकरणकी शुद्धिके अनुसार ज्ञानके अधिकारी तीन प्रकारके होते हैं- उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ। उत्तम अधिकारीको श्रवणमात्रसे तत्त्वज्ञान हो जाता है।
२-उत्तम अधिकारी वही है, जिसमें तत्त्वप्राप्तिकी लगन हो, जिसको तत्त्वप्राप्तिमें भविष्य अच्छा न लगे अर्थात् जो वर्तमानमें ही तत्काल तत्त्वप्राप्ति करना चाहता हो। मध्यम अधिकारीको श्रवण, मनन और निदिध्यासन करनेसे तत्त्वज्ञान होता है। कनिष्ठ अधिकारी तत्त्वको समझनेके लिये भिन्न- भिन्न प्रकारकी शंकाएँ किया करता है। उन शंकाओंका समाधान करनेके लिये वेदों और शास्त्रोंका ठीक-ठीक ज्ञान होना आवश्यक है; क्योंकि वहाँ केवल युक्तियोंसे तत्त्वको समझाया नहीं जा सकता। अतः यदि गुरु तत्त्वदर्शी हो, पर ज्ञानी न हो, तो वह शिष्यकी तरह- तरहकी शंकाओंका समाधान नहीं कर सकेगा। यदि गुरु शास्त्रोंका ज्ञाता हो, पर तत्त्वदर्शी न हो तो उसकी बातें वैसी ठोस नहीं होंगी, जिससे श्रोताको ज्ञान हो जाय। वह बातें सुना सकता है, पुस्तकें पढ़ा सकता है, पर शिष्यको बोध नहीं करा सकता। इसलिये गुरुका तत्त्वदर्शी और ज्ञानी- दोनों ही होना बहुत जरूरी है। 'उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम्'- महापुरुषको दण्डवत्-प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और उनसे सरलता पूर्वक प्रश्न करनेसे वे तुझे तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे-"
"इसका यह तात्पर्य नहीं है कि महापुरुषको इन सबकी अपेक्षा रहती है। वास्तवमें उन्हें प्रणाम, सेवा आदिकी किंचिन्मात्र भी भूख नहीं होती। यह सब कहनेका भाव है कि जब साधक इस प्रकार जिज्ञासा करता है और सरलतापूर्वक महापुरुषके पास जाकर रहता है, तब उस महापुरुषके अन्तःकरणमें उसके प्रति विशेष भाव पैदा होते हैं, जिससे साधकको बहुत लाभ होता है। यदि साधक इस प्रकार उनके पास न रहे, तो ज्ञान मिलनेपर भी वह उसे ग्रहण नहीं कर सकेगा।
'ज्ञानम्' पद यहाँ तत्त्वज्ञान अथवा स्वरूप-बोधका वाचक है। वास्तवमें ज्ञान स्वरूपका नहीं होता, प्रत्युत संसारका होता है। संसारका ज्ञान होते ही संसारसे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और स्वतःसिद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है। 'उपदेक्ष्यन्ति' पदका यह तात्पर्य है कि महापुरुष ज्ञानका उपदेश तो देते हैं, पर उससे साधकको बोध हो ही जाय, ऐसा निश्चित नहीं है। आगे उनतालीसवें श्लोकमें भगवान् ने कहा है कि श्रद्धावान् पुरुष ज्ञानको प्राप्त करता है- 'श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्।' कारण कि श्रद्धा अन्तःकरणकी वस्तु है; परन्तु प्रणाम, सेवा, प्रश्न आदि कपटपूर्वक भी किये जा सकते हैं। इसलिये यहाँ महापुरुषके द्वारा केवल ज्ञानका उपदेश देनेकी ही बात कही गयी है और उनतालीसवें श्लोकमें श्रद्धावान् साधकके द्वारा ज्ञान प्राप्त होनेकी बात कही गयी है।
सम्बन्ध - तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करके अब भगवान् आगेके तीन (पैंतीसवें, छत्तीसवें और सैंतीसवें) श्लोकोंमें तत्त्वज्ञानका वास्तविक माहात्म्य बताते हैं।"
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