ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 40 से 41 - विश्वास और समर्पण का महत्व



 "श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या आप जानते हैं कि ज्ञान की यात्रा में सबसे बड़ा अवरोध क्या है? संशय! आज के श्लोकों में श्रीकृष्ण इस पर गहराई से प्रकाश डालते हैं।

पिछले श्लोक 39 में हमने जाना था कि श्रद्धा और संयम से ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है। अब जानते हैं कि संशय कैसे हमारी प्रगति में बाधा डालता है।

"श्लोक 40 में श्रीकृष्ण कहते हैं:

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ अर्थात अज्ञानता, विश्वास की कमी और संशय से मनुष्य का पतन होता है।



श्लोक 41 में वे कहते हैं:

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥ अर्थात् जिस व्यक्ति ने ज्ञान से अपने संशयों को काट दिया है, वह आत्मा में स्थित होकर पूर्ण शांति प्राप्त करता है।


ये श्लोक हमें सिखाते हैं कि संशय को दूर कर, विश्वास और ज्ञान के साथ हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।"

"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 40 से 41"

"अज्ञ और संशयात्मा अश्रद्धालु पुरुषकी निन्दा ।


(श्लोक-४०)


अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥


उच्चारण की विधि


अज्ञः, च, अश्रद्दधानः, च, संशयात्मा, विनश्यति, न, अयम्, लोकः, अस्ति, न, परः, न, सुखम्, संशयात्मनः ॥ ४० ॥


अज्ञः अर्थात् विवेकहीन, च अर्थात् और, अश्रद्दधानः अर्थात् श्रद्धारहित, संशयात्मा अर्थात् संशययुक्त मनुष्य, विनश्यति अर्थात् परमार्थसे अवश्य भ्रष्ट हो जाता है (ऐसे), संशयात्मनः अर्थात् संशययुक्त मनुष्यके लिये, न अर्थात् न, अयम् अर्थात् यह, लोकः अर्थात् लोक, अस्ति है, न अर्थात् न, परः अर्थात् परलोक है, च अर्थात् और, न अर्थात् न, सुखम् अर्थात् सुख (ही है)। 


अर्थ - विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थसे अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्यके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है ॥ ४० ॥"

"व्याख्या' अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति'- जिस पुरुषका विवेक अभी जाग्रत् नहीं हुआ है तथा जितना विवेक जाग्रत् हुआ है, उसको महत्त्व नहीं देता और साथ ही जो अश्रद्धालु है, ऐसे संशययुक्त पुरुषका पारमार्थिक मार्गसे पतन हो जाता है। कारण कि संशययुक्त पुरुषकी अपनी बुद्धि तो प्राकृत - शिक्षारहित है और दूसरेकी बातका आदर नहीं करता, फिर ऐसे पुरुषके संशय कैसे नष्ट हो सकते हैं? और संशय नष्ट हुए बिना उसकी उन्नति भी कैसे हो सकती है ?


अलग-अलग बातोंको सुननेसे 'यह ठीक है अथवा वह ठीक है?'- इस प्रकार सन्देहयुक्त पुरुषका नाम संशयात्मा है। 


पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले साधकमें संशय पैदा होना स्वाभाविक है; क्योंकि वह किसी भी विषयको पढ़ेगा तो कुछ समझेगा और कुछ नहीं समझेगा। जिस विषयको कुछ नहीं समझते, उस विषयमें संशय पैदा नहीं होता और जिस विषयको पूरा समझते हैं, उस विषयमें संशय नहीं रहता। अतः संशय सदा अधूरे ज्ञानमें ही पैदा होता है, इसीको अज्ञान कहते हैं।


१-अज्ञानका अर्थ ज्ञानका अभाव नहीं है। अधूरे ज्ञानको पूरा ज्ञान मान लेना ही अज्ञान है। कारण कि परमात्माका ही अंश होनेसे जीवमें ज्ञानका सर्वथा अभाव हो ही नहीं सकता, केवल नाशवान् असत् की सत्ता मानकर उसे महत्त्व दे देता है, असत् को असत् मानकर भी असत् से विमुख नहीं होता- यही अज्ञान है। "

"इसलिये मनुष्यमें जितना ज्ञान है, यदि उस ज्ञानके अनुसार वह अपना जीवन बना ले, तो अज्ञान सर्वथा मिट जायगा और ज्ञान प्रकट हो जायगा। कारण कि अज्ञानकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं।


इसलिये संशयका उत्पन्न होना हानिकारक नहीं है, प्रत्युत संशयको बनाये रखना और उसे दूर करनेकी चेष्टा न करना ही हानिकारक है। संशयको दूर करनेकी चेष्टा न करनेपर वह संशय ही 'सिद्धान्त' बन जाता है। कारण कि संशय दूर न होनेपर मनुष्य सोचता है कि पारमार्थिक मार्गमें सब कुछ ढकोसला है और ऐसा सोचकर उसे छोड़ देता है तथा नास्तिक बन जाता है। परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है। इसलिये अपने भीतर संशयका रहना साधकको बुरा लगना चाहिये। संशय बुरा लगनेपर जिज्ञासा जाग्रत् होती है, जिसकी पूर्ति होनेपर संशय-विनाशक ज्ञानकी प्राप्ति होती है।


साधकका लक्षण है- खोज करना। यदि वह मन और इन्द्रियोंसे देखी बातको ही सत्य मान लेता है, तो वहीं रुक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता। साधकको निरन्तर आगे ही बढ़ते रहना चाहिये। जैसे रास्तेपर चलते समय मनुष्य यह न देखे कि कितने मील आगे आ गये, प्रत्युत यह देखे कि कितने मील अभी बाकी पड़े हैं, तब वह ठीक अपने लक्ष्यतक पहुँच जायगा। ऐसे ही साधक यह न देखे कि कितना जान लिया अर्थात् अपने जाने हुएपर सन्तोष न करे, प्रत्युत जिस विषयको अच्छी तरह नहीं जानता, उसे जाननेकी चेष्टा करता रहे।"

"इसलिये संशयके रहते हुए कभी सन्तोष नहीं होना चाहिये, प्रत्युत जिज्ञासा अग्निकी तरह दहकती रहनी चाहिये। ऐसा होनेपर साधकका संशय सन्त-महात्माओंसे अथवा ग्रन्थोंसे किसी-न-किसी प्रकारसे दूर हो ही जाता है। संशय दूर करनेवाला कोई न मिले तो भगवत्कृपासे उसका संशय दूर हो जाता है।


विशेष बात


जीवात्मा परमात्माका अंश है- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५। ७)। इसलिये जब उसमें अपने अंशी परमात्माको प्राप्त करनेकी भूख जाग्रत् होती है और उसकी पूर्ति न होनेका दुःख होता है, तब उस दुःखको भगवान् सह नहीं सकते। अतः उसकी पूर्ति भगवान् स्वतः करते हैं। ऐसे ही जब साधकको अपने भीतर स्थित संशयसे व्याकुलता या दुःख होता है, तब वह दुःख भगवान् को असह्य होता है। संशय दूर करनेके लिये भगवान् से प्रार्थना नहीं करनी पड़ती, प्रत्युत जिस संशयको लेकर साधकको दुःख हो रहा है, उस संशयको दूर करके भगवान् स्वतः उसका वह दुःख मिटा देते हैं। संशयात्मा पुरुषकी एक पुकार होती है, जो स्वतः भगवान् तक पहुँच जाती है।


संशयके कारण साधककी वास्तविक उन्नति रुक जाती है, इसलिये संशय दूर करनेमें ही उसका हित है। भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं- 'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता ५। २९), इसलिये जिस संशयको लेकर मनुष्य व्याकुल होता है और वह व्याकुलता उसे असह्य हो जाती है, तो भगवान् उस संशयको किसी भी रीति-उपायसे दूर कर देते हैं। 

"

"गलती यही होती है कि मनुष्य जितना जान लेता है, उसीको पूरा समझकर अभिमान कर लेता है कि मैं ठीक जानता हूँ। यह अभिमान महान् पतन करनेवाला हो जाता है।


'नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः' इस श्लोकमें ऐसे संशयात्मा मनुष्यका वर्णन है, जो 'अज्ञ' और 'अश्रद्धालु' है। तात्पर्य यह है कि भीतर संशय रहनेपर भी उस मनुष्यकी न तो अपनी विवेकवती बुद्धि है और न वह दूसरेकी बात ही मानता है। इसलिये उस संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है। उसके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।


२-कुछ श्रद्धा, कुछ दुष्टता, कुछ संशय, कुछ ज्ञान। घरका रहा न घाटका, ज्यों धोबीका श्वान ॥


संशयात्मा मनुष्यका इस लोकमें व्यवहार बिगड़ जाता है। कारण कि वह प्रत्येक विषयमें संशय करता है, जैसे- यह आदमी ठीक है या बेठीक है? यह भोजन ठीक है या बेठीक है? इसमें मेरा हित है या अहित है? आदि। उस संशयात्मा मनुष्यको परलोकमें भी कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती; क्योंकि कल्याणमें निश्चयात्मिका बुद्धिकी आवश्यकता होती है और संशयात्मा मनुष्य दुविधामें रहनेके कारण कोई एक निश्चय नहीं कर सकता; जैसे- जप करूँ या स्वाध्याय करूँ ? संसारका काम करूँ या परमात्मप्राप्ति करूँ ? आदि। भीतर संशय भरे रहनेके कारण उसके मनमें भी सुख-शान्ति नहीं रहती। इसलिये विवेकवती बुद्धि और श्रद्धाके द्वारा संशयको अवश्य ही मिटा देना चाहिये।"

"दो अलग-अलग बातोंको पढ़ने-सुननेसे संशय पैदा होता है। वह संशय या तो विवेक-विचारके द्वारा दूर हो सकता है या शास्त्र तथा सन्त-महापुरुषोंकी बातोंको श्रद्धापूर्वक माननेसे। इसलिये संशययुक्त पुरुषमें यदि अज्ञता है तो वह विवेक-विचारको बढ़ाये और यदि अश्रद्धा है तो श्रद्धाको बढ़ाये; क्योंकि इन दोनोंमेंसे किसी एकको विशेषतासे अपनाये बिना संशय दूर नहीं होता।


परिशिष्ट भाव - ज्ञान हो तो संशय मिट जाता है - 'ज्ञानसंछिन्नसंशयम्' (गीता ४। ४१) और श्रद्धा हो तो भी संशय मिट जाता है- 'श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्' (गीता ४। ३९)। परन्तु ज्ञान और श्रद्धा- ये दोनों ही न हों तो संशय नहीं मिट सकता। इसलिये जिस संशयात्मा मनुष्यमें न तो ज्ञान (विवेक) है और न श्रद्धा ही है अर्थात् जो न तो खुद जानता है और न दूसरेकी बात मानता है, उसका पतन हो जाता है।


सम्बन्ध - भगवान् ने तैंतीसवें श्लोकसे ज्ञानयोगका प्रकरण आरम्भ करते हुए ज्ञान-प्राप्तिका उपाय तथा ज्ञानकी महिमा बतायी। जो ज्ञान गुरुके पास रहकर उनकी सेवा आदि करनेसे होता है, वही ज्ञान कर्मयोगसे सिद्ध हुए मनुष्यको अपने-आप प्राप्त हो जाता है-ऐसा बताकर भगवान् ने ज्ञानप्राप्तिके पात्र-अपात्रका वर्णन करते हुए प्रकरणका उपसंहार किया।


अब प्रश्न होता है कि सिद्ध होनेके लिये कर्मयोगीको क्या करना चाहिये ? इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।"

"संशयरहित निष्काम कर्मयोगीकी कर्मबन्धनसे मुक्ति ।


(श्लोक-४१)


योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥


उच्चारण की विधि


योगसन्न्यस्तकर्माणम्, ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्, आत्मवन्तम्, न, कर्माणि, निबध्नन्ति, धनञ्जय ॥ ४१ ॥


धनञ्जय अर्थात् हे धनंजय!, योगसन्न्यस्तकर्माणम् अर्थात् जिसने कर्मयोगकी विधिसे समस्त कर्मोंका परमात्मामें अर्पण कर दिया है (और), ज्ञानसञ्छिन्न- संशयम् अर्थात् जिसने विवेकद्वारा समस्त संशयोंका नाश कर दिया है (ऐसे), आत्मवन्तम् अर्थात् वशमें किये हुए अन्तःकरणवाले पुरुषको, कर्माणि अर्थात् कर्म, न अर्थात् नहीं, निबध्नन्ति अर्थात् बाँधते ।


अर्थ - हे धनञ्जय ! जिसने कर्मयोगकी विधिसे समस्त कर्मोंका परमात्मामें अर्पण कर दिया है और जिसने विवेकद्वारा समस्त संशयोंका नाश कर दिया है, ऐसे वशमें किये हुए अन्तःकरणवाले पुरुषको कर्म नहीं बाँधते ॥ ४१ ॥"

"व्याख्या- 'योगसन्न्यस्तकर्माणम्' - शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो वस्तुएँ हमें मिली हैं और हमारी दीखती हैं, वे सब दूसरोंकी सेवाके लिये ही हैं, अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं। 

इस दृष्टिसे जब उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें (उनका ही मानकर) लगा दिया जाता है, तब कर्मों और वस्तुओंका प्रवाह संसारकी ओर ही हो जाता है और अपनेमें स्वतः सिद्ध समताका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार योग (समता) के द्वारा जिसने कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है, वह पुरुष 'योगसन्न्यस्तकर्मा' है।


जब कर्मयोगी कर्ममें अकर्म तथा अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् कर्म करते हुए अथवा न करते हुए दोनों अवस्थाओंमें नित्य- निरन्तर असंग रहता है, तब वही वास्तवमें 'योगसन्न्यस्तकर्मा' होता है।


'ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्'- मनुष्यके भीतर प्रायः ये संशय रहते हैं कि कर्म करते हुए ही कर्मोंसे अपना सम्बन्ध विच्छेद कैसे होगा ? अपने लिये कुछ न करें तो अपना कल्याण कैसे होगा ? आदि। परन्तु जब वह कर्मोंके तत्त्वको अच्छी तरह जान लेता है, तब उसके समस्त संशय मिट जाते हैं।


* कर्मोंके तत्त्वका वर्णन इसी अध्यायके सोलहवेंसे बत्तीसवें श्लोकतकके प्रकरणमें विशेषतासे हुआ है। इसमें भी अठारहवाँ श्लोक मुख्य है।


उसे इस बातका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि कर्मों और उनके फलोंका आदि और अन्त होता है, पर स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये कर्ममात्रका सम्बन्ध 'पर' (संसार) के साथ है, 'स्व' (स्वरूप) के साथ बिलकुल नहीं। "

"इस दृष्टिसे अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि अपना कल्याण दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ही होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं। 


'आत्मवन्तम्'- कर्मयोगीका उद्देश्य स्वरूपबोधको प्राप्त करनेका होता है, इसलिये वह सदा स्वरूपके परायण रहता है। उसके सम्पूर्ण कर्म संसारके लिये ही होते हैं। सेवा तो स्वरूपसे ही दूसरोंके लिये होती है, खाना-पीना, सोना-बैठना आदि जीवन- निर्वाहकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भी दूसरोंके लिये ही होती हैं; क्योंकि क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है, स्वरूपके साथ नहीं।


'न कर्माणि निबध्नन्ति'- अपने लिये कोई भी कर्म न करनेसे कर्मयोगीका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है अर्थात् वह सदाके लिये संसार-बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है (गीता-चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)।


कर्म स्वरूपसे बन्धनकारक हैं ही नहीं। कर्मोंमें फलेच्छा, ममता, आसक्ति और कर्तृत्वाभिमान ही बाँधनेवाला है।


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि ज्ञानके द्वारा संशयका नाश होता है और समताके द्वारा कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद होता है। अब आगेके श्लोकमें भगवान् ज्ञानके द्वारा अपने संशयका नाश करके समतामें स्थित होनेके लिये अर्जुनको आज्ञा देते हैं।"

कल के श्लोक में हम जानेंगे कि कैसे ज्ञान की तलवार से सभी संशयों को काटा जा सकता है। श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्म-ज्ञान का रहस्य उजागर करते हैं। इसे जरूर देखें।

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