ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 1 - कर्मयोग और संन्यास का गूढ़ रहस्य


 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या कर्मयोग बेहतर है या संन्यास? यह सवाल सिर्फ अर्जुन का नहीं, बल्कि हर आध्यात्मिक साधक का है। आज हम इस उलझन को सुलझाएंगे।

पिछले श्लोक में हमने देखा कि कैसे ज्ञान से जीवन के सबसे बड़े संशयों को दूर किया जा सकता है। आज हम अध्याय 5 के पहले श्लोक में अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच हुई बातचीत को समझेंगे।

"श्लोक 1 में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा:

'संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि। यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥'

अर्थ: अर्जुन कहते हैं, हे कृष्ण! आप मुझे कभी कर्मों का संन्यास अपनाने का सुझाव देते हैं और कभी कर्मयोग का। कृपया स्पष्ट करें कि इनमें से कौन सा अधिक श्रेयस्कर है।

यह श्लोक जीवन के उन पहलुओं को उजागर करता है, जहां हम कर्मों और त्याग के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश करते हैं।"

"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 1"

"


अथ पञ्चमोऽध्यायः


अवतरणिका


श्रीभगवान् ने चौथे अध्यायके तैंतीसवेंसे सैंतीसवें श्लोकतक कर्म तथा पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करके तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जाकर ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीकी प्रशंसा की और इसके लिये (चौथे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें) अर्जुनको आज्ञा दी। तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी इस प्रणालीमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके एकान्तमें परमात्मतत्त्वका मनन करना आवश्यक है। अर्जुनके मनमें पहले ही युद्धरूप कर्म न करनेका भाव था; क्योंकि वे अपना कल्याण चाहते थे और युद्धको पाप समझते थे। अतः अर्जुनने समझा कि भगवान् मेरे लिये इस प्रकार कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके ज्ञान-प्राप्तिके लिये साधन करनेको कहते हैं।


फिर चौथे अध्यायके ही अड़तीसवें श्लोकमें भगवान् ने कहा कि उसी तत्त्वज्ञानको साधक कर्मयोगके द्वारा अवश्य ही स्वयं अपने- आपमें प्राप्त कर लेता है। भाव यह है कि कर्मयोगके साधकको ज्ञान-प्राप्तिके लिये दूसरे साधनोंकी तथा तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जाकर निवास करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। इससे स्पष्ट ही तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिमें कर्मयोगकी विशेषरूपसे प्रशंसा हुई है।


इस प्रकार अर्जुनने चौथे अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीकी प्रशंसा सुनी और चौंतीसवें श्लोकमें 'विद्धि' पदसे उस प्रणालीसे ज्ञान प्राप्त करनेकी अपने लिये विशेष आज्ञा मानी। फिर अड़तीसवें और इकतालीसवें श्लोकमें कर्मयोगकी प्रशंसा सुनी। बयालीसवें श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनको 'योगमातिष्ठोत्तिष्ठ' पदसे कर्मयोगकी विधिसे युद्ध करनेकी आज्ञा दी। 


इस तरह ज्ञानयोग और कर्मयोग- दोनोंकी प्रशंसा सुनकर तथा दोनोंके लिये आज्ञा प्राप्त होनेपर अर्जुन यह निर्णय नहीं कर सके कि इन दोनोंमें कौन-सा साधन मेरे लिये श्रेष्ठ है। अतः इसका निर्णय भगवान् से करानेके उद्देश्यसे अर्जुन प्रश्न करते हैं।"

"सांख्ययोग और कर्मयोगकी श्रेष्ठताके सम्बन्धमें अर्जुनका प्रश्न।


(श्लोक-१)


अर्जुन उवाच


सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥


उच्चारण की विधि


सन्न्यासम्, कर्मणाम्, कृष्ण, पुनः, योगम्, च, शंससि, यत्, श्रेयः, एतयोः, एकम्, तत्, मे, ब्रूहि, सुनिश्चितम् ॥ १॥


कृष्ण अर्थात् हे कृष्ण ! (आप), कर्मणाम् अर्थात् कर्मोंके, सन्न्यासम् अर्थात् संन्यासकी, च अर्थात् और, पुनः अर्थात् फिर, योगम् अर्थात् कर्मयोगकी, शंससि अर्थात् प्रशंसा करते हैं (इसलिये), एतयोः अर्थात् इन दोनोंमेंसे, यत् अर्थात् जो, एकम् अर्थात् एक, मे अर्थात् मेरे लिये, सुनिश्चितम् अर्थात् भलीभाँति निश्चित, श्रेयः अर्थात् कल्याणकारक साधन (हो), तत् अर्थात् उसको, ब्रूहि अर्थात् कहिये।


अर्थ - अर्जुन बोले-हे कृष्ण! आप कर्मोंके संन्यासकी और फिर कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं। इसलिये इन दोनोंमेंसे जो एक मेरे लिये भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिये ॥ १॥"

"व्याख्या 'सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण' - कौटुम्बिक स्नेहके कारण अर्जुनके मनमें युद्ध न करनेका भाव पैदा हो गया था। इसके समर्थनमें अर्जुनने पहले अध्यायमें कई तर्क और युक्तियाँ भी सामने रखीं। उन्होंने युद्ध करनेको पाप बताया (गीता - पहले अध्यायका पैंतालीसवाँ श्लोक)। वे युद्ध न करके भिक्षाके अन्नसे जीवन- निर्वाह करनेको श्रेष्ठ समझने लगे (दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) और उन्होंने निश्चय करके भगवान् से स्पष्ट कह भी दिया कि मैं किसी भी स्थितिमें युद्ध नहीं करूँगा (दूसरे अध्यायका नवाँ श्लोक)। 


प्रायः वक्ताके शब्दोंका अर्थ श्रोता अपने विचारके अनुसार लगाया करते हैं। स्वजनोंको देखकर अर्जुनके हृदयमें जो मोह पैदा हुआ, उसके अनुसार उन्हें युद्धरूप कर्मके त्यागकी बात उचित प्रतीत होने लगी। अतः भगवान् के शब्दोंको वे अपने विचारके अनुसार समझ रहे हैं कि भगवान् कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके प्रचलित प्रणालीके अनुसार तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी ही प्रशंसा कर रहे हैं।


'पुनर्योगं च शंससि' - चौथे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें भगवान् ने कर्मयोगीको दूसरे किसी साधनके बिना अवश्यमेव तत्त्वज्ञान प्राप्त होनेकी बात कही है। उसीको लक्ष्य करके अर्जुन भगवान् से कह रहे हैं कि कभी तो आप ज्ञानयोगकी प्रशंसा (चौथे अध्यायका तैंतीसवाँ श्लोक) करते हैं और कभी कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं (चौथे अध्यायका इकतालीसवाँ श्लोक)। 


'यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्' - इसी तरहका प्रश्न अर्जुनने दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें भी 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' पदोंसे किया था। उसके उत्तरमें भगवान् ने दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें-अड़तालीसवें श्लोकोंमें कर्मयोगकी व्याख्या करके उसका आचरण करनेके लिये कहा। "

"फिर तीसरे अध्यायके दूसरे श्लोकमें अर्जुनने 'तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्' पदोंसे पुनः अपने कल्याणकी बात पूछी, जिसके उत्तरमें भगवान् ने तीसरे अध्यायके तीसवें श्लोकमें निष्काम, निर्मम और निःसंताप होकर युद्ध करनेकी आज्ञा दी तथा पैंतीसवें श्लोकमें अपने धर्मका पालन करनेको श्रेयस्कर बताया।


यहाँ उपर्युक्त पदोंसे अर्जुनने जो बात पूछी है, उसके उत्तरमें भगवान् ने कहा है कि कर्मयोग श्रेष्ठ है (पाँचवें अध्यायका दूसरा श्लोक), कर्मयोगी सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक), कर्मयोगके बिना सांख्ययोगका साधन सिद्ध होना कठिन है; परन्तु कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है (पाँचवें अध्यायका छठा श्लोक)। इस प्रकार कहकर भगवान् अर्जुनको मानो यह बता रहे हैं कि कर्मयोग ही तेरे लिये शीघ्रता और सुगमतापूर्वक ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाला है; अतः तू कर्मयोगका ही अनुष्ठान कर।


अर्जुनके मनमें मुख्यरूपसे अपने कल्याणकी ही इच्छा थी। इसलिये वे बार-बार भगवान् के सामने श्रेयविषयक जिज्ञासा रखते हैं (दूसरे अध्यायका सातवाँ, तीसरे अध्यायका दूसरा और पाँचवें अध्यायका पहला श्लोक)। कल्याणकी प्राप्तिमें इच्छाकी प्रधानता है। साधनकी सफलतामें देरीका कारण भी यही है कि कल्याणकी इच्छा पूरी तरह जाग्रत् नहीं हुई। जिन साधकोंमें तीव्र वैराग्य नहीं है, वे भी कल्याणकी इच्छा जाग्रत् होनेपर कर्मयोगका साधन सुगमतापूर्वक कर सकते हैं।


* योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।


तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ।।"

"(श्रीमद्भा० ११।२०।६-७) अर्जुनके हृदय में भोगोंसे पूरा वैराग्य नहीं है, पर उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है, इसलिये वे कर्मयोगके अधिकारी हैं।


पहले अध्यायके बत्तीसवें तथा दूसरे अध्यायके आठवें श्लोकको देखनेसे पता लगता है कि अर्जुन मृत्युलोकके राज्यकी तो बात ही क्या है, त्रिलोकीका राज्य भी नहीं चाहते। परन्तु वास्तवमें अर्जुन राज्य तथा भोगोंको सर्वथा नहीं चाहते हों, ऐसी बात भी नहीं है। वे कहते हैं कि युद्धमें कुटुम्बीजनोंको मारकर राज्य तथा विजय नहीं चाहता। इसका तात्पर्य है कि यदि कुटुम्बीजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो मैं उसे लेनेको तैयार हूँ। दूसरे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें अर्जुन यही कहते हैं कि गुरुजनोंको मारकर भोग भोगना ठीक नहीं है। इससे यह ध्वनि भी निकलती है कि गुरुजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो वह स्वीकार है। दूसरे अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुन कहते हैं कि कौन जीतेगा- इसका हमें पता नहीं और उन्हें मारकर हम जीना भी नहीं चाहते। इसका तात्पर्य है कि यदि हमारी विजय निश्चित हो तथा उनको मारे बिना राज्य मिलता हो तो मैं लेनेको तैयार हूँ। आगे दूसरे अध्यायके सैंतीसवें श्लोकमें भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तेरे तो दोनों हाथोंमें लड्डू हैं; यदि युद्धमें तू मारा गया तो तुझे स्वर्ग मिलेगा और जीत गया तो राज्य मिलेगा। यदि अर्जुनके मनमें स्वर्ग और संसारके राज्यकी किंचिन्मात्र भी इच्छा नहीं होती तो भगवान् शायद ही ऐसा कहते। अतः अर्जुनके हृदयमें प्रतीत होनेवाला वैराग्य वास्तविक नहीं है। परन्तु उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है, जो इस श्लोकमें भी दिखायी दे रही है।


सम्बन्ध-अब भगवान् अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हैं।"

कल हम श्लोक 2 पर चर्चा करेंगे, जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को इन दोनों रास्तों के महत्व और सही विकल्प का मार्गदर्शन देंगे। इसे मिस न करें।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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