ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 29 - ध्यान और मोक्ष का मार्ग



"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका आज के विशेष एपिसोड में, जहां हम भगवद गीता के अध्याय 5 के श्लोक 29 की गहराई में उतरेंगे। जानेंगे कि कैसे यह श्लोक हमें ध्यान और मोक्ष का रास्ता दिखाता है।


पिछले एपिसोड में हमने श्लोक 27 और 28 पर चर्चा की थी, जिसमें ध्यान और इंद्रिय-नियंत्रण के महत्त्व पर जोर दिया गया था।


आज हम चर्चा करेंगे श्लोक 29 की। भगवान श्रीकृष्ण ने इसे 'मोक्ष प्राप्ति का सार' बताया है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि ध्यान और भक्ति के माध्यम से कैसे परम आनंद प्राप्त कर सकते हैं।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 29"

"(श्लोक-२९)


प्रभावसहित परमेश्वरको जाननेसे शान्तिकी प्राप्ति।


भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥


उच्चारण की विधि - भोक्तारम्, यज्ञतपसाम्, सर्वलोकमहेश्वरम्, सुहृदम्, सर्वभूतानाम्, ज्ञात्वा, माम्, शान्तिम्, ऋच्छति ॥ २९ ॥


माम् अर्थात् मुझको, यज्ञतपसाम् अर्थात् सब यज्ञ और तपोंका, भोक्तारम् अर्थात् भोगनेवाला, सर्वलोकमहेश्वरम् अर्थात् सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर (तथा), सर्वभूतानाम् अर्थात् सम्पूर्ण भूतप्राणियोंका, सुहृदम् अर्थात् सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, (ऐसा), ज्ञात्वा अर्थात् तत्त्वसे जानकर, शान्तिम् अर्थात् शान्तिको, ऋच्छति अर्थात् प्राप्त होता है।


अर्थ - मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपोंका भोगनेवाला, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है ॥ २९ ॥"

"व्याख्या- 'भोक्तारं यज्ञतपसाम्'- जब मनुष्य कोई शुभ कर्म करता है, तब वह जिनसे शुभ कर्म करता है, उन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिको अपना मानता है और जिसके लिये शुभ कर्म करता है, उसे उस कर्मका भोक्ता मानता है; जैसे- किसी देवताकी पूजा की तो उस देवताको पूजारूप कर्मका भोक्ता मानता है; किसीकी सेवा की तो उसे सेवारूप कर्मका भोक्ता मानता है; किसी भूखे व्यक्तिको अन्न दिया तो उसे अन्नका भोक्ता मानता है, आदि। इस मान्यताको दूर करनेके लिये भगवान् उपर्युक्त पदोंमें कहते हैं कि वास्तवमें सम्पूर्ण शुभ कर्मोंका भोक्ता मैं ही हूँ। कारण कि प्राणिमात्रके हृदयमें भगवान् ही विद्यमान हैं*।


* 'हृदि सर्वस्य विष्ठितम्' (गीता १३। १७), 'सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः' (गीता १५। १५), 'ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति' (गीता १८। ६१) ।


इसलिये किसीका पूजन करना, किसीको अन्न-जल देना, किसीको मार्ग बताना आदि जितने भी शुभ कर्म हैं, उन सबका भोक्ता भगवान् को ही मानना चाहिये। लक्ष्य भगवान् पर ही रहना चाहिये, प्राणीपर नहीं।


नवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भी भगवान् ने अपनेको सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता बताया है- 'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता।'


दूसरी बात यह है कि जिनसे शुभ कर्म किये जाते हैं, वे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने नहीं हैं, प्रत्युत भगवान् के हैं। उनको अपना मानना भूल ही है। उनको अपना मानकर अपने लिये शुभ कर्म करनेसे मनुष्य स्वयं उन कर्मोंका भोक्ता बन जाता है।  "

"अतः भगवान् कहते हैं कि तुम सम्पूर्ण शुभ कर्मोंको अपने लिये कभी मत करो, केवल मेरे लिये ही करो। ऐसा करनेसे तुम उन कर्मोंके फलभागी नहीं बनोगे और तुम्हारा कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद हो जायगा। कामनासे ही सम्पूर्ण अशुभ कर्म होते हैं। कामनाका त्याग करके केवल भगवान् के लिये ही सब कर्म करनेसे अशुभ कर्म तो स्वरूपसे ही नहीं होते तथा शुभ कर्मोंसे अपना सम्बन्ध नहीं रहता। इस प्रकार सम्पूर्ण कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है।


'सर्वलोकमहेश्वरम्' - भिन्न-भिन्न लोकोंके भिन्न-भिन्न ईश्वर हो सकते हैं; किन्तु वे भी भगवान् के अधीन ही हैं। भगवान् सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं, इसलिये यहाँ 'सर्वलोकमहेश्वरम्' पद दिया गया है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण सृष्टिके एकमात्र स्वामी भगवान् ही हैं, फिर कोई ईमानदार व्यक्ति सृष्टिकी किसी भी वस्तुको अपनी कैसे मान सकता है ?


शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, स्त्री, पुत्र, धन, जमीन, मकान आदिको अपने मानते हुए प्रायः लोग कहा करते हैं कि भगवान् ही सारे संसारके मालिक हैं। परन्तु ऐसा कहना समझदारी नहीं है; क्योंकि मनुष्य जबतक शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिको अपने मानता है, तबतक भगवान् को सारे संसारका स्वामी कहना अपने-आपको धोखा देना ही है। कारण कि यदि सभी लोग शरीरादि पदार्थोंको अपने-अपने ही मानते रहें तो बाकी क्या रहा, जिसके स्वामी भगवान् कहलायें ? अर्थात् भगवान् के हिस्सेमें कुछ नहीं बचा।"

"इसलिये 'सब कुछ भगवान् का है' - ऐसा वही कह सकता है, जो शरीरादि किसी भी पदार्थको अपना नहीं मानता। जो किसी भी वस्तुको अपनी मानता है, वह वास्तवमें भगवान् को यथार्थरूपसे सर्वलोकमहेश्वर मानता ही नहीं। वह जितनी वस्तुओंको अपनी मानता है, उतने अंशमें भगवान् को सर्वलोकमहेश्वर माननेमें कमी रहती है।


मनुष्यको शरीरादि पदार्थोंका सदुपयोग करनेका ही अधिकार है, अपने माननेका बिलकुल नहीं। इन पदार्थोंको अपने न मानकर केवल भगवान् के ही मानते हुए उन्हींकी सेवामें लगा देनेसे परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है।


'सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति' - जो सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं, वे बिना कारण स्वाभाविक ही प्राणिमात्रका हित करनेवाले, प्राणिमात्रकी रक्षा करनेवाले तथा प्राणिमात्रसे प्रेम करनेवाले हैं और ऐसा हितैषी, रक्षक तथा प्रेमी दूसरा कोई नहीं है- इस प्रकार जान लेनेसे परमशान्ति प्राप्त हो जाती है; क्योंकि वे वास्तवमें ऐसे ही हैं।


१-यहाँ जाननेका अर्थ है- दृढ़तापूर्वक मानना। मानना जाननेसे कमजोर नहीं होता। इसलिये दृढ़तासे मान लेना भी जानना ही है।


महान् शक्तिशाली भगवान् बिना किसी प्रयोजनके हमारे परम सुहृद् हैं, फिर भय, चिन्ता, उद्वेग, अशान्ति आदि कैसे हो सकते हैं ?


जीवमात्रका बिना कारण हित करनेवाले दो ही हैं- भगवान् और उनके भक्त।


२-हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥


(मानस ७। ४७।३) 


भगवान् को किसीसे कुछ भी पाना है ही नहीं - 'नानवाप्तमवाप्तव्यम्' (गीता ३। २२), "

"इसलिये वे स्वाभाविक ही सबके सुहृद् हैं। भक्त भी अपने लिये किसीसे कुछ भी नहीं चाहता और सबका हित चाहता तथा हित करता है, इसलिये वह भी सबका सुहृद् होता है- 'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भा० ३। २५। २१)। भक्तोंमें जो सुहृत्ता आती है, वह भी मूलतः भगवान् से ही आती है।


भगवान् सम्पूर्ण यज्ञों और तपोंके भोक्ता हैं, सम्पूर्ण लोकोंके महान् ईश्वर हैं तथा हमारे परम सुहृद् हैं- इन तीनों बातोंमें से अगर एक बात भी दृढ़तासे मान लें, तो भगवत्प्राप्तिरूप परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है, फिर तीनों ही बातें मान लें तो कहना ही क्या है!


अपने लिये कुछ भी चाहना, किसी भी वस्तुको अपनी मानना और भगवान् को अपना न मानना - ये तीनों बातें भगवत्प्राप्तिमें मुख्य बाधक हैं। भगवान् 'भोक्तारं यज्ञतपसाम्' पदोंसे कहते हैं कि अपने लिये कुछ भी न चाहे और कुछ भी न करे; 'सर्वलोकमहेश्वरम्' पदसे कहते हैं कि अपना कुछ भी न माने अर्थात् सुखकी इच्छाका और वस्तु-व्यक्तियोंके आधिपत्यका त्याग कर दे तथा 'सुहृदं सर्वभूतानाम्' पदोंसे कहते हैं कि केवल मेरेको ही अपना माने, अन्य किसी वस्तु-व्यक्ति आदिको अपना न माने। इन तीनोंमेंसे एक बात भी मान लेनेसे शेष बातें स्वतः आ जाती हैं और भगवत्प्राप्ति हो जाती है।


अपने लिये सुखकी इच्छाका त्याग तभी होता है, जब मनुष्य किसी भी प्राणी-पदार्थको अपना न माने। जबतक किसी भी पदार्थको अपना मानता है, तबतक वह बदलेमें सुख चाहेगा ही। सुखकी इच्छाके त्यागसे ममताका त्याग और ममताके त्यागसे सुखकी इच्छाका त्याग होता है।"

"जब सब वस्तु-व्यक्तियोंमें ममताका त्याग हो जाता है, तब एकमात्र भगवान् ही अपने रह जाते हैं। जो किसीको भी अपना मानता है, वह वास्तवमें भगवान् को सर्वथा अपना नहीं मानता, कहनेको चाहे कहता रहे कि भगवान् मेरे हैं।


माने हुए सम्बन्धका अभाव होनेसे भगवान् से अपनी सच्ची आत्मीयता जाग्रत् हो जाती है। तात्पर्य यह निकला कि चाहे सुखकी इच्छाका त्याग हो जाय, चाहे ममताका अभाव हो जाय और चाहे भगवान् में सच्ची आत्मीयता हो जाय; इसके होते ही परमशान्तिका अनुभव हो जायगा। कारण कि एक भी भाव दृढ़ होनेपर अन्य भाव भी साथमें आ ही जाते हैं।


एक तो कर्म करना चाहिये और दूसरा, कर्म करनेकी विद्या आनी चाहिये। जब मनुष्य कर्म तो करता है, पर कर्म करनेकी विद्या नहीं जानता अथवा कर्म करनेकी विद्या तो जानता है, पर कर्म नहीं करता, तब उसके द्वारा सुचारुरूपसे कर्म नहीं होते। इसलिये भगवान् ने तीसरे अध्यायमें कर्म करनेपर विशेष जोर दिया है, पर साथमें कर्मोंको जाननेकी बात भी कही है; और चौथे अध्यायमें कर्मोंका तत्त्व 

जाननेपर विशेष जोर दिया है, और साथमें कर्म करनेकी बात भी कही है। पाँचवें अध्यायमें यद्यपि कर्मयोग और सांख्ययोग-दोनोंके द्वारा कल्याण होनेकी बात आयी है, तथापि भगवान् ने सांख्ययोगकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ बताया है। इस अध्यायमें भगवान् ने क्रमपूर्वक कर्मयोग और सांख्ययोगका वर्णन करके फिर संक्षेपसे ध्यानयोगका वर्णन किया और अन्तमें संक्षेपसे भक्तियोगका वर्णन किया, 

जो भगवान् का मुख्य ध्येय है।"

"ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यासयोगो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ हरिः ॐ तत्सत् हरिः ॐ तत्सत् हरिः ॐ तत्सत् 


इस प्रकार ॐ, तत्, सत् - इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप योगशास्त्रमय श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें 'कर्मसन्न्यासयोग' नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५॥


कर्मयोग और सांख्ययोग- दोनोंका वर्णन होनेसे इस पाँचवें अध्यायका नाम 'कर्मसंन्यासयोग' है। 


पाँचवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच


(१) इस अध्यायमें 'अथ पञ्चमोऽध्यायः' के तीन, 'अर्जुन उवाच' आदि पदोंके चार, श्लोकोंके तीन सौ बावन और पुष्पिकाके तेरह पद हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण पदोंका योग तीन सौ बहत्तर है।


(२) इस अध्यायमें 'अथ पञ्चमोऽध्यायः' के सात, 'अर्जुन उवाच' आदि पदोंके तेरह, श्लोकोंके नौ सौ अट्ठाईस और पुष्पिकाके अड़तालीस अक्षर हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण अक्षरोंका योग नौ सौ छियानबे है। इस अध्यायके सभी श्लोक बत्तीस अक्षरोंके हैं।


(३) इस अध्यायमें दो 'उवाच' हैं- एक 'अर्जुन उवाच' और एक 'श्रीभगवानुवाच ।'


पाँचवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द


इस अध्यायके उनतीस श्लोकोंमेंसे- तेरहवें और उनतीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें 'नगण' प्रयुक्त होनेसे 'न- विपुला'; और बाईसवें श्लोकके तृतीय चरणमें 'मगण' प्रयुक्त होनेसे 'म-विपुला' संज्ञावाले छन्द हैं। शेष छब्बीस श्लोक ठीक 'पथ्यावक्त्र' अनुष्टुप् छन्दके लक्षणोंसे युक्त हैं।"

कल के एपिसोड में हम अध्याय 6 के श्लोक 1 की चर्चा करेंगे, जिसमें कर्मयोग और ध्यानयोग के समन्वय को समझाया गया है।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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