ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 10 - ध्यान का महत्व
"नमस्कार मित्रों, स्वागत है आपका भगवद्गीता के अद्भुत ज्ञान की इस यात्रा में। आज हम अध्याय 6, श्लोक 10 पर चर्चा करेंगे। यह श्लोक ध्यान और साधना के महत्व को समझाता है। तो चलिए शुरू करते हैं।
पिछले वीडियो में हमने देखा कि किस तरह से निष्काम कर्म एक साधक के लिए महत्वपूर्ण है।
श्रीकृष्ण यहाँ बता रहे हैं कि जो साधक ध्यान में स्थिर है, वह बाहरी आकर्षणों से मुक्त होकर आत्मा में लीन रहता है।"
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श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 10"
"ध्यानयोगका साधन करनेके लिये प्रेरणा। (श्लोक-१०)
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
उच्चारण की विधि - योगी, युञ्जीत, सततम्, आत्मानम्, रहसि, स्थितः, एकाकी, यतचित्तात्मा, निराशीः, अपरिग्रहः ॥ १० ॥
शब्दार्थ - यतचित्तात्मा अर्थात् मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें रखनेवाला, निराशीः अर्थात् आशारहित (और), अपरिग्रहः अर्थात् संग्रहरहित, योगी अर्थात् योगी, एकाकी अर्थात् अकेला ही, रहसि अर्थात् एकान्त स्थानमें, स्थितः अर्थात् स्थित होकर, आत्मानम् अर्थात् आत्माको, सततम् अर्थात् निरन्तर (परमात्मामें), युञ्जीत अर्थात् लगावे।
अर्थ - मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें रखनेवाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकान्त स्थानमें स्थित होकर आत्माको निरन्तर परमात्मामें लगावे ॥ १० ॥"
"व्याख्या [पाँचवें अध्यायके सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकोंमें जिस ध्यानयोगका संक्षेपसे वर्णन किया था, अब यहाँ उसीका विस्तारसे वर्णन कर रहे हैं।
'युज् समाधौ' धातुसे जो 'योग' शब्द बनता है, जिसका अर्थ चित्तवृत्तियोंका निरोध करना है, उस योगका वर्णन यहाँ दसवें श्लोकसे आरम्भ करते हैं।]
१-'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' (पातंजलयोगदर्शन १।२)
'अपरिग्रहः ' - चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगका साधन संसारमात्रसे विमुख होकर और केवल परमात्माके सम्मुख होकर किया जाता है। अतः उसके लिये पहला साधन बताते हैं-'अपरिग्रहः' अर्थात् अपने लिये सुखबुद्धिसे कुछ भी संग्रह न करे। कारण कि अपने सुखके लिये भोग और संग्रह करनेसे उसमें मनका खिंचाव रहेगा, जिससे साधकका मन ध्यानमें नहीं लगेगा। अतः ध्यानयोगके साधकके लिये अपरिग्रह होना जरूरी है।
'निराशीः '२- पहले 'अपरिग्रहः' पदसे बाहरके भोग- पदार्थोंका त्याग बताया, अब 'निराशीः' पदसे भीतरकी भोग और संग्रहकी इच्छाका त्याग करनेके लिये कहते हैं।
२-' आशिष्' नाम इच्छाका है और 'निस्' नाम रहित होनेका है; अतः 'निराशीः' का अर्थ हुआ- इच्छासे रहित होना।
तात्पर्य यह है कि भीतरमें किसी भी भोगको भोगबुद्धिसे भोगनेकी इच्छा, कामना, आशा न रखे। कारण कि मनमें उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंका महत्त्व, आशा, कामना परमात्मप्राप्तिमें महान् बाधक है। अतः इसमें साधकको सावधान रहना चाहिये।"
"यतचित्तात्मा'- बाहरसे अपने सुखके लिये पदार्थ और संग्रहका त्याग तथा भीतरसे उनकी कामना-आशाका त्याग होनेपर भी अन्तःकरण आदिमें नया राग होनेकी सम्भावना रहती है, अतः यहाँ तीसरा साधन बताते हैं- 'यतचित्तात्मा' अर्थात् साधक अन्तःकरणसहित शरीरको वशमें रखनेवाला हो। इनके वशमें होनेपर फिर नया राग पैदा नहीं होगा। इनको वशमें करनेका उपाय है- कोई भी नया काम रागपूर्वक न करे। कारण कि रागपूर्वक प्रवृत्ति होनेसे शरीरकी आराम-आलस्यमें, इन्द्रियोंकी भोगोंमें और मनकी भोगोंके चिन्तनमें अथवा व्यर्थ चिन्तनमें प्रवृत्ति होती है, इसलिये अन्तःकरण और शरीरको वशमें करनेकी बात कही गयी है।
'योगी' - जिसका ध्येय, लक्ष्य केवल परमात्मामें लगनेका ही है अर्थात् जो परमात्मप्राप्तिके लिये ही ध्यानयोग करनेवाला है, सिद्धियों और भोगोंकी प्राप्तिके लिये नहीं, उसको यहाँ 'योगी' कहा गया है।
'एकाकी' - ध्यानयोगका साधक अकेला हो, साथमें कोई सहायक न हो; क्योंकि दो होंगे तो बातचीत होने लग जायगी और साथमें कोई सहायक होगा तो रागके कारण उसकी याद आती रहेगी, जिससे मन भगवान् में नहीं लगेगा।
'रहसि स्थितः' - साधकको कहाँ स्थित होना चाहिये- इसके लिये बताते हैं कि वह एकान्तमें स्थित रहे अर्थात् ऐसे स्थानमें स्थित रहे, जहाँ ध्यानके विरुद्ध कोई वातावरण न हो। जैसे, नदीका किनारा हो, वनमें एकान्त स्थान हो, एकान्त मन्दिर आदि हो अथवा घरमें ही एक कमरा ऐसा हो, "
"जिसमें केवल भजन-ध्यान किया जाय। उसमें न तो स्वयं भोजन-शयन करे और न कोई दूसरा ही करे। 'आत्मानं सततं युञ्जीत'- उपर्युक्त प्रकारसे एकान्तमें बैठकर मनको निरन्तर भगवान् में लगाये। मनको निरन्तर भगवान् में लगानेके लिये खास बात है कि जब ध्यान करनेके लिये एकान्त स्थानपर जाय, तब जानेसे पहले ही यह विचार कर ले 'अब मेरेको संसारका कोई काम नहीं करना है, केवल भगवान् का ध्यान ही करना है। अब भगवान् के सिवाय दूसरेका चिन्तन करना ही नहीं है'- इस बातको लेकर निरन्तर सावधान रहे; क्योंकि सावधानी ही साधना है।
साधकके लिये इस बातकी बड़ी आवश्यकता है कि वह ध्यानके समय तो भगवान् के चिन्तनमें तत्परतापूर्वक लगा रहे, व्यवहारके समय भी निर्लिप्त रहते हुए भगवान् का चिन्तन करता रहे; क्योंकि व्यवहारके समय भगवान् का चिन्तन न होनेसे संसारमें लिप्तता अधिक होती है। व्यवहारके समय भगवान् का चिन्तन करनेसे ध्यानके समय चिन्तन करना सुगम होता है और ध्यानके समय ठीक तरहसे चिन्तन होनेसे व्यवहारके समय भी चिन्तन होता रहता है अर्थात् दोनों समयमें किया गया चिन्तन एक- दूसरेका सहायक होता है। तात्पर्य है कि साधकका साधकपना हर समय जाग्रत् रहे। वह संसारमें तो भगवान् को मिलाये, पर भगवान् में संसारको न मिलाये अर्थात् सांसारिक कार्य करते समय भी भगवत्स्मरण करता रहे।"
"यदि ध्यानके लिये बैठते समय साधक 'अमुक काम करना है, इतना लेना है, इतना देना है, अमुक जगह जाना है, अमुकसे मिलना है' आदि कार्योंको मनमें जमा रखेगा अर्थात् मनमें इनका संकल्प करेगा, तो उसका मन भगवान् के ध्यानमें नहीं लगेगा। अतः ध्यानके लिये बैठते समय यह दृढ़ निश्चय कर ले कि चाहे जो हो जाय, गरदन भले ही कट जाय, मेरेको केवल भगवान् का ध्यान ही करना है। ऐसा दृढ़ विचार होनेसे भगवान् में मन लगानेमें बड़ी सुविधा हो जायगी। साधककी यह शिकायत रहती है कि भगवान् में मन नहीं लगता, तो इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि साधक संसारसे सम्बन्ध तोड़कर ध्यान नहीं करता, प्रत्युत संसारसे सम्बन्ध जोड़कर करता है। अतः अपने सुख, सेवाके लिये भीतरसे किसीको भी अपना न माने अर्थात् किसीमें ममता न रखे; क्योंकि मन वहीं जायगा, जहाँ ममता होगी। इसलिये उद्देश्य केवल परमात्माका रहे और सबसे निर्लिप्त रहे, तो भगवान् में मन लग सकता है।
विशेष बात
अर्जुन पहले भी युद्धके लिये तैयार थे और अन्तमें भी उन्होंने युद्ध किया। केवल बीचमें वे युद्धको पाप समझने लगे थे तो भगवान् के समझा देनेसे उन्होंने युद्ध करना स्वीकार किया। इस तरह प्रसंग कर्मोंका होनेसे गीतामें कर्मयोगका विषय आना तो ठीक ही था, पर इसमें ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कई पारमार्थिक साधनोंका वर्णन कैसे आया है ? उनमें भी यहाँ ध्यानयोगका वर्णन आया, जिसमें केवल एकान्तमें बैठकर ध्यान लगाना पड़ता है। यह प्रसंग ही यहाँ क्यों आया ?"
"अर्जुन पापके भयसे युद्धसे उपरत होते हैं, तो उनके भीतर कल्याणकी इच्छा जाग्रत् होती है। अतः वे भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि जिससे मेरा निश्चित श्रेय (कल्याण) हो, वह बात आप कहिये (दूसरे अध्यायका सातवाँ, तीसरे अध्यायका दूसरा और पाँचवें अध्यायका पहला श्लोक)। इसपर भगवान् को श्रेय करनेवाले जितने मार्ग हैं, वे सब बताने पड़े। उनमें दान, यज्ञ, तप, वेदाध्ययन, प्राणायाम, ध्यानयोग, हठयोग, लययोग आदिको कहना भी कर्तव्य हो जाता है। इसलिये भगवान् ने गीतामें कल्याणकारक साधन बताये हैं। उन सब साधनोंमें भगवान् ने यह बात बतायी कि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका जो लक्ष्य है, वही खास बन्धनकारक है। अगर साधकका लक्ष्य केवल परमात्माका है, तो फिर उसके सामने कोई भी कर्तव्य-कर्म आ जाय, उसको समभावसे करना चाहिये। समभावसे किये गये सब- के-सब कर्तव्य-कर्म कल्याण करनेवाले होते हैं।
परिशिष्ट भाव - कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग तो करणनिरपेक्ष साधन हैं, पर ध्यानयोग करणसापेक्ष साधन है। अब भगवान् ध्यानयोगका वर्णन आरम्भ करते हैं।
* कर्मयोगमें 'कर्म' तो करणसापेक्ष है, पर 'योग' करणनिरपेक्ष है।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने ध्यानयोगके लिये प्रेरणा की। ध्यानयोगका साधन कैसे करे- इसके लिये अब आगेके तीन श्लोकोंमें ध्यानयोगकी उपयोगी बातें बताते हैं।"
कल हम अध्याय 6, श्लोक 11 पर चर्चा करेंगे, जिसमें ध्यान के लिए उचित स्थान और आसन की महत्ता को बताया गया है।
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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