ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 11 - ध्यान और आत्मशांति का महत्व


नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहां हम भगवद्गीता के हर श्लोक को विस्तार से समझते हैं और जीवन के लिए उसके गूढ़ संदेशों को अपनाते हैं। आज के एपिसोड में हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 के श्लोक 11 की।


पिछले एपिसोड में हमने जाना कि कैसे आत्मा की स्वतंत्रता और कर्म का सही दृष्टिकोण हमें आध्यात्मिक शांति की ओर ले जाता है।


आज हम ध्यान के सही महत्व और उसकी विधि पर बात करेंगे। श्लोक 11 में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि कैसे योगी को एकांत में बैठकर ध्यान करना चाहिए।


श्लोक 11 में बताया गया है कि योगी को एकांत में जाकर, पवित्र भूमि पर आसन लगाकर ध्यान करना चाहिए। यह शांति और स्थिरता प्राप्त करने का मार्ग है।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 11

ध्यानयोगके लिये आसन-स्थापनकी विधि। (श्लोक-११)


शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ 


उच्चारण की विधि - शुचौ, देशे, प्रतिष्ठाप्य, स्थिरम्, आसनम्, आत्मनः, न, अत्युच्छ्रितम्, न, अतिनीचम्, चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ११॥


शब्दार्थ - शुचौ अर्थात् शुद्ध, देशे अर्थात् भूमिमें, (जिसके ऊपर क्रमशः), चैलाजिनकुशोत्तरम् अर्थात् कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, (जो), न अर्थात् न, अत्युच्छ्रितम् अर्थात् बहुत ऊँचा है (और), न अर्थात् न, अतिनीचम् अर्थात् बहुत नीचा (ऐसे), आत्मनः अर्थात् अपने, आसनम् अर्थात् आसनको, स्थिरम् अर्थात् स्थिर, प्रतिष्ठाप्य अर्थात् स्थापन करके।


अर्थ - शुद्ध भूमिमें, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसनको स्थिर स्थापन करके - ॥ ११॥"

"व्याख्या 'शुचौ देशे'- भूमिकी शुद्धि दो तरहकी होती है- (१) स्वाभाविक शुद्ध स्थान; जैसे-गंगा आदिका किनारा; जंगल; तुलसी, आँवला, पीपल आदि पवित्र वृक्षोंके पासका स्थान आदि और (२) शुद्ध किया हुआ स्थान; जैसे - भूमिको गायके गोबरसे लीपकर अथवा जल छिड़ककर शुद्ध किया जाय; जहाँ मिट्टी हो, वहाँ ऊपरकी चार-पाँच अंगुल मिट्टी दूर करके भूमिको शुद्ध किया जाय। ऐसी स्वाभाविक अथवा शुद्ध की हुई समतल भूमिमें काठ या पत्थरकी चौकी आदिको लगा दे।


'चैलाजिनकुशोत्तरम्' - यद्यपि पाठके अनुसार क्रमशः वस्त्र, मृगछाला और कुश बिछानी चाहिये, तथापि बिछानेमें पहले कुश बिछा दे, उसके ऊपर बिना मारे हुए मृगका अर्थात् अपने-आप मरे हुए मृगका चर्म बिछा दे; क्योंकि मारे हुए मृगका चर्म अशुद्ध होता है।


 श्लोकमें जैसा पाठ है, अगर वैसा ही लिया जाय तो नीचे कपड़ा, उसके ऊपर मृगछाला और उसके ऊपर कुश बिछानी पड़ेगी। परन्तु यह क्रम लेना युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि कुश शरीरमें गड़ती है। अतः नीचे कुश, उसके ऊपर मृगछाला और उसके ऊपर कपड़ा - ऐसा क्रम लिया गया है; क्योंकि पाठ-क्रमसे अर्थ-क्रम बलवान् होता है - 'पाठक्रमादर्थक्रमो बलीयान् '।


अगर ऐसी मृगछाला न मिले, तो कुशपर टाटका बोरा अथवा ऊनका कम्बल बिछा दे। फिर उसके ऊपर कोमल सूती कपड़ा बिछा दे।


वाराहभगवान् के रोमसे उत्पन्न होनेके कारण कुश बहुत पवित्र माना गया है; अतः उससे बना आसन काममें लाते हैं। ग्रहण आदिके समय सूतकसे बचनेके लिये अर्थात् शुद्धिके लिये कुशको पदार्थोंमें, कपड़ोंमें रखते हैं। पवित्री, प्रोक्षण आदिमें भी इसको काममें लेते हैं। अतः भगवान् ने कुश बिछानेके लिये कहा है।


कुश शरीरमें गड़े नहीं और हमारे शरीरमें जो विद्युत्-शक्ति है वह आसनमेंसे होकर जमीनमें न चली जाय,

इसलिये (विद्युत्-शक्तिको रोकनेके लिये) मृगछाला बिछानेका विधान आया है।

मृगछालाके रोम (रोएँ) शरीरमें न लगें और आसन कोमल रहे, इसलिये मृगछालाके ऊपर सूती शुद्ध कपड़ा बिछानेके लिये कहा गया है। अगर मृगछालाकी जगह कम्बल या टाट हो, तो वह गरम न हो जाय, इसलिये उसपर सूती कपड़ा बिछाना चाहिये।

'नात्युच्छ्रितं नातिनीचम्' - समतल शुद्ध भूमिमें जो तख्त या चौकी रखी जाय, वह न अत्यन्त ऊँची हो और न अत्यन्त नीची हो। कारण कि अत्यन्त ऊँची होनेसे ध्यान करते समय अचानक नींद आ जाय तो गिरनेकी और चोट लगनेकी सम्भावना रहेगी और अत्यन्त नीची होनेसे भूमिपर घूमनेवाले चींटी आदि जन्तुओंके शरीरपर चढ़ जानेसे और काटनेसे ध्यानमें विक्षेप होगा। इसलिये अति ऊँचे और अति नीचे आसनका निषेध किया गया है।

'प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ' - ध्यानके लिये भूमिपर जो आसन-चौकी या तख्त रखा जाय, वह हिलनेवाला न हो। भूमिपर उसके चारों पाये ठीक तरहसे स्थिर रहें।

जिस आसनपर बैठकर ध्यान आदि किया जाय, वह आसन अपना होना चाहिये, दूसरेका नहीं; क्योंकि दूसरेका आसन काममें लिया जाय तो उसमें वैसे ही परमाणु रहते हैं। अतः यहाँ 'आत्मनः' पदसे अपना आसन अलग रखनेका विधान आया है। इसी तरहसे गोमुखी, माला, सन्ध्याके पंचपात्र, आचमनी आदि भी अपने अलग रखने चाहिये। शास्त्रोंमें तो यहाँतक विधान आया है कि दूसरोंके बैठनेका आसन, पहननेकी जूती, खड़ाऊँ, कुर्ता आदिको अपने काममें लेनेसे अपनेको दूसरोंके पाप-पुण्यका भागी होना पड़ता है! पुण्यात्मा सन्त-महात्माओंके आसनपर भी नहीं बैठना चाहिये; क्योंकि उनके आसन, कपड़े आदिको पैरसे छूना भी उनका निरादर करना है, अपराध करना है।

कल के एपिसोड में हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 के श्लोक 12 की, जो ध्यान की प्रक्रिया को और गहराई से समझाएगा।

दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!

याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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