ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 12 - ध्यान और आत्म-संयम के महत्व
"नमस्कार दोस्तों! आज हम आपके लिए लाए हैं भगवद गीता के अध्याय 6 के श्लोक 12 की व्याख्या। यह श्लोक ध्यान और आत्मिक संतुलन का महत्व सिखाता है। अंत तक जुड़ें और जानें कि कैसे आप इन शिक्षाओं को अपने जीवन में लागू कर सकते हैं।
पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 के श्लोक 11 में ध्यान की सही प्रक्रिया के प्रारंभिक चरणों की चर्चा की। आज हम इस ज्ञान को और आगे बढ़ाएंगे।
आज के श्लोक 12 में भगवान श्रीकृष्ण ने ध्यान की गहराई और आत्म-संयम के महत्व को समझाया है। यह श्लोक उन लोगों के लिए प्रेरणादायक है जो आध्यात्मिक शांति और आंतरिक शक्ति की तलाश में हैं।"
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श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 12"
"आसनपर बैठकर योगका साधन करनेके लिये कथन।
(श्लोक-१२)
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद् योगमात्मविशुद्धये ॥
उच्चारण की विधि - तत्र, एकाग्रम्, मनः, कृत्वा, यतचित्तेन्द्रियक्रियः, उपविश्य, आसने, युञ्ज्यात्, योगम्, आत्मविशुद्धये ॥ १२ ॥
शब्दार्थ - तत्र अर्थात् उस, आसने अर्थात् आसनपर, उपविश्य अर्थात् बैठकर, यतचित्तेन्द्रियक्रियः अर्थात् चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें रखते हुए, मनः अर्थात् मनको, एकाग्रम् अर्थात् एकाग्र, कृत्वा अर्थात् करके, आत्मविशुद्धये अर्थात् अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये, योगम् अर्थात् योगका, युञ्ज्यात् अर्थात् अभ्यास करे।
अर्थ - उस आसनपर बैठकर चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें रखते हुए मनको एकाग्र करके अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये योगका अभ्यास करे ॥ १२ ॥"
"व्याख्या [पूर्वश्लोकमें बिछाये जानेवाले आसनकी विधि बतानेके बाद अब भगवान् बारहवें और तेरहवें श्लोकमें बैठनेवाले आसनकी विधि बताते हैं।]
'तत्र आसने' - जिस आसनपर क्रमशः कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछाया हुआ है, ऐसे पूर्वश्लोकमें वर्णित आसनके लिये यहाँ 'तत्र आसने' पद आये हैं।
'उपविश्य' - उस बिछाये हुए आसनपर सिद्धासन, पद्मासन, सुखासन आदि जिस किसी आसनसे सुखपूर्वक बैठ सके, उस आसनसे बैठ जाना चाहिये। आसनके विषयमें ऐसा आया है कि जिस किसी आसनसे बैठे, उसीमें लगातार तीन घंटेतक बैठा रहे। उतने समयतक इधर-उधर हिले-डुले नहीं। ऐसा बैठनेका अभ्यास सिद्ध होनेसे मन और प्राण स्वतः-स्वाभाविक शान्त (चंचलता-रहित) हो जाते हैं। कारण कि मनकी चंचलता शरीरको स्थिर नहीं होने देती और शरीरकी चंचलता, क्रिया-प्रवणता मनको स्थिर नहीं होने देती। इसलिये ध्यानके समय शरीरका स्थिर रहना बहुत आवश्यक है।
'यतचित्तेन्द्रियक्रियः' - आसनपर बैठनेके समय चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाएँ वशमें रहनी चाहिये। व्यवहारके समय भी शरीर, मन, इन्द्रियों आदिकी क्रियाओंपर अपना अधिकार रहना चाहिये। कारण कि व्यवहारकालमें चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाएँ वशमें नहीं होंगी तो ध्यानके समय भी वे क्रियाएँ जल्दी वशमें नहीं हो सकेंगी। "
"अतः व्यवहारकालमें भी चित्त आदिकी क्रियाओंको वशमें रखना आवश्यक है। तात्पर्य है कि अपना जीवन ठीक तरहसे संयत होना चाहिये। आगे सोलहवें-सत्रहवें श्लोकोंमें भी संयत जीवन रखनेके लिये कहा गया है।
'एकाग्रं मनः कृत्वा' - मनको एकाग्र करे अर्थात् मनमें संसारके चिन्तनको बिलकुल मिटा दे। इसके लिये ऐसा विचार करे कि अब मैं ध्यान करनेके लिये आसनपर बैठा हूँ। यदि इस समय मैं संसारका चिन्तन करूँगा तो अभी संसारका काम तो होगा नहीं और संसारका चिन्तन होनेसे परमात्माका चिन्तन, ध्यान भी नहीं होगा। इस तरह दोनों ओरसे मैं रीता रह जाऊँगा और ध्यानका समय बीत जायगा। इसलिये इस समय मेरेको संसारका चिन्तन नहीं करना है, प्रत्युत मनको केवल परमात्मामें ही लगाना है। ऐसा दृढ़ निश्चय करके बैठ जाय। ऐसा दृढ़ निश्चय करनेपर भी संसारकी कोई बात याद आ जाय तो यही समझे कि यह चिन्तन मेरा किया हुआ नहीं है; किंतु अपने-आप आया हुआ है। जो चिन्तन अपने-आप आता है, उसको हम पकड़ें नहीं अर्थात् न तो उसका अनुमोदन करें और न उसका विरोध ही करें। ऐसा करनेपर वह चिन्तन अपने-आप निर्जीव होकर नष्ट हो जायगा अर्थात् जैसे आया, वैसे चला जायगा; क्योंकि जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है- यह नियम है। "
"जैसे संसारमें बहुत-से अच्छे-मन्दे कार्य होते रहते हैं, पर उनके साथ हम अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ते तो उनका हमारेपर कोई असर नहीं होता अर्थात् हमें उनका पाप-पुण्य नहीं लगता। ऐसे ही अपने-आप आनेवाले चिन्तनके साथ हम सम्बन्ध नहीं जोड़ेंगे, तो उस चिन्तनका हमारेपर कोई असर नहीं होगा, उसके साथ हमारा मन नहीं चिपकेगा। जब मन नहीं चिपकेगा तो वह स्वतः एकाग्र, शान्त हो जायगा।
'युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये' - अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ही ध्यान योगका अभ्यास करे। सांसारिक पदार्थ, भोग, मान, बड़ाई, आराम, यश-प्रतिष्ठा, सुख-सुविधा आदिका उद्देश्य रखना अर्थात् इनकी कामना रखना ही अन्तःकरणकी अशुद्धि है और सांसारिक पदार्थ आदिकी प्राप्तिका उद्देश्य, कामना न रखकर केवल परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखना ही अन्तःकरणकी शुद्धि है।
ऋद्धि, सिद्धि आदिकी प्राप्तिके लिये और दूसरोंको दिखानेके लिये भी योगका अभ्यास किया जा सकता है, पर उनसे अन्तःकरणकी शुद्धि हो जाय - ऐसी बात नहीं है।
'योग' एक शक्ति है, जिसको सांसारिक भोगोंकी प्राप्तिमें लगा दें तो भोग- ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त हो जायँगी और परमात्माकी प्राप्तिमें लगा दें तो परमात्मप्राप्तिमें सहायक बन जायगी।"
कल के वीडियो में हम अध्याय 6 के श्लोक 13 और 14 की व्याख्या करेंगे। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ध्यान की उन्नत तकनीकों और मानसिक संतुलन को विस्तार से समझाते हैं।
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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