ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 13 और 14 - ध्यान के महत्व पर भगवान कृष्ण के अनमोल उपदेश
"नमस्कार दोस्तों!
आज हम भगवद गीता के अध्याय 6 के श्लोक 13 और 14 की चर्चा करेंगे। भगवान कृष्ण हमें ध्यान की सही प्रक्रिया और इसे कैसे करना चाहिए, यह समझाते हैं। तो चलिए, इस यात्रा को शुरू करते हैं।
पिछले वीडियो में हमने श्लोक 12 पर चर्चा की थी, जहाँ ध्यान के लिए मानसिक और शारीरिक संतुलन का महत्व बताया गया था। अगर आपने वह वीडियो नहीं देखा है, तो पहले उसे जरूर देखें।
आज हम ध्यान के माध्यम से आत्म-शुद्धि और भगवान से जुड़ने के महत्व को समझेंगे। भगवान कृष्ण हमें ध्यान की सही विधि और इसमें स्थिरता का महत्व बताते हैं। आइए, इसे विस्तार से जानें।"
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श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 13 और 14"
"ध्यानयोगकी विधि।
(श्लोक-१३)
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥
उच्चारण की विधि - समम्, कायशिरोग्रीवम्, धारयन्, अचलम्, स्थिरः, सम्प्रेक्ष्य, नासिकाग्रम्, स्वम्, दिशः, च, अनवलोकयन् ॥ १३॥
शब्दार्थ - कायशिरोग्रीवम् अर्थात् काया सिर और गलेको, समम् अर्थात् समान (एवम्), अचलम् अर्थात् अचल, धारयन् अर्थात् धारण करके, च अर्थात् और, स्थिरः अर्थात् स्थिर होकर, स्वम् अर्थात् अपनी, नासिकाग्रम् अर्थात् नासिकाके अग्रभागपर, सम्प्रेक्ष्य अर्थात् दृष्टि जमाकर (अन्य), दिशः अर्थात् दिशाओंको, अनवलोकयन् अर्थात् न देखता हुआ।
अर्थ - काया, सिर और गलेको समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओंको न देखता हुआ- ॥ १३॥"
"व्याख्या 'समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलम्'- यद्यपि 'काय' नाम शरीरमात्रका है, तथापि यहाँ (आसनपर बैठनेके बाद) कमरसे लेकर गलेतकके भागको 'काय' नामसे कहा गया है। 'शिर' नाम ऊपरके भागका अर्थात् मस्तिष्कका है और 'ग्रीवा' नाम मस्तिष्क और कायाके बीचके भागका है। ध्यानके समय ये काया, शिर और ग्रीवा सम, सीधे रहें अर्थात् रीढ़की जो हड्डी है, उसकी सब गाँठें सीधे भागमें रहें और उसी सीधे भागमें मस्तक तथा ग्रीवा रहे। तात्पर्य है कि काया, शिर और ग्रीवा-ये तीनों एक सूतमें अचल रहें। कारण कि इन तीनोंके आगे झुकनेसे नींद आती है, पीछे झुकनेसे जडता आती है और दायें-बायें झुकनेसे चंचलता आती है। इसलिये न आगे झुके, न पीछे झुके और न दायें-बायें ही झुके। दण्डकी तरह सीधा-सरल बैठा रहे।
सिद्धासन, पद्मासन आदि जितने भी आसन हैं, आरोग्यकी दृष्टिसे वे सभी ध्यानयोगमें सहायक हैं। परन्तु यहाँ भगवान् ने सम्पूर्ण आसनोंकी सार चीज बतायी है- काया, शिर और ग्रीवाको सीधे समतामें रखना। इसलिये भगवान् ने बैठनेके सिद्धासन, पद्मासन आदि किसी भी आसनका नाम नहीं लिया है, किसी भी आसनका आग्रह नहीं रखा है। तात्पर्य है कि चाहे किसी भी आसनसे बैठे, पर काया, शिर और ग्रीवा एक सूतमें ही रहने चाहिये; क्योंकि इनके एक सूतमें रहनेसे मन बहुत जल्दी शान्त और स्थिर हो जाता है।"
"आसनपर बैठे हुए कभी नींद सताने लगे, तो उठकर थोड़ी देर इधर-उधर घूम ले। फिर स्थिरतासे बैठ जाय और यह भावना बना ले कि अब मेरेको उठना नहीं है, इधर-उधर झुकना नहीं है। केवल स्थिर और सीधे बैठकर ध्यान करना है।
'दिशश्चानवलोकयन्' - दस दिशाओंमें कहीं भी देखे नहीं; क्योंकि इधर-उधर देखनेके लिये जब ग्रीवा हिलेगी, तब ध्यान नहीं होगा, विक्षेप होगा। अतः ग्रीवाको स्थिर रखे।
'सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वम्' - अपनी नासिकाके अग्रभागको देखता रहे अर्थात् अपने नेत्रोंको अर्धनिमीलित (अधमुँदे) रखे। कारण कि नेत्र मूँद लेनेसे नींद आनेकी सम्भावना रहती है और नेत्र खुले रखनेसे सामने दृश्य दीखेगा, उसके संस्कार पड़ेंगे तो ध्यानमें विक्षेप होनेकी सम्भावना रहती है। अतः नासिकाके अग्रभागको देखनेका तात्पर्य अर्धनिमीलित नेत्र रखनेमें ही है।
'स्थिरः'- आसनपर बैठनेके बाद शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिकी कोई भी और किसी भी प्रकारकी क्रिया न हो, केवल पत्थरकी मूर्तिकी तरह बैठा रहे। इस प्रकार एक आसनसे कम-से-कम तीन घण्टे स्थिर बैठे रहनेका अभ्यास हो जायगा, तो उस आसनपर उसकी विजय हो जायगी अर्थात् वह 'जितासन' हो जायगा।
परिशिष्ट भाव - यहाँ नासिकाके अग्रभागको देखना मुख्य नहीं है, प्रत्युत मनको एकाग्र करना मुख्य है।
सम्बन्ध-बिछाने और बैठनेके आसनकी विधि बताकर अब आगेके दो श्लोकोंमें फलसहित सगुण-साकारके ध्यानका प्रकार बताते हैं।"
"(श्लोक-१४)
प्रशान्तात्मा विगतभीर्-ब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥
उच्चारण की विधि - प्रशान्तात्मा, विगतभीः, ब्रह्मचारिव्रते, स्थितः, मनः, संयम्य, मच्चित्तः, युक्तः, आसीत, मत्परः ॥ १४ ॥
शब्दार्थ - ब्रह्मचारिव्रते अर्थात् ब्रह्मचारीके व्रतमें, स्थितः अर्थात् स्थित, विगतभीः अर्थात् भयरहित (तथा), प्रशान्तात्मा अर्थात् भलीभाँति शान्त अन्तःकरणवाला, युक्तः अर्थात् सावधान योगी, मनः अर्थात् मनको, संयम्य अर्थात् रोककर, मच्चित्तः अर्थात् मुझमें चित्तवाला (और), मत्परः अर्थात् मेरे परायण होकर, आसीत अर्थात् स्थित होवे।
अर्थ - ब्रह्मचारीके व्रतमें स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शान्त अन्तःकरणवाला सावधान योगी मनको रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे ॥ १४ ॥"
"व्याख्या'प्रशान्तात्मा' - जिसका अन्तःकरण राग- द्वेषसे रहित है, वह 'प्रशान्तात्मा' है। जिसका सांसारिक विशेषता प्राप्त करनेका, ऋद्धि-सिद्धि आदि प्राप्त करनेका उद्देश्य न होकर केवल परमात्मप्राप्तिका ही दृढ़ उद्देश्य होता है, उसके राग-द्वेष शिथिल होकर मिट जाते हैं। राग-द्वेष मिटनेपर स्वतः शान्ति आ जाती है, जो कि स्वतःसिद्ध है। तात्पर्य है कि संसारके सम्बन्धके कारण ही हर्ष, शोक, राग- द्वेष आदि द्वन्द्व होते हैं और इन्हीं द्वन्द्वोंके कारण शान्ति भंग होती है। जब ये द्वन्द्व मिट जाते हैं, तब स्वतःसिद्ध शान्ति प्रकट हो जाती है। उस स्वतः सिद्ध शान्तिको प्राप्त करनेवालेका नाम ही 'प्रशान्तात्मा' है।
'विगतभीः'- शरीरको 'मैं' और 'मेरा' माननेसे ही रोगका, निन्दाका, अपमानका, मरने आदिका भय पैदा होता है। परन्तु जब मनुष्य शरीरके साथ 'मैं' और 'मेरे'-पनकी मान्यताको छोड़ देता है, तब उसमें किसी भी प्रकारका भय नहीं रहता। कारण कि उसके अन्तःकरणमें यह भाव दृढ़ हो जाता है कि इस शरीरको जीना हो तो जीयेगा ही, इसको कोई मार नहीं सकता और इस शरीरको मरना हो तो मरेगा ही, फिर इसको कोई बचा नहीं सकता। यदि यह मर भी जायगा तो बड़े आनन्दकी बात है; क्योंकि मेरी चित्तवृत्ति परमात्माकी तरफ होनेसे मेरा कल्याण तो हो ही जायगा ! जब कल्याणमें कोई सन्देह ही नहीं, तो फिर भय किस बातका ? इस भावसे वह सर्वथा भयरहित हो जाता है।"
"ब्रह्मचारिव्रते स्थितः '- यहाँ 'ब्रह्मचारिव्रत' का तात्पर्य केवल वीर्यरक्षासे ही नहीं है, प्रत्युत ब्रह्मचारीके व्रतसे है। तात्पर्य है कि जैसे ब्रह्मचारीका जीवन गुरुकी आज्ञाके अनुसार संयत और नियत होता है, ऐसे ही ध्यानयोगीको अपना जीवन संयत और नियत रखना चाहिये। जैसे ब्रह्मचारी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इन पाँच विषयोंसे तथा मान, बड़ाई और शरीरके आरामसे दूर रहता है, ऐसे ही ध्यानयोगीको भी उपर्युक्त आठ विषयोंमेंसे किसी भी विषयका भोगबुद्धिसे, रसबुद्धिसे सेवन नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निर्वाहबुद्धिसे ही सेवन करना चाहिये। यदि भोगबुद्धिसे उन विषयोंका सेवन किया जायगा, तो ध्यानयोगकी सिद्धि नहीं होगी। इसलिये ध्यानयोगीको ब्रह्मचारिव्रतमें स्थित रहना बहुत आवश्यक है।
व्रतमें स्थित रहनेका तात्पर्य है कि किसी भी अवस्था, परिस्थिति, आदिमें किसी भी कारणसे कभी किंचिन्मात्र भी सुखबुद्धिसे पदार्थोंका सेवन न हो, चाहे वह ध्यानकाल हो, चाहे व्यवहारकाल हो। इसमें सम्पूर्ण इन्द्रियोंका ब्रह्मचर्य आ जाता है।
'मनः संयम्य मच्चित्तः' मनको संयत करके मेरेमें ही लगा दे अर्थात् चित्तको संसारकी तरफसे सर्वथा हटाकर केवल मेरे स्वरूपके चिन्तनमें, मेरी लीला, गुण, प्रभाव, महिमा आदिके चिन्तनमें ही लगा दे। तात्पर्य है कि सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदिको लेकर मनमें जो कुछ संकल्प-विकल्परूपसे चिन्तन होता है, उससे मनको हटाकर एक मेरेमें ही लगाता रहे।"
"मनमें जो कुछ चिन्तन होता है, वह प्रायः भूतकालका होता है और कुछ भविष्यकालका भी होता है तथा वर्तमानमें साधक मन परमात्मामें लगाना चाहता है। जब भूतकालकी बात याद आ जाय, तब यह समझे कि वह घटना अभी नहीं है और भविष्यकी बात याद आ जाय, तो वह भी अभी नहीं है। वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर जितने संकल्प-विकल्प हो रहे हैं, वे उन्हीं वस्तु, व्यक्ति आदिके हो रहे हैं, जो अभी नहीं हैं।
हमारा लक्ष्य परमात्माके चिन्तनका है, संसारके चिन्तनका नहीं। अतः जिस संसारका चिन्तन हो रहा है, वह संसार पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा और अभी भी नहीं है। परन्तु जिन परमात्माका चिन्तन करना है, वे परमात्मा पहले भी थे, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। इस तरह सांसारिक वस्तु आदिके चिन्तनसे मनको हटाकर परमात्मामें लगा देना चाहिये। कारण कि भूतकालका कितना ही चिन्तन किया जाय, उससे लाभ तो कुछ होगा नहीं और भविष्यका चिन्तन किया जाय तो वह काम अभी कर सकेंगे नहीं तथा भूत- भविष्यका चिन्तन होता रहनेसे जो अभी ध्यान करते हैं, वह भी होगा नहीं तो सब ओरसे रीते ही रह जायँगे।
'युक्तः ' - ध्यान करते समय सावधान रहे अर्थात् मनको संसारसे हटाकर भगवान् में लगानेके लिये सदा सावधान, जाग्रत् रहे। इसमें कभी प्रमाद, आलस्य आदि न करे। तात्पर्य है कि एकान्तमें अथवा व्यवहारमें भगवान् में मन लगानेकी सावधानी सदा बनी रहनी चाहिये; "
"क्योंकि चलते- फिरते, काम-धन्धा करते समय भी सावधानी रहनेसे एकान्तमें मन अच्छा लगेगा और एकान्तमें मन अच्छा लगनेसे व्यवहार करते समय भी मन लगानेमें सुविधा होगी। अतः ये दोनों एक-दूसरेके सहायक हैं अर्थात् व्यवहारकी सावधानी एकान्तमें और एकान्तकी सावधानी व्यवहारमें सहायक है।
'आसीत मत्परः' - केवल भगवत्परायण होकर बैठे अर्थात् उद्देश्य, लक्ष्य, ध्येय केवल भगवान् का ही रहे। भगवान् के सिवाय कोई भी सांसारिक वासना, आसक्ति, कामना, स्पृहा, ममता आदि न रहे।
इसी अध्यायके दसवें श्लोकमें 'योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः' पदोंसे ध्यानयोगका जो उपक्रम किया था, उसीको यहाँ 'युक्त आसीत मत्परः' पदोंसे कहा गया है।
परिशिष्ट भाव - अपनी विशेषता माननेसे आसुरी सम्पत्ति आ जाती है। इसलिये भगवान् ने 'मत्परः' पदसे ध्यानयोगीके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कही है। भगवत्परायणतामें भगवान् का बल रहनेसे विकार शीघ्र दूर हो जाते हैं और अभिमान भी नहीं होता। यह भक्तिकी विशेषता है।
इस श्लोकमें 'मन' और 'चित्त' - ये दो समानार्थक पद आये हैं। 'मन' से किसी वस्तुका बार-बार मनन किया जाता है और 'चित्त' से किसी एक ही वस्तुका चिन्तन किया जाता है। अतः यहाँ आये 'मनः संयम्य मच्चित्तः' पदोंका तात्पर्य है कि संसारका मनन नहीं करे अर्थात् मनको संसारसे हटा ले और चित्तसे केवल भगवान् का चिन्तन करे अर्थात् चित्तको केवल भगवान् में लगा दे।"
कल के वीडियो में हम श्लोक 15 और 16 की चर्चा करेंगे, जिसमें ध्यान से मिलने वाले लाभ और इसे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है।
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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