ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 15 और 16 - ध्यान और जीवन का संतुलन
"नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहां हम भगवद गीता के अनमोल श्लोकों को सरल और प्रभावशाली तरीके से आपके सामने लाते हैं। आज हम जानेंगे अध्याय 6 के श्लोक 15 और 16 के गहरे रहस्य, जो हमें ध्यान और संतुलन का महत्व सिखाते हैं। चलिए शुरुआत करते हैं।
पिछले वीडियो में हमने भगवद गीता के श्लोक 13 और 14 पर चर्चा की, जहां ध्यान और आत्म-संयम की विशेषता को समझाया गया। आज हम इन्हीं विचारों को आगे बढ़ाते हुए श्लोक 15 और 16 पर प्रकाश डालेंगे।
श्लोक 15 में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि ध्यान का अभ्यास कैसे करना चाहिए ताकि मन और आत्मा को शुद्ध किया जा सके। वहीं, श्लोक 16 में जीवन में संतुलन और संयम का महत्व समझाया गया है। इन दोनों श्लोकों में गहरा आध्यात्मिक ज्ञान छिपा है, जिसे आज हम विस्तार से समझेंगे।"
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श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 15 और 16"
"ध्यानयोगका फल ।
(श्लोक-१५)
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥
उच्चारण की विधि - युञ्जन्, एवम्, सदा, आत्मानम्, योगी, नियतमानसः, शान्तिम्, निर्वाणपरमाम्, मत्संस्थाम्, अधिगच्छति ॥ १५ ॥
शब्दार्थ - - नियतमानसः अर्थात् वशमें किये हुए मनवाला, योगी अर्थात् योगी, एवम् अर्थात् इस प्रकार, आत्मानम् अर्थात् आत्माको, सदा अर्थात् निरन्तर (मुझ परमेश्वरके स्वरूपमें), युञ्जन् अर्थात् लगाता हुआ, मत्संस्थाम् अर्थात् मुझमें रहनेवाली, निर्वाणपरमाम् अर्थात् परमानन्दकी पराकाष्ठारूप, शान्तिम् अर्थात् शान्तिको, अधिगच्छति अर्थात् प्राप्त होता है।
अर्थ - वशमें किये हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्माको निरन्तर मुझ परमेश्वरके स्वरूपमें लगाता हुआ मुझमें रहनेवाली परमानन्दकी पराकाष्ठारूप शान्तिको प्राप्त होता है ॥ १५ ॥"
"व्याख्या 'योगी नियतमानसः'- जिसका मनपर अधिकार है, वह 'नियतमानसः' है। साधक 'नियत-मानस' तभी हो सकता है, जब उसके उद्देश्यमें केवल परमात्मा ही रहते हैं। परमात्माके सिवाय उसका और किसीसे सम्बन्ध नहीं रहता। कारण कि जबतक उसका सम्बन्ध संसारके साथ बना रहता है, तबतक उसका मन नियत नहीं हो सकता।
साधकसे यह एक बड़ी गलती होती है कि वह अपने- आपको गृहस्थ आदि मानता है और साधन ध्यानयोगका करता है। जिससे ध्यानयोगकी सिद्धि जल्दी नहीं होती। अतः साधकको चाहिये कि वह अपने-आपको गृहस्थ, साधु, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि किसी वर्ण-आश्रमका न मानकर ऐसा माने कि 'मैं तो केवल ध्यान करनेवाला हूँ। ध्यानसे परमात्माकी प्राप्ति करना ही मेरा काम है। सांसारिक ऋद्धि-सिद्धि आदिको प्राप्त करना मेरा उद्देश्य ही नहीं है।' इस प्रकार अहंताका परिवर्तन होनेपर मन स्वाभाविक ही नियत हो जायगा; क्योंकि जहाँ अहंता होती है, वहाँ ही अन्तःकरण और बहिःकरणकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।
'युञ्जन्नेवं सदात्मानम्' - दसवें श्लोकके 'योगी युञ्जीत सततम्' पदोंसे लेकर चौदहवें श्लोकके 'युक्त आसीत मत्परः' पदोंतक जितना ध्यानका, मन लगानेका वर्णन हुआ है, उस सबको यहाँ 'एवम्' पदसे लेना चाहिये।
'युञ्जन् आत्मानम्' का तात्पर्य है कि मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगाते रहना चाहिये।"
"सदा' का तात्पर्य है कि प्रतिदिन नियमितरूपसे ध्यानयोगका अभ्यास करना चाहिये। कभी योगका अभ्यास किया और कभी नहीं किया- ऐसा करनेसे ध्यानयोगकी सिद्धि जल्दी नहीं होती। दूसरा तात्पर्य यह है कि परमात्माकी प्राप्तिका लक्ष्य एकान्तमें अथवा व्यवहारमें निरन्तर बना रहना चाहिये।
'शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति' - भगवान् में जो वास्तविक स्थिति है, जिसको प्राप्त होनेपर कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता, उसको यहाँ 'निर्वाणपरमा शान्ति' कहा गया है। ध्यानयोगी ऐसी निर्वाणपरमा शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
एक 'निर्विकल्प स्थिति' होती है और एक 'निर्विकल्प बोध' होता है। ध्यानयोगमें पहले निर्विकल्प स्थिति होती है, फिर उसके बाद निर्विकल्प बोध होता है। इसी निर्विकल्प बोधको यहाँ 'निर्वाणपरमा शान्ति' नामसे कहा गया है।
शान्ति दो तरहकी होती है- शान्ति और परमशान्ति । संसारके त्याग (सम्बन्ध विच्छेद) से 'शान्ति' होती है और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर 'परमशान्ति' होती है। इसी परमशान्तिको गीतामें 'नैष्ठिकी शान्ति' (पाँचवें अध्यायका बारहवाँ श्लोक), 'शश्वच्छान्ति' (नवें अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक) आदि नामोंसे और यहाँ निर्वाणपरमा शान्ति नामसे कहा गया है।
सम्बन्ध-अब आगेके दो श्लोकोंमें ध्यानयोगके लिये उपयोगी नियमोंका क्रमशः व्यतिरेक और अन्वय-रीतिसे वर्णन करते हैं।"
"ध्यानयोगके लिये उपयुक्त आहार-विहार तथा शयनादि नियम और उनके फलका प्रतिपादन ।
(श्लोक-१६)
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
उच्चारण की विधि - न, अति, अश्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्, अनश्नतः, न, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन ॥ १६ ॥
शब्दार्थ - अर्जुन अर्थात् हे अर्जुन ! (यह), योगः अर्थात् योग, न अर्थात् न, तु तो, अति अर्थात् बहुत, अश्नतः अर्थात् खानेवालेका, च अर्थात् और, न अर्थात् न, एकान्तम् अर्थात् बिलकुल, अनश्नतः अर्थात् न खानेवालेका, च अर्थात् तथा, न अर्थात् न, अति अर्थात् बहुत, स्वप्नशीलस्य अर्थात् शयन करनेके स्वभाववालेका, च अर्थात् और, न अर्थात् न (सदा), जाग्रतः अर्थात् जागनेवालेका, एव अर्थात् ही, अस्ति अर्थात् सिद्ध होता है।
अर्थ - हे अर्जुन ! यह योग न तो बहुत खानेवालेका, न बिलकुल न खानेवालेका, न बहुत शयन करनेके स्वभाववालेका और न सदा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है ॥ १६ ॥"
"व्याख्या- 'नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति'- अधिक खानेवालेका योग सिद्ध नहीं होता *।
* दूसरोंके भोजनकी अपेक्षा अपना भोजन मात्रामें भले ही कम हो, पर अपनी भूखकी अपेक्षा अधिक होनेसे वह भोजन अधिक ही माना जाता है।
कारण कि अन्न अधिक खानेसे अर्थात् भूखके बिना खानेसे अथवा भूखसे अधिक खानेसे प्यास ज्यादा लगती है, जिससे पानी ज्यादा पीना पड़ता है। ज्यादा अन्न खाने और पानी पीनेसे पेट भारी हो जाता है। पेट भारी होनेसे शरीर भी बोझिल मालूम देता है। शरीरमें आलस्य छा जाता है। बार- बार पेट याद आता है। कुछ भी काम करनेका अथवा साधन, भजन, जप, ध्यान आदि करनेका मन नहीं करता। न तो सुखपूर्वक बैठा जाता है और न सुखपूर्वक लेटा ही जाता है तथा न चलने-फिरनेका ही मन करता है। अजीर्ण आदि होनेसे शरीरमें रोग पैदा हो जाते हैं। इसलिये अधिक खानेवाले पुरुषका योग कैसे सिद्ध हो सकता है? नहीं हो सकता।
'न चैकान्तमनश्नतः ' - ऐसे ही बिलकुल न खानेसे भी योग सिद्ध नहीं होता। कारण कि भोजन न करनेसे मनमें बार-बार भोजनका चिन्तन होता है। शरीरमें शक्ति कम हो जाती है। मांस-मज्जा आदि भी सूखते जाते हैं। शरीर शिथिल हो जाता है। चलना-फिरना कठिन हो जाता है। लेटे रहनेका मन करता है। जीना भारी हो जाता है। बैठ करके अभ्यास करना कठिन हो जाता है। चित्त परमात्मामें लगता ही नहीं। अतः ऐसे पुरुषका योग कैसे सिद्ध होगा ?
'न चाति स्वप्नशीलस्य' - जिसका ज्यादा सोनेका स्वभाव होता है, उसका भी योग सिद्ध नहीं होता। कारण कि ज्यादा सोनेसे स्वभाव बिगड़ जाता है अर्थात् बार-बार नींद सताती है। पड़े रहनेमें सुख और बैठे रहनेमें परिश्रम मालूम देता है। "
"ज्यादा लेटे रहनेसे गाढ़ नींद भी नहीं आती। गाढ़ नींद न आनेसे स्वप्न आते रहते हैं, संकल्प-विकल्प होते रहते हैं। शरीरमें आलस्य भरा रहता है। आलस्यके कारण बैठनेमें कठिनाई होती है। अतः वह योगका अभ्यास भी नहीं कर सकता, फिर योगकी सिद्धि कैसे होगी ?
'जाग्रतो नैव चार्जुन' - हे अर्जुन ! जब अधिक सोनेसे भी योगकी सिद्धि नहीं होती, तो फिर बिलकुल न सोनेसे योगकी सिद्धि हो ही कैसे सकती है? क्योंकि आवश्यक नींद न लेकर अधिक जगनेसे बैठनेपर नींद सतायेगी, जिससे वह योगका अभ्यास नहीं कर सकेगा।
सात्त्विक मनुष्योंमें भी कभी सत्संगका, सात्त्विक गहरी बातोंका, भगवान् की कथाका अथवा भक्तोंके चरित्रोंका प्रसंग छिड़ जाता है, तो कथा आदि कहते हुए, सुनते हुए जब रस, आनन्द आता है, तब उनको भी नींद नहीं आती। परन्तु उनका जगना और तरहका होता है अर्थात् राजसी- तामसी वृत्तिवालोंका जैसा जगना होता है, वैसा जगना सात्त्विक वृत्तिवालोंका नहीं होता। उस जगनेमें सात्त्विक मनुष्योंको जो आनन्द मिलता है, उसमें उनको निद्राके विश्रामकी खुराक मिलती है। अतः रातों जगनेपर भी उनको और समयमें निद्रा नहीं सताती। इतना ही नहीं, उनका वह जगना भी गुणातीत होनेमें सहायता करता है। परन्तु राजसी और तामसी वृत्तिवाले जगते हैं तो उनको और समयमें निद्रा तंग करती है और रोग पैदा करती है।
ऐसे ही भक्तलोग भगवान् के नाम-जपमें, कीर्तनमें, भगवान् के विरहमें भोजन करना भूल जाते हैं, उनको भूख नहीं लगती, तो वे 'अनश्नतः' नहीं हैं। कारण कि भगवान् की तरफ लग जानेसे उनके द्वारा जो कुछ होता है, वह 'सत्' हो जाता है।"
कल के वीडियो में हम श्लोक 17 और 18 पर चर्चा करेंगे, जो हमें जीवन के हर पहलू में संतुलन और योग की महिमा के बारे में बताएंगे।
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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