ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 2 से 3 - कर्म योग और सन्यास का गूढ़ रहस्य
"नमस्कार दोस्तों! आपका स्वागत है हमारे भगवद गीता श्लोक चर्चा सीरीज में। आज हम अध्याय 6 के श्लोक 2 और 3 की गहराई में जाएंगे। अगर आप जीवन में आध्यात्म और सफलता का सही मार्ग ढूंढ रहे हैं, तो यह वीडियो आपके लिए है। चलिए शुरुआत करते हैं!""
पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 के श्लोक 1 पर चर्चा की थी, जिसमें सन्यास और कर्मयोग के महत्व को समझाया गया।
""आज हम जानेंगे कि कैसे सन्यास और कर्मयोग जीवन के दो ऐसे पक्ष हैं, जो हमारे कर्म और ध्यान को संतुलित करते हैं। अध्याय 6 के श्लोक 2 और 3 में श्रीकृष्ण ने इन दोनों के बीच संतुलन को स्पष्ट किया है।"
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श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 2 से 3"
"संन्यास और कर्मयोगकी एकताका प्रतिपादन ।
(श्लोक-२)
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्-योगं तं विद्धि पाण्डव। न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
उच्चारण की विधि - यम्, सन्न्यासम्, इति, प्राहुः, योगम्, तम्, विद्धि, पाण्डव, न, हि, असन्न्यस्तसंकल्पः, योगी, भवति, कश्चन ॥ २॥
शब्दार्थ - पाण्डव अर्थात् हे अर्जुन !, यम् अर्थात् जिसको, सन्न्यासम् अर्थात् संन्यास१, इति अर्थात् ऐसा, प्राहुः अर्थात् कहते हैं, तम् अर्थात् उसीको (तू), योगम् अर्थात् योगर, विद्धि अर्थात् जान, हि अर्थात् क्योंकि, असन्न्यस्तसङ्कल्पः अर्थात् संकल्पोंका त्याग न करनेवाला, कश्चन अर्थात् कोई भी पुरुष, योगी अर्थात् योगी, न अर्थात् नहीं, भवति अर्थात् होता।
अर्थ - हे अर्जुन ! जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसीको तू योग जान; क्योंकि संकल्पोंका त्याग न करनेवाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता ॥ २ ॥"
"व्याख्या- 'यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव'- पाँचवें अध्यायके आरम्भमें भगवान् ने बताया था कि संन्यास (सांख्ययोग) और योग (कर्मयोग) - ये दोनों ही स्वतन्त्रतासे कल्याण करनेवाले हैं (पाँचवें अध्यायका दूसरा श्लोक), तथा दोनोंका फल भी एक ही है (पाँचवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) अर्थात् संन्यास और योग दो नहीं हैं, एक ही हैं। वही बात भगवान् यहाँ कहते हैं कि जैसे संन्यासी सर्वथा त्यागी होता है, ऐसे ही कर्मयोगी भी सर्वथा त्यागी होता है।
अठारहवें अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान् ने कहा है कि फल और आसक्तिका सर्वथा त्याग करके जो नियत कर्तव्य-कर्म केवल कर्तव्यमात्र समझकर किया जाता है, वह 'सात्त्विक त्याग' है, जिससे पदार्थों और क्रियाओंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और मनुष्य त्यागी अर्थात् योगी हो जाता है। इसी तरह संन्यासी भी कर्तृत्वाभिमानका त्यागी होता है। अतः दोनों ही त्यागी हैं। तात्पर्य है कि योगी और संन्यासीमें कोई भेद नहीं है। भेद न रहनेसे ही भगवान् ने पाँचवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें कहा है कि राग-द्वेषका त्याग करनेवाला योगी 'संन्यासी' ही है।
'न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन'- मनमें जो स्फुरणाएँ होती हैं अर्थात् तरह-तरहकी बातें याद आती हैं, उनमेंसे जिस स्फुरणा (बात) के साथ मन चिपक जाता है, जिस स्फुरणाके प्रति प्रियता अप्रियता पैदा हो जाती है, वह 'संकल्प' हो जाता है। उस संकल्पका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है। "
"कारण कि परमात्माके साथ सम्बन्धका नाम 'योग' है और जिसकी भीतरसे ही पदार्थोंमें महत्त्व, सुन्दर तथा सुख-बुद्धि है, वह (भीतरसे पदार्थोंके साथ सम्बन्ध माननेसे) भोगी ही होगा, योगी हो ही नहीं सकता। वह योगी तो तब होता है, जब उसकी असत् पदार्थोंमें महत्त्व, सुन्दर तथा सुख-बुद्धि नहीं रहती और तभी वह सम्पूर्ण संकल्पोंका त्यागी होता है तथा उसको भगवान् के साथ अपने नित्य सम्बन्धका अनुभव होता है।
यहाँ 'कश्चन' पदसे यह अर्थ भी लिया जा सकता है कि संकल्पका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी अर्थात् कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी, हठयोगी, लययोगी आदि नहीं होता। कारण कि उसका सम्बन्ध उत्पन्न और नष्ट होनेवाले जड पदार्थोंके साथ है; अतः वह योगी कैसे होगा ? वह तो भोगी ही होगा। ऐसे भोगी केवल मनुष्य ही नहीं हैं, प्रत्युत पशु-पक्षी आदि भी भोगी हैं; क्योंकि उन्होंने भी संकल्पोंका त्याग नहीं किया है।
तात्पर्य यह निकला कि जबतक असत् पदार्थोंके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध रहेगा अर्थात् अपने-आपको कुछ-न- कुछ मानेगा, तबतक मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता अर्थात् असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध रखते हुए वह कितना ही अभ्यास कर ले, समाधि लगा ले, गिरि- कन्दराओंमें चला जाय, तो भी गीताके सिद्धान्तके अनुसार वह योगी नहीं कहा जा सकता।
ऐसे तो संन्यास और योगकी साधना अलग-अलग है, पर संकल्पोंके त्यागमें दोनों साधन एक हैं।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें जिस योगकी प्रशंसा की गयी है, उस योगकी प्राप्तिका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
"कर्मयोगके साधनका वर्णन । (श्लोक-३)
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
उच्चारण की विधि - आरुरुक्षोः, मुनेः, योगम्, कर्म, कारणम्, उच्यते, योगारूढस्य, तस्य, एव, शमः, कारणम्, उच्यते ॥ ३॥
शब्दार्थ - योगम् अर्थात् योगमें, आरुरुक्षोः अर्थात् आरूढ़ होनेकी इच्छावाले, मुनेः अर्थात् मननशील पुरुषके लिये योगकी प्राप्तिमें, कर्म अर्थात् निष्कामभावसे कर्म करना ही, कारणम् अर्थात् हेतु, उच्यते अर्थात् कहा जाता है (और योगारूढ़ हो जानेपर), तस्य अर्थात् उस, योगारूढस्य अर्थात् योगारूढ़ पुरुषका, शमः अर्थात् जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, सः एव अर्थात् वही (कल्याणमें), कारणम् अर्थात् हेतु, उच्यते अर्थात् कहा जाता है।
अर्थ - योगमें आरूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील पुरुषके लिये योगकी प्राप्तिमें निष्कामभावसे कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जानेपर उस योगारूढ़ पुरुषका जो सर्वसंकल्पोंका अभाव है, वही कल्याणमें हेतु कहा जाता है ॥ ३ ॥"
"व्याख्या - 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते' - जो योग (समता) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये (योगारूढ़ होनेमें) निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करना कारण है। तात्पर्य है कि करनेका वेग मिटानेमें प्राप्त कर्तव्य-कर्म करना कारण है; क्योंकि कोई भी व्यक्ति जन्मा है, पला है और जीवित है तो उसका जीवन दूसरोंकी सहायताके बिना चल ही नहीं सकता। उसके पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम् तक कोई ऐसी चीज नहीं है, जो प्रकृतिकी न हो। इसलिये जबतक वह इन प्राकृत चीजोंको संसारकी सेवामें नहीं लगाता, तबतक वह योगारूढ़ नहीं हो सकता अर्थात् समतामें स्थित नहीं हो सकता; क्योंकि प्राकृत वस्तुमात्रकी संसारके साथ एकता है, अपने साथ एकता है ही नहीं।
प्राकृत पदार्थोंमें जो अपनापन दीखता है, उसका तात्पर्य है कि उनको दूसरोंकी सेवामें लगानेका दायित्व हमारेपर है। अतः उन सबको दूसरोंकी सेवामें लगानेका भाव होनेसे सम्पूर्ण क्रियाओंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जायगा और वह स्वयं योगारूढ़ हो जायगा। यही बात भगवान् ने दूसरी जगह अन्वय-व्यतिरेक रीतिसे कही है कि यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवालोंके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं अर्थात् किंचिन्मात्र भी बन्धनकारक नहीं होते (गीता-चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक) और यज्ञसे अन्यत्र अर्थात् अपने लिये किये गये कर्म बन्धनकारक होते हैं (गीता-तीसरे अध्यायका नवाँ श्लोक)।"
"योगारूढ़ होनेमें कर्म कारण क्यों हैं? क्योंकि फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें हमारी समता है या नहीं, उसका हमारेपर क्या असर पड़ता है- इसका पता तभी लगेगा, जब हम कर्म करेंगे। समताकी पहचान कर्म करनेसे ही होगी। तात्पर्य है कि कर्म करते हुए यदि हमारेमें समता रही, राग-द्वेष नहीं हुए, तब तो ठीक है; क्योंकि वह कर्म 'योग' में कारण हो गया। परन्तु यदि हमारेमें समता नहीं रही, राग-द्वेष हो गये; तो हमारा जडताके साथ सम्बन्ध होनेसे वह कर्म 'योग' में कारण नहीं बना।
'योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते' - असत् के साथ सम्बन्ध रखनेसे ही अशान्ति पैदा होती है। इसका कारण यह है कि असत् पदार्थों (शरीरादि) के साथ स्वयंका सम्बन्ध एक क्षण भी रह नहीं सकता और रहता भी नहीं; क्योंकि स्वयं सदा रहनेवाला है और शरीरादि मात्र पदार्थ प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं। उन प्रतिक्षण अभावमें जानेवालोंके साथ यह स्वयं अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और उनके साथ अपना सम्बन्ध रखना चाहता है। परन्तु उनके साथ सम्बन्ध रहता नहीं तो उनके चले जानेके भयसे और उनके चले जानेसे अशान्ति पैदा हो जाती है। जब यह शरीरादि असत् पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर उनसे अपना सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद कर लेता है, तब असत् के त्यागसे उसको स्वतः एक शान्ति मिलती है। अगर साधक उस शान्तिमें भी सुख लेने लग जायगा तो वह बँध जायगा। अगर उस शान्तिमें राग नहीं करेगा, उससे सुख नहीं लेगा, तो वह शान्ति परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कारण हो जाती है।"
"परिशिष्ट भाव - योगारूढ़ होनेकी इच्छावाले साधकके लिये योगारूढ़ होनेमें निष्कामभावसे कर्म करना कारण है और उससे प्राप्त होनेवाली शान्ति परमात्मप्राप्तिमें कारण है। तात्पर्य है कि परमात्मप्राप्तिमें कर्म कारण नहीं हैं, प्रत्युत कर्मोंके सम्बन्ध-विच्छेदसे होनेवाली शान्ति कारण है। यह शान्ति साधन है, सिद्धि नहीं।
विवेकपूर्वक कर्म करनेसे ही कर्मोंका राग (वेग) मिटता है, क्योंकि राग मिटानेकी शक्ति कर्ममें नहीं है, प्रत्युत विवेकमें है। जिसकी योगारूढ़ होनेकी लालसा है, वह सब कर्म विवेकपूर्वक ही करता है। विवेक तब विकसित होता है, जब साधक कामनाकी पूर्तिमें परतन्त्रताका और अपूर्तिमें अभावका अनुभव करता है। परतन्त्रता और अभावको कोई नहीं चाहता, जबकि कामना करनेसे ये दोनों ही नहीं छूटते।
योगारूढ़ अवस्थामें राजी नहीं होना है, क्योंकि राजी होनेसे साधक वहीं अटक जायगा, जिससे परमात्मप्राप्ति होनेमें बहुत समय लग जायगा (गीता - चौदहवें अध्यायका छठा श्लोक)। जैसे, पहले बालककी खेलमें रुचि रहती है। परन्तु बड़े होनेपर जब उसकी रुचि रुपयोंमें हो जाती है, तब खेलकी रुचि अपने-आप मिट जाती है। ऐसे ही जबतक परमात्मप्राप्तिका अनुभव नहीं हुआ है, तबतक उस शान्तिमें रुचि रहती है अर्थात् शान्ति बहुत बढ़िया मालूम देती है। परन्तु उस शान्तिका उपभोग न किया जाय, उससे उपराम हो जायँ तो उसकी रुचि अपने-आप मिट जाती है और बहुत जल्दी परमात्मप्राप्तिका अनुभव हो जाता है।"
"योगारूढ़ होनेमें कर्म करना कारण है अर्थात् निःस्वार्थभावसे दूसरोंके हितके लिये कर्म करते-करते जब सबका वियोग हो जाता है, तब साधक योगारूढ़ हो जाता है। कर्मोंकी समाप्ति हो जाती है और योग नित्य रहता है।
कर्मी (भोगी) भी कर्म करता है और कर्मयोगी भी कर्म करता है, पर उन दोनोंके उद्देश्यमें बड़ा भारी अन्तर रहता है। एक आसक्ति रखनेके लिये अथवा कामनापूर्तिके लिये कर्म करता है और एक आसक्तिका त्याग करनेके लिये कर्म करता है। भोगी अपने लिये कर्म करता है और कर्मयोगी दूसरोंके लिये कर्म करता है। अतः आसक्तिपूर्वक कर्म करनेमें समान होनेपर भी जो आसक्ति-त्यागके उद्देश्यसे दूसरोंके लिये कर्म करता है, वह योगी (योगारूढ़) हो जाता है। कर्म करनेसे ही योगीकी पहचान होती है, अन्यथा 'वृद्धा नारी पतिव्रता'!
यहाँ जिसको 'शम' (शान्ति) कहा गया है, उसीको दूसरे अध्यायके चौंसठवें श्लोकमें 'प्रसाद' (अन्तःकरणकी प्रसन्नता) कहा गया है। इस शान्तिमें रमण न करनेसे 'निर्वाणपरमा शान्ति' की प्राप्ति होती है (गीता-छठे अध्यायका पन्द्रहवाँ श्लोक)। त्यागसे शान्ति मिलती है (गीता-बारहवें अध्यायका बारहवाँ श्लोक)। शान्तिमें रमण न करनेसे अखण्डरस (तत्त्वज्ञान) मिलता है और अखण्डरसमें भी सन्तोष न करनेसे अनन्तरस (परमप्रेम) मिलता है।
सम्बन्ध-योगारूढ़ कौन होता है- इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।"
दोस्तों, अगले वीडियो में हम अध्याय 6 के श्लोक 4 पर चर्चा करेंगे, जो हमें ध्यान और स्वावलंबन का महत्व सिखाएंगे। इसे मिस न करें।
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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