ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 5 - आत्मोन्नति का मार्ग


 "नमस्ते! स्वागत है आपका हमारे 'गीता ज्ञान' सीरीज में। आज हम भगवद गीता के अध्याय 6 के श्लोक 5 पर चर्चा करेंगे, जो आत्मोन्नति और आत्म-निर्भरता की सीख देता है। तो चलिए, ज्ञान के इस पवित्र यात्रा पर आगे बढ़ते हैं।


पिछले वीडियो में, हमने श्लोक 4 की चर्चा की थी, जहाँ हमें सिखाया गया कि ध्यान और वैराग्य के माध्यम से जीवन में संतुलन कैसे लाया जा सकता है।


श्लोक 5 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, 'मनुष्य को स्वयं अपने द्वारा उद्धार करना चाहिए, स्वयं को पतन में नहीं डालना चाहिए।' इसका मतलब है कि हमारा सबसे बड़ा मित्र भी हम ही हैं और सबसे बड़ा शत्रु भी। यह श्लोक आत्म-निर्भरता और आत्म-उन्नति की प्रेरणा देता है।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 5"

"मनुष्यको योगारूढ़ावस्था प्राप्त करनेके लिये उत्साहित करना और कर्तव्यनिरूपण ।


(श्लोक-५)


उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥


उच्चारण की विधि - उद्धरेत्, आत्मना, आत्मानम्, न, आत्मानम्, अवसादयेत्, आत्मा, एव, हि, आत्मनः, बन्धुः, आत्मा, एव, रिपुः, आत्मनः ॥ ५ ॥


शब्दार्थ - आत्मना अर्थात् अपने द्वारा, आत्मानम् अर्थात् अपना (संसार समुद्रसे), उद्धरेत् अर्थात् उद्धार करे (और), आत्मानम् अर्थात् अपनेको (अधोगतिमें), न अर्थात् न, अवसादयेत् = डाले, हि अर्थात् क्योंकि (यह मनुष्य), आत्मा अर्थात् आप, एव अर्थात् ही तो, आत्मनः अर्थात् अपना, बन्धुः अर्थात् मित्र है (और), आत्मा अर्थात् आप, एव अर्थात् ही, आत्मनः अर्थात् अपना, रिपुः अर्थात् शत्रु है।


अर्थ - अपने द्वारा अपना संसार-समुद्रसे उद्धार करे और अपनेको अधोगतिमें न डाले; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है॥ ५॥"

"व्याख्या- 'उद्धरेदात्मनात्मानम्'- अपने-आपसे अपना उद्धार करे-इसका तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिसे अपने-आपको ऊँचा उठाये। अपने स्वरूपसे जो एकदेशीय 'मैं'-पन दीखता है, उससे भी अपनेको ऊँचा उठाये। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ आदि और 'मैं'-पन-ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं; अपना स्वरूप नहीं है। जो अपना स्वरूप नहीं है, उससे अपनेको ऊँचा उठाये।


अपना स्वरूप परमात्माके साथ एक है और शरीर, इन्द्रियाँ आदि तथा 'मैं' पन प्रकृतिके साथ एक है। अगर यह अपना उद्धार करनेमें, अपनेको ऊँचा उठानेमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी सहायता मानेगा, इनका सहारा लेगा तो फिर जडताका त्याग कैसे होगा ? क्योंकि जड वस्तुओंसे सम्बन्ध मानना, उनकी आवश्यकता समझना, उनका सहारा लेना ही खास बन्धन है। जो अपने हैं, अपनेमें हैं, अभी हैं और यहाँ हैं, ऐसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिकी आवश्यकता नहीं है। कारण कि असत् के द्वारा सत् की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत असत् के त्यागसे सत् की प्राप्ति होती है।


दूसरा भाव, अभी पूर्वश्लोकमें आया है कि प्राकृत पदार्थ, क्रिया और संकल्पमें आसक्त न हो, उनमें फँसे नहीं, प्रत्युत उनसे अपने-आपको ऊपर उठाये। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पदार्थ, क्रिया और संकल्पका आरम्भ तथा अन्त होता है, उनका संयोग तथा वियोग होता है, पर अपने (स्वयंके) अभावका और परिवर्तनका अनुभव किसीको नहीं होता। स्वयं सदा एकरूप रहता है। अतः उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ आदिमें न फँसना, उनके अधीन न होना, उनसे निर्लिप्त रहना ही अपना उद्धार करना है।"

"मनुष्यमात्रमें एक ऐसी विचारशक्ति है, जिसको काममें लानेसे वह अपना उद्धार कर सकता है। 'ज्ञानयोग' का साधक उस विचारशक्तिसे जड-चेतनका अलगाव करके चेतन (अपने स्वरूप) में स्थित हो जाता है और जड (शरीर-संसार) से सम्बन्ध विच्छेद कर लेता है। 'भक्तियोग' का साधक उसी विचारशक्तिसे 'मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं' इस प्रकार भगवान् से आत्मीयता करके अपना उद्धार कर लेता है। 'कर्मयोग' का साधक उसी विचारशक्तिसे मिले हुए शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि पदार्थोंको संसारका ही मानते हुए संसारकी सेवामें लगाकर उन पदार्थोंसे सम्बन्ध विच्छेद कर लेता है और अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। इस दृष्टिसे मनुष्य अपनी विचारशक्तिको काममें लेकर किसी भी योग-मार्गसे अपना कल्याण कर सकता है।


उद्धार-सम्बन्धी विशेष बात


विचार करना चाहिये कि 'मैं' शरीर नहीं हूँ; क्योंकि शरीर बदलता रहता है और मैं वही रहता हूँ। यह शरीर 'मेरा' भी नहीं है; क्योंकि शरीरपर मेरा वश नहीं चलता अर्थात् शरीरको मैं जैसा रखना चाहूँ, वह वैसा नहीं रह सकता; जितने दिन रखना चाहूँ, उतने दिन नहीं रह सकता और जैसा सबल बनाना चाहूँ, वैसा बन नहीं सकता। यह शरीर 'मेरे लिये' भी नहीं है; क्योंकि यदि यह मेरे लिये होता तो इसके मिलनेपर मेरी कोई इच्छा बाकी नहीं रहती। दूसरी बात, यह परिवर्तनशील है और मैं अपरिवर्तनशील हूँ। परिवर्तनशील अपरिवर्तनशीलके काम कैसे आ सकता है ? नहीं आ सकता। तीसरी बात, यदि यह मेरे लिये होता तो सदा मेरे पास रहता। परन्तु यह मेरे पास नहीं रहता। "

"इस प्रकार शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं और मेरे लिये नहीं - इस वास्तविकतापर मनुष्य दृढ़ रहे, तो अपने-आपसे अपना उद्धार हो जायगा।


अब शंका होती है कि ईश्वर, सन्त-महात्मा, गुरु, शास्त्र - इनसे भी तो मनुष्योंका उद्धार होता है; फिर अपने-आपसे अपना उद्धार करे-ऐसा क्यों कहा ? इसका समाधान है कि ईश्वर, सन्त-महात्मा आदि हमारा उद्धार तभी करेंगे, जब उनमें हमारी श्रद्धा होगी। वह श्रद्धा हमें खुद ही करनी पड़ेगी। खुद श्रद्धा किये बिना क्या वे अपनेमें श्रद्धा करा लेंगे ? नहीं करा सकते। अगर ईश्वर, सन्त आदि हमारे श्रद्धा किये बिना ही अपनेमें हमारी श्रद्धा कराकर हमारा उद्धार करते तो हमारा उद्धार कभीका हो गया होता। कारण कि आज दिनतक भगवान् के अनेक अवतार हो चुके हैं, कई तरहके सन्त-महात्मा, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी हो चुके हैं; परन्तु अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ है। इससे भी सिद्ध होता है कि हमने स्वयं उनमें श्रद्धा नहीं की, हम स्वयं उनके सम्मुख नहीं हुए, हमने स्वयं उनकी बात नहीं मानी, इसलिये हमारा उद्धार नहीं हुआ। परन्तु जिन्होंने उनपर श्रद्धा की, जो उनके सम्मुख हो गये, जिन्होंने उनकी बात मानी, उनका उद्धार हो गया। अतः साधकको शास्त्र, भगवान्, गुरु आदिमें श्रद्धा-विश्वास करके तथा उनकी आज्ञाके अनुसार चलकर अपना उद्धार कर लेना चाहिये। भगवान्, सन्त-महात्मा आदिके रहते हुए हमारा उद्धार नहीं हुआ है तो इसमें उद्धारकी सामग्रीकी कमी नहीं रही है अथवा हम अपना उद्धार करनेमें असमर्थ नहीं हुए हैं। हम अपना उद्धार करनेके लिये तैयार नहीं हुए, इसीसे वे सब मिलकर भी हमारा उद्धार करनेमें समर्थ नहीं हुए। "

"अगर हम अपना उद्धार करनेके लिये तैयार हो जायँ, सम्मुख हो जायँ तो मनुष्यजन्म-जैसी सामग्री और कलियुग-जैसा मौका प्राप्त करके हम कई बार अपना उद्धार कर सकते हैं! पर यह तब होगा, जब हम स्वयं अपना उद्धार करना चाहेंगे।


दूसरी बात, स्वयंने ही अपना पतन किया है अर्थात् इसने ही संसारके सम्बन्धको पकड़ा है, संसारने इसको नहीं पकड़ा है। जैसे, बाल्यावस्थाको इसने छोड़ा नहीं, प्रत्युत वह स्वाभाविक ही छूट गयी। फिर इसने जवानीके सम्बन्धको पकड़ लिया कि 'मैं जवान हूँ', पर इसका जवानीके साथ भी सम्बन्ध नहीं रहेगा। तात्पर्य यह हुआ कि अगर यह नया सम्बन्ध नहीं जोड़े तो पुराना सम्बन्ध स्वाभाविक ही छूट जायगा, जो कि स्वतः छूट ही रहा है। पुराना सम्बन्ध तो रहता नहीं और नया सम्बन्ध यह जोड़ लेता है- इससे सिद्ध होता है कि सम्बन्ध जोड़ने और छोड़नेमें यह स्वतन्त्र और समर्थ है। अगर यह नया सम्बन्ध न जोड़े, तो अपना उद्धार आप ही कर सकता है।


शरीर-संसारके साथ जो संयोग (सम्बन्ध) है, उसका प्रतिक्षण स्वतः वियोग हो रहा है। उस स्वतः होते हुए वियोगको संयोग-अवस्थामें ही स्वीकार कर ले तो यह अपने-आपसे अपना उद्धार कर सकता है।


'नात्मानमवसादयेत्'- यह अपने-आपको पतनकी तरफ न ले जाय- इसका तात्पर्य है कि परिवर्तनशील प्राकृत पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े अर्थात् उनको महत्त्व देकर उनका दास न बने, अपनेको उनके अधीन न माने, अपने लिये उनकी आवश्यकता न समझे। जैसे किसीको धन मिला, पद मिला, अधिकार मिला, तो उनके मिलनेसे यह अपनेको बड़ा, श्रेष्ठ और स्वतन्त्र मानता है, पर विचार करके देखें कि यह स्वयं बड़ा हुआ कि धन, पद, अधिकार बड़े हुए ?"

"स्वयं चेतन और एकरूप रहते हुए भी इन प्राकृत चीजोंके पराधीन हो जाता है और अपना पतन कर लेता है। बड़े आश्चर्यकी बात है कि इस पतनमें भी यह अपना उत्थान मानता है और उनके अधीन होकर भी अपनेको स्वाधीन मानता है !


'आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः' - यह आप ही अपना बन्धु है। अपने सिवाय और कोई बन्धु है ही नहीं। अतः स्वयंको किसीकी जरूरत नहीं है, इसको अपने उद्धारके लिये किसी योग्यताकी जरूरत नहीं है, शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदिकी जरूरत नहीं है और किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिकी भी जरूरत नहीं है। तात्पर्य है कि प्राकृत पदार्थ इसके साधक (सहायक) अथवा बाधक नहीं है। यह स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता है, इसलिये यह स्वयं ही अपना बन्धु (मित्र) है।


हमारे जो सहायक हैं, रक्षक हैं, उद्धारक हैं, उनमें भी जब हम श्रद्धा-भक्ति करेंगे, उनकी बात मानेंगे, तभी वे हमारे बन्धु होंगे, सहायक आदि होंगे। अतः मूलमें हम ही हमारे बन्धु हैं; क्योंकि हमारे माने बिना, हमारे श्रद्धा-विश्वास किये बिना वे हमारा उद्धार नहीं कर सकते - यह नियम है।


'आत्मैव रिपुरात्मनः' - यह आप ही अपना शत्रु है अर्थात् जो अपने द्वारा अपने-आपका उद्धार नहीं करता, वह अपने-आपका शत्रु है। अपने सिवाय इसका कोई दूसरा शत्रु नहीं है। प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी इसका अपकार करनेमें समर्थ नहीं हैं। ये शरीर, इन्द्रियाँ आदि जैसे इसका अपकार नहीं कर सकते, ऐसे ही इसका उपकार भी नहीं कर सकते। जब स्वयं उन शरीरादिको अपना मान लेता है, तो यह स्वयं ही अपना शत्रु बन जाता है। "

"तात्पर्य है कि उन प्राकृत पदार्थोंसे अपनेपनकी स्वीकृति ही अपने साथ अपनी शत्रुता है। श्लोकके उत्तरार्धमें दो बार 'एव' पद देनेका तात्पर्य है कि अपना मित्र और शत्रु आप ही है, दूसरा कोई मित्र और शत्रु हो ही नहीं सकता और होना सम्भव भी नहीं है। प्रकृतिके कार्यके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न माननेसे यह आप ही अपना मित्र है और प्रकृतिके कार्यके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध माननेसे यह आप ही अपना शत्रु है।


परिशिष्ट भाव - अपने उद्धार और पतनमें मनुष्य स्वयं ही कारण होता है, दूसरा कोई नहीं। भगवान् ने मनुष्य-शरीर दिया है तो अपने कल्याणकी सामग्री भी पूरी दी है। इसलिये अपने कल्याणके लिये दूसरेकी जरूरत नहीं है। पतन भी दूसरा नहीं करता। जीव खुद ही गुणोंका संग करके जन्म- मरणमें पड़ता है (गीता - तेरहवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)।


गुरु, सन्त और भगवान् भी तभी उद्धार करते हैं, जब मनुष्य स्वयं उनपर श्रद्धा-विश्वास करता है, उनको स्वीकार करता है, उनके सम्मुख होता है, उनके शरण होता है, उनकी आज्ञाका पालन करता है। अगर मनुष्य उनको स्वीकार न करे तो वे कैसे उद्धार करेंगे ? नहीं कर सकते। खुद शिष्य न बने तो गुरु क्या करेगा ? जैसे, दूसरा व्यक्ति भोजन तो दे देगा, पर भूख खुदकी चाहिये। खुदकी भूख न हो तो दूसरेके द्वारा दिया गया भोजन किस कामका ? ऐसे ही खुदकी लगन न हो तो गुरुका, सन्त-महात्माओंका उपदेश किस कामका ?"

"गुरु, सन्त और भगवान् का कभी अभाव नहीं होता। अनेक बड़े-बड़े सन्त होते आये हैं, गुरु होते आये हैं, भगवान् के अवतार होते आये हैं, पर अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ है तो इससे सिद्ध होता है कि हमने ही उनको स्वीकार नहीं किया। अतः अपने उद्धार और पतनमें हम ही हेतु हैं। जो अपने उद्धार और पतनमें दूसरेको हेतु मानता है, उसका उद्धार कभी हो ही नहीं सकता।


वास्तविक दृष्टिसे देखें तो भगवान् भी विद्यमान हैं, गुरु भी विद्यमान है, तत्त्वज्ञान भी विद्यमान है और अपनेमें योग्यता, सामर्थ्य भी विद्यमान है। केवल नाशवान् सुखकी आसक्तिसे ही उनके प्रकट होनेमें बाधा लग रही है। नाशवान् सुखकी आसक्ति मिटानेकी जिम्मेवारी साधकपर है; क्योंकि उसीने आसक्ति की है।


गुरु बनना या बनाना गीताका सिद्धान्त नहीं है। मनुष्य आप ही अपना गुरु है। इसलिये उपदेश अपनेको ही देना है। जब सब कुछ परमात्मा ही हैं (वासुदेवः सर्वम्), तो फिर दूसरा गुरु कैसे बने और कौन किसको उपदेश दे ? अतः 'उद्धरेदात्मनात्मानम्' का तात्पर्य है कि दूसरेमें कमी न देखकर अपनेमें ही कमी देखे और उसको दूर करनेकी चेष्टा करे, अपनेको ही उपदेश दे। आप ही अपना गुरु बने, आप ही अपना नेता बने और आप ही अपना शासक बने।


सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि यह स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है। अतः स्वयं अपना मित्र और शत्रु कैसे है-इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं अर्थात् पूर्वश्लोकके उत्तरार्धकी व्याख्या आगेके श्लोकमें करते हैं।"

कल के वीडियो में, हम श्लोक 6 और 7 की चर्चा करेंगे, जो ध्यान और आत्मा के शुद्धिकरण के महत्व को उजागर करेगा।

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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