ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 30 - श्रीकृष्ण और अर्जुन का दिव्य संवाद
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
"नमस्कार दोस्तों!
आज हम श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 6, श्लोक 30 की चर्चा करेंगे। इस श्लोक में श्रीकृष्ण हमें बताते हैं कि जो व्यक्ति योग द्वारा ईश्वर को हर जगह देखता है और हर प्राणी में ईश्वर को अनुभव करता है, वह सच्चा योगी है। आइए, इस दिव्य ज्ञान को समझें और अपनी जीवन यात्रा को प्रेरित करें।
पिछले एपिसोड में हमने चर्चा की थी अध्याय 6, श्लोक 29 पर, जिसमें बताया गया कि ध्यान के माध्यम से एक योगी अपनी आत्मा को सभी प्राणियों में देख सकता है।
आज के श्लोक में, श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि जो व्यक्ति ईश्वर को हर स्थान पर देखता है और हर प्राणी में ईश्वर को देखता है, वह न कभी ईश्वर से दूर होता है और न ईश्वर उससे।"
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 30"
"सर्वत्र भगवद्दर्शनका फल ।
(श्लोक-३०)
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
उच्चारण की विधि - यः, माम्, पश्यति, सर्वत्र, सर्वम्, च, मयि, पश्यति, तस्य, अहम्, न, प्रणश्यामि, सः, च, मे, न, प्रणश्यति ॥ ३० ॥
शब्दार्थ - यः अर्थात् जो पुरुष, सर्वत्र अर्थात् सम्पूर्ण भूतोंमें, माम् अर्थात् सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही (व्यापक), पश्यति अर्थात् देखता है, च अर्थात् और, सर्वम् अर्थात् सम्पूर्ण भूतोंको, मयि अर्थात् मुझ वासुदेवके अन्तर्गत *, पश्यति अर्थात् देखता है, तस्य अर्थात् उसके लिये, अहम् अर्थात् मैं, न प्रणश्यामि अर्थात् अदृश्य नहीं होता, च अर्थात् और, सः अर्थात् वह, मे अर्थात् मेरे लिये, न प्रणश्यति अर्थात् अदृश्य नहीं होता।
अर्थ - जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत * देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ॥ ३० ॥"
"व्याख्या- 'यो मां पश्यति सर्वत्र'- जो भक्त सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पशु, पक्षी, देवता, यक्ष, राक्षस, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदिमें मेरेको देखता है। जैसे, ब्रह्माजी जब बछड़ों और ग्वालबालोंको चुराकर ले गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये। बछड़े और ग्वालबाल ही नहीं, प्रत्युत उनके बेंत, सींग, बाँसुरी, वस्त्र, आभूषण आदि भी भगवान् स्वयं ही बन गये *।
* यावद्वत्सपवत्सकाल्पकवपु- र्यावत्कराङ्घयादिकं यावद्यष्टिविषाणवेणुदलशि- ग्यावद्धिभूषाम्बरम् । यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो यावद्विहारादिकं सर्वं विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदजः सर्वस्वरूपो बभौ ॥
(श्रीमद्भा० १०। १३। १९)
'वे बालक और बछड़े संख्यामें जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर आदि जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सींग, बाँसुरी, पत्ते और छींके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, स्वभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार वे खाते-पीते, चलते आदि थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपोंमें सर्वस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय 'यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है'- यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी।'
यह लीला एक वर्षतक चलती रही, पर किसीको इसका पता नहीं चला। बछड़ोंमेंसे कई बछड़े तो केवल दूध ही पीनेवाले थे, "
"इसलिये वे घरपर ही रहते थे और बड़े बछड़ोंको भगवान् श्रीकृष्ण अपने साथ वनमें ले जाते थे। एक दिन दाऊ दादा (बलरामजी) ने देखा कि छोटे बछड़ोंवाली गायें भी अपने पहलेके (बड़े) बछड़ोंको देखकर उनको दूध पिलानेके लिये हुंकार मारती हुई दौड़ पड़ीं। बड़े गोपोंने उन गायोंको बहुत रोका, पर वे रुकी नहीं। इससे गोपोंको उन गायोंपर बहुत गुस्सा आ गया।
परन्तु जब उन्होंने अपने-अपने बालकोंको देखा, तब उनका गुस्सा शान्त हो गया और स्नेह उमड़ पड़ा। वे बालकोंको हृदयसे लगाने लगे, उनका माथा सूँघने लगे। इस लीलाको देखकर दाऊ दादाने सोचा कि यह क्या बात है; उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो उनको बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें भगवान् श्रीकृष्ण ही दिखायी दिये। ऐसे ही भगवान् का सिद्ध भक्त सब जगह भगवान् को ही देखता है अर्थात् उसकी दृष्टिमें भगवत्सत्ताके सिवाय दूसरी किंचिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती।
'सर्वं च मयि पश्यति' - और जो भक्त देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिको मेरे ही अन्तर्गत देखता है। जैसे, गीताका उपदेश देते समय अर्जुनके द्वारा प्रार्थना करनेपर भगवान् अपना विश्वरूप दिखाते हुए कहते हैं कि चराचर सारे संसारको मेरे एक अंशमें स्थित देख - 'इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे......' (११।७), तो अर्जुन भी कहते हैं कि मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देख रहा हूँ"
"पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्' (११। १५) । संजयने भी कहा कि अर्जुनने भगवान् के शरीरमें सारे संसारको देखा- 'तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा' (११। १३)। तात्पर्य है कि अर्जुनने भगवान् के शरीरमें सब कुछ भगवत्स्वरूप ही देखा। ऐसे ही भक्तको देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ आता है, उसको भगवान् में ही देखता है और भगवत्स्वरूप ही देखता है।
'तस्याहं न प्रणश्यामि' - भक्त जब सब जगह मुझे ही देखता है, तो मैं उससे कैसे छिपूँ, कहाँ छिपूँ और किसके पीछे छिपूँ ? इसलिये मैं उस भक्तके लिये अदृश्य नहीं रहता अर्थात् निरन्तर उसके सामने ही रहता हूँ।
'स च मे न प्रणश्यति' - जब भक्त भगवान् को सब जगह देखता है, तो भगवान् भी भक्तको सब जगह देखते हैं; क्योंकि भगवान् का यह नियम है कि 'जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं भी उसी प्रकार उनको आश्रय देता हूँ' - 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्' (गीता ४। ११)। तात्पर्य है कि भक्त भगवान् के साथ घुल-मिल जाते हैं, भगवान् के साथ उनकी आत्मीयता, एकता हो जाती है; अतः भगवान् अपने स्वरूपमें उनको सब जगह देखते हैं। इस दृष्टिसे भक्त भी भगवान् के लिये कभी अदृश्य नहीं होता। यहाँ शंका होती है कि भगवान् के लिये तो कोई भी अदृश्य नहीं है- 'वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। "
"भविष्याणि च भूतानि ......' (गीता ७। २६), फिर यहाँ केवल भक्तके लिये ही 'वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता'- ऐसा क्यों कहा है? इसका समाधान है कि यद्यपि भगवान् के लिये कोई भी अदृश्य नहीं है, तथापि जो भगवान् को सब जगह देखता है, उसके भावके कारण भगवान् भी उसको सब जगह देखते हैं। परन्तु जो भगवान् से विमुख होकर संसारमें आसक्त है, उसके लिये भगवान् अदृश्य रहते हैं- 'नाहं प्रकाशः सर्वस्य' (गीता ७ । २५) । अतः (उसके भावके कारण) वह भी भगवान् के लिये अदृश्य रहता है। जितने अंशमें उसका भगवान् के प्रति भाव नहीं है, उतने अंशमें वह भगवान् के लिये अदृश्य रहता है। ऐसी ही बात भगवान् ने नवें अध्यायमें भी कही है कि 'मैं सब प्राणियोंमें समान हूँ। न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है।
परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ।'
परिशिष्ट भाव - पूर्वश्लोकमें आत्मज्ञानकी बात कहकर अब भगवान् परमात्मज्ञानकी बात कहते हैं। ध्यानयोगके किसी साधकमें ज्ञानके संस्कार रहनेसे विवेककी मुख्यता रहती है और किसी साधकमें भक्तिके संस्कार रहनेसे श्रद्धा-विश्वासकी मुख्यता रहती है। अतः ज्ञानके संस्कारवाला ध्यानयोगी विवेकपूर्वक आत्माका अनुभव करता है - 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि' (गीता ६। २९) और भक्तिके संस्कारवाला ध्यानयोगी श्रद्धाविश्वासपूर्वक परमात्माका अनुभव करता है- 'यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति'।"
"यो मां पश्यति सर्वत्र' पदोंका भाव है कि जो मेरेको दूसरोंमें भी देखता है और अपनेमें भी देखता है। 'सर्वं च मयि पश्यति' पदोंका भाव है कि जो दूसरोंको भी मेरेमें देखता है और अपनेको भी मेरेमें देखता है।
जैसे सब जगह बर्फ-ही-बर्फ पड़ी हो तो बर्फ कैसे छिपेगी ? बर्फके पीछे बर्फ रखनेपर भी बर्फ ही दीखेगी। ऐसे ही जब सब रूपोंमें एक भगवान् ही हैं तो फिर वे कैसे छिपें, कहाँ छिपें और किसके पीछे छिपें? क्योंकि एक परमात्माके सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं। परमात्मामें शरीर और शरीरी, सत् और असत्, जड़ और चेतन, ईश्वर और जगत्, सगुण और निर्गुण, साकार और निराकार आदि कोई विभाग है ही नहीं। उस एकमें ही अनेक विभाग हैं और अनेक विभागोंमें वह एक ही है। वह विवेक-विचारका विषय नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासका विषय है। अतः 'सब कुछ परमात्मा ही हैं' - इसको साधक श्रद्धा- विश्वासपूर्वक मान ले, स्वीकार कर ले। दृढ़तासे माननेपर फिर वैसा ही अनुभव हो जायगा।
साधक पहले परमात्माको दूर देखता है, फिर नजदीक देखता है, फिर अपनेमें देखता है, और फिर केवल परमात्माको ही देखता है। कर्मयोगी परमात्माको नजदीक देखता है, ज्ञानयोगी परमात्माको अपनेमें देखता है और भक्तियोगी सब जगह परमात्माको ही देखता है।
सम्बन्ध-अब भगवान् ध्यान करनेवाले सिद्ध भक्तियोगीके लक्षण बताते हैं।"
"कल के एपिसोड में हम चर्चा करेंगे अध्याय 6, श्लोक 31 की, जिसमें श्रीकृष्ण बताते हैं कि ईश्वर के प्रति भक्ति रखने वाला व्यक्ति कैसे सभी प्राणियों के कल्याण में आनंद पाता है।
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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