ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 31 - एकता और दिव्यता का पाठ
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
"नमस्कार! स्वागत है आपका हमारे 'गीता ज्ञान' श्रृंखला में। आज के इस एपिसोड में हम चर्चा करेंगे भगवद्गीता के अध्याय 6, श्लोक 31 पर। यह श्लोक आत्मा और ईश्वर की एकता का अद्भुत संदेश देता है। तो चलिए, जानते हैं इस श्लोक का गहरा अर्थ।
पिछले एपिसोड में हमने भगवद्गीता के अध्याय 6, श्लोक 30 पर चर्चा की थी, जहाँ भगवान ने बताया कि जो हर जीव में भगवान को देखता है, वह सच्चे ज्ञान की राह पर होता है।
आज हम बात करेंगे अध्याय 6, श्लोक 31 की, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि जो मुझे हर जगह देखता है और हर चीज में मुझसे जुड़ा हुआ महसूस करता है, वह कभी मुझसे दूर नहीं होता और मैं उससे।"
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 31"
"भक्तिद्वारा भगवान्को प्राप्त हुए तथा सांख्ययोगद्वारा परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषोंके लक्षण और महत्त्वका निरूपण।
(श्लोक-३१)
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥
उच्चारण की विधि - सर्वभूतस्थितम्, यः, माम्, भजति, एकत्वम्, आस्थितः, सर्वथा, वर्तमानः, अपि, सः, योगी, मयि, वर्तते ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ - यः अर्थात् जो पुरुष, एकत्वम् अर्थात् एकीभावमें, आस्थितः अर्थात् स्थित होकर, सर्वभूतस्थितम् अर्थात् सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित, माम् अर्थात् मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको, भजति अर्थात् भजता है, सः अर्थात् वह, योगी अर्थात् योगी, सर्वथा अर्थात् सब प्रकारसे, वर्तमानः अर्थात् बरतता हुआ, अपि अर्थात् भी, मयि अर्थात् मुझमें (ही), वर्तते अर्थात् बरतता है।
अर्थ - जो पुरुष एकीभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है ॥ ३१ ॥"
"व्याख्या 'एकत्वमास्थितः ' - पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया था कि जो मेरेको सबमें और सबको मेरेमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। अदृश्य क्यों नहीं होता ? कारण कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरे साथ उसकी अभिन्नता हो गयी है अर्थात् मेरे साथ उसका अत्यधिक प्रेम हो गया है। अद्वैत-सिद्धान्तमें तो स्वरूपसे एकता होती है, पर यहाँ वैसी एकता नहीं है। यहाँ द्वैत होते हुए भी अभिन्नता है अर्थात् भगवान् और भक्त दीखनेमें तो दो हैं, पर वास्तवमें एक ही हैं * ।
* ज्ञानमें तो दो होकर एक होते हैं, पर भक्तिमें प्रेमके विलक्षण आनन्दका आदान-प्रदान करनेके लिये, प्रेमका विस्तार करनेके लिये एक होकर दो हो जाते हैं; जैसे- भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीजी एक होकर भी दो हैं।
जैसे पति और पत्नी दो शरीर होते हुए भी अपनेको अभिन्न मानते हैं, दो मित्र अपनेको एक ही मानते हैं; क्योंकि अत्यन्त स्नेह होनेके कारण वहाँ द्वैतपना नहीं रहता। ऐसे ही जो भक्तियोगका साधक भगवान् को प्राप्त हो जाता है, भगवान् में अत्यन्त स्नेह होनेके कारण उसकी भगवान् से अभिन्नता हो जाती है। इसी
अभिन्नताको यहाँ 'एकत्वमास्थितः' पदसे बताया गया है।
'सर्वभूतस्थितं यो मां भजति' - सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें भगवान् ही परिपूर्ण हैं अर्थात् सम्पूर्ण चराचर जगत् भगवत्स्वरूप ही है- 'वासुदेवः सर्वम्' (७।१९) - यही उसका भजन है। 'सर्वभूतस्थितम्' पदसे ऐसा असर पड़ता है कि भगवान् केवल प्राणियोंमें ही स्थित हैं। "
"परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। भगवान् केवल प्राणियोंमें ही स्थित नहीं हैं, प्रत्युत संसारके कण-कणमें परिपूर्णरूपसे स्थित हैं। जैसे, सोनेके आभूषण सोनेसे ही बनते हैं, सोनेमें ही स्थित रहते हैं और सोनेमें ही उनका पर्यवसान होता है अर्थात् सब समय एक सोना-ही-सोना है। परन्तु लोगोंकी दृष्टिमें आभूषणोंकी सत्ता अलग प्रतीत होनेके कारण उनको समझानेके लिये कहा जाता है कि आभूषणोंमें सोना ही है। ऐसे ही सृष्टिके पहले, सृष्टिके समय और सृष्टिके बाद एक परमात्मा-ही-परमात्मा है। परन्तु लोगोंकी दृष्टिमें प्राणियों और पदार्थोंकी सत्ता अलग प्रतीत होनेके कारण उनको समझानेके लिये कहा जाता है कि सब प्राणियोंमें एक परमात्मा ही है, दूसरा कोई नहीं है। इसी वास्तविकताको यहाँ 'सर्वभूतस्थितं माम्' पदोंसे कहा गया है।
'सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते' - वह शास्त्र और वर्ण-आश्रमकी मर्यादाके अनुसार खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते आदि सभी क्रियाएँ करते हुए मेरेमें ही बरतता है, मेरेमें ही रहता है। कारण कि जब उसकी दृष्टिमें मेरे सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रही, तो फिर वह जो कुछ बर्ताव करेगा, उसको कहाँ करेगा ? वह तो मेरेमें ही सब कुछ करेगा।
तेरहवें अध्यायमें ज्ञानयोगके प्रकरणमें भगवान् ने यह बताया कि सब कुछ बर्ताव करते हुए भी उसका फिर जन्म नहीं होता- 'सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते' (१३। २३); और यहाँ भगवान् ने बताया है कि सब कुछ बर्ताव करते हुए भी वह मेरेमें ही रहता है। "
"इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ संसारसे सम्बन्ध- विच्छेद होनेकी बात है और यहाँ भगवान् के साथ अभिन्न होनेकी बात है। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ज्ञानयोगी मुक्त हो जाता है और भगवान् के साथ अभिन्नता होनेपर भक्त प्रेमके एक विलक्षण रसका आस्वादन करता है, जो अनन्त और प्रतिक्षण वर्धमान है।
यहाँ भगवान् ने कहा है कि वह योगी मेरेमें बर्ताव करता है अर्थात् मेरेमें ही रहता है। इसपर शंका होती है कि क्या अन्य प्राणी भगवान् में नहीं रहते ? इसका समाधान यह है कि वास्तवमें सम्पूर्ण प्राणी भगवान् में ही बरतते हैं, भगवान् में ही रहते हैं; परन्तु उनके अन्तःकरणमें संसारकी सत्ता और महत्ता रहनेसे वे भगवान् में अपनी स्थिति जानते नहीं, मानते नहीं। अतः भगवान् में बरतते हुए भी, भगवान् में रहते हुए भी उनका बर्ताव संसारमें ही हो रहा है अर्थात् उन्होंने जगत् में अहंता-ममता करके जगत् को धारण कर रखा है - 'ययेदं धार्यते जगत्' (गीता ७।५) । वे जगत् को भगवान् का स्वरूप न समझकर अर्थात् जगत् समझकर बर्ताव करते हैं। वे कहते भी हैं कि हम तो संसारी आदमी हैं, हम तो संसारमें रहनेवाले हैं। परन्तु भगवान् का भक्त इस बातको जानता है कि यह सब संसार वासुदेवरूप है। अतः वह भक्त हरदम भगवान् में ही रहता है और भगवान् में ही बर्ताव करता है।
परिशिष्ट भाव - भक्त सम्पूर्ण जगत् को परमात्माका ही स्वरूप देखता है। उसकी दृष्टिमें एक परमात्माके सिवाय और किसीकी सत्ता नहीं रहती। उसके लिये द्रष्टा, दृश्य और दर्शन-तीनों ही परमात्मस्वरूप हो जाते हैं - 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता ७। १९)। "
"इसलिये जैसे गंगाजलसे गंगाका पूजन किया जाय, ऐसे ही उस भक्तका सब बर्ताव परमात्मामें ही होता है। जैसे शरीरमें तादात्म्यवाला व्यक्ति सब क्रिया करते हुए शरीरमें ही रहता है, ऐसे ही भक्त सब क्रिया करते हुए भी परमात्मामें ही रहता है।
आगे तेरहवें अध्यायमें भगवान् ने ज्ञानयोगीके लिये कहा है- 'सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते' (१३। २३) और यहाँ भक्तके लिये कहा है- 'सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।' तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञानमार्गमें तो जन्म-मरण मिट जाता है, मुक्ति हो जाती है, पर भक्तिमार्गमें जन्म-मरण मिटकर भगवान् से अभिन्नता होती है, आत्मीयता होती है। इसी भावको गीतामें इस प्रकार भी कहा गया है- 'तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति' (६। ३०), 'प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः' (७। १७), 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्' (७। १८), 'ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्' (९। २९) । ज्ञानमार्गमें तो सूक्ष्म अहम् की गन्ध रहनेसे दार्शनिक मतभेद रह सकता है, पर भक्तिमार्गमें भगवान् से आत्मीयता होनेपर सूक्ष्म अहम् की गन्ध तथा उससे होनेवाला दार्शनिक मतभेद नहीं रहता। 'न स भूयोऽभिजायते' में स्वरूपमें स्थितिका अनुभव होनेपर केवल स्वयं (स्वरूप) रहता है और 'स योगी मयि वर्तते' में केवल भगवान् रहते हैं, स्वयं (योगी) नहीं रहता अर्थात् स्वयं योगीरूप नहीं रहता, प्रत्युत भगवत्स्वरूप रहता है।
सम्बन्ध-भक्त सब बर्ताव करते हुए भी मेरेमें कैसे बर्ताव करता है- यह आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
"अगले एपिसोड में हम जानेंगे अध्याय 6, श्लोक 32 का महत्व, जहाँ भगवान मानवता और समानता का संदेश देंगे।
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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