ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 32 - आत्माओं की समानता और करुणा का गूढ़ संदेश

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारी भगवद गीता सीरीज़ में। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6, श्लोक 32 पर, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की समानता और करुणा का गूढ़ संदेश देते हैं। तो जुड़िए हमारे साथ इस दिव्य ज्ञान की यात्रा पर!


पिछले एपिसोड में हमने चर्चा की थी अध्याय 6, श्लोक 31 पर, जहाँ भगवान कृष्ण ने आत्मा और परमात्मा के अद्वितीय संबंध को समझाया था।


आज के श्लोक में, भगवान श्रीकृष्ण आत्मा की समानता को समझाते हुए यह बताते हैं कि हर जीव में एक ही आत्मा है और हमें सबके प्रति करुणा का भाव रखना चाहिए। यह ज्ञान न केवल आध्यात्मिक बल्कि व्यवहारिक जीवन में भी महत्वपूर्ण है।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 32"

"(श्लोक-३२)


आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥


उच्चारण की विधि - आत्मौपम्येन, सर्वत्र, समम्, पश्यति, यः, अर्जुन, सुखम्, वा, यदि, वा, दुःखम्, सः, योगी, परमः, मतः ॥ ३२ ॥


शब्दार्थ - अर्जुन अर्थात् हे अर्जुन !, यः अर्थात् जो योगी, आत्मौपम्येन अर्थात् अपनी भाँति, सर्वत्र अर्थात् सम्पूर्ण भूतोंमें, समम् अर्थात् सम, पश्यति अर्थात् देखता है, वा अर्थात् और, सुखम् अर्थात् सुख, यदि वा अर्थात् अथवा, दुःखम् अर्थात् दुःखको (भी सबमें सम देखता है), सः अर्थात् वह, योगी अर्थात् योगी, परमः अर्थात् परम श्रेष्ठ, मतः अर्थात् माना गया है।


अर्थ - हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति * सम्पूर्ण भूतोंमें सम देखता है और सुख अथवा दुःखको भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है ॥ ३२ ॥"

"व्याख्या'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन'- साधारण मनुष्य जैसे अपने शरीरमें अपनी स्थिति देखता है, तो उसके शरीरके किसी अंगमें किसी तरहकी पीड़ा हो-ऐसा वह नहीं चाहता, प्रत्युत सभी अंगोंका समानरूपसे आराम चाहता है। ऐसे ही सब प्राणियोंमें भगवान् को समान देखनेवाला भक्त सभी प्राणियोंका समानरूपसे आराम चाहता है। उसके सामने कोई दुःखी प्राणी आ जाय, तो अपने शरीरके किसी अंगका दुःख दूर करनेकी तरह ही उसका दुःख दूर करनेकी स्वाभाविक चेष्टा होती है। तात्पर्य है कि जैसे साधारण प्राणीकी अपने शरीरके आरामके लिये चेष्टा होती है, ऐसे ही भक्तकी दूसरोंके शरीरोंके आरामके लिये स्वाभाविक चेष्टा होती है।


'सर्वत्र' कहनेका तात्पर्य है कि उसके द्वारा वर्ण, आश्रम, देश, वेश, सम्प्रदाय आदिका भेद न रखकर सबको समान रीतिसे सुख पहुँचानेकी स्वाभाविक चेष्टा होती है। ऐसे ही पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि स्थावर-जंगम सभी प्राणियोंको भी समानरीतिसे सुख पहुँचानेकी चेष्टा होती है और साथ-ही-साथ उनका दुःख दूर करनेका भी स्वाभाविक उद्योग होता है।


अपने शरीरके अंगोंका दुःख दूर करनेकी समान चेष्टा होनेपर भी अंगोंमें भेद-दृष्टि तो रहती ही है और रहना आवश्यक भी है। जैसे, हाथका काम पैरसे नहीं किया जाता। अगर हाथको हाथ छू जाय तो हाथ धोनेकी जरूरत नहीं पड़ती; परन्तु पैरको हाथ छू जाय तो हाथ धोना पड़ता है। अगर मल-मूत्रके अंगोंको हाथसे साफ किया जाय, तो हाथको मिट्टी लगाकर विशेषतासे धोना, निर्मल करना पड़ता है। "

"ऐसे ही शास्त्र और वर्ण-आश्रमकी मर्यादाके अनुसार सबके सुख-दुःखमें समान भाव रखते हुए भी स्पर्श-अस्पर्शका खयाल रखकर व्यवहार होना चाहिये। किसीके प्रति किंचिन्मात्र भी घृणाकी सम्भावना ही नहीं होनी चाहिये। जैसे अपने शरीरके पवित्र-अपवित्र अंगोंकी रक्षा करनेमें और उनको सुख पहुँचानेमें कोई कमी न रखते हुए भी शुद्धिकी दृष्टिसे उनमें स्पर्श- अस्पर्शका भेद रखते हैं। ऐसे ही शास्त्र मर्यादाके अनुसार संसारके सभी प्राणियोंमें स्पर्श-अस्पर्शका भेद मानते हुए भी भक्तके द्वारा उनका दुःख दूर करनेकी और उनको सुख पहुँचानेकी चेष्टामें कभी किंचिन्मात्र भी कमी नहीं आती। तात्पर्य है कि जैसे अपने शरीरका कोई अंग अस्पृश्य होनेपर भी वह अप्रिय नहीं होता, ऐसे ही शास्त्रमर्यादाके अनुसार कोई प्राणी अस्पृश्य होनेपर भी उसमें प्रियता, हितैषिताकी कभी कमी नहीं होती।


'सुखं वा यदि वा दुःखम्' - अपने शरीरकी उपमासे दूसरोंके सुख-दुःखमें समान रहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि दूसरोंके शरीरके किसी अंगमें पीड़ा हो जाय, तो वह पीड़ा अपने शरीरमें भी हो जाय, अपनेको भी उस पीड़ाका अनुभव हो जाय। अगर ऐसी समता ली जाय तो अपनेको दुःख ही ज्यादा होगा और दुःख मिटेगा भी नहीं; क्योंकि संसारमें दुःखी प्राणी ही ज्यादा हैं।


दूसरी बात, जैसे विरक्त त्यागी महात्मालोग अपने शरीरकी और अपने शरीरके अंगोंमें होनेवाली पीड़ाकी उपेक्षा कर देते हैं, ऐसे ही दूसरोंके शरीरोंकी और उनके शरीरोंके अंगोंमें होनेवाली पीड़ाकी उपेक्षा हो जाय "

"अर्थात् जैसे उनपर अपने शरीरके सुख-दुःखका असर नहीं होता, ऐसे ही दूसरोंके सुख-दुःखका भी अपनेपर असर न हो - यह भी उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य नहीं है।


उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य है कि जैसे शरीरमें आसक्त अज्ञानी पुरुषके शरीरमें पीड़ा होनेपर उस पीड़ाको दूर करनेमें और सुख पहुँचानेमें उसकी जैसी चेष्टा होती है, तत्परता होती है, ऐसे ही दूसरोंका दुःख दूर करनेमें और सुख पहुँचानेमें भक्तकी स्वाभाविक चेष्टा होती है, तत्परता होती है।


जैसे, किसीके हाथमें चोट लग गयी और वह लोक- समुदायमें जाता है तो उस पीड़ित हाथको धक्का न लग जाय, इसलिये दूसरे हाथको सामने रखकर उस पीड़ित हाथकी रक्षा करता है और उसको धक्का न लगे, ऐसा उद्योग करता है। परन्तु उसके मनमें कभी यह अभिमान नहीं आता कि मैं इस हाथकी पीड़ा दूर करनेवाला हूँ, इसको सुख पहुँचानेवाला हूँ। वह उस हाथपर ऐसा एहसान भी नहीं करता कि देख हाथ ! मैंने तेरी पीड़ा दूर करनेके लिये कितनी चेष्टा की ! पीड़ाको शान्त करनेपर वह अपनेमें विशेषताका भी अनुभव नहीं करता। ऐसे ही भक्तके द्वारा दुःखी प्राणियोंको सुख पहुँचानेकी चेष्टा स्वाभाविक होती है। उनके मनमें यह अभिमान नहीं आता कि मैं प्राणियोंका दुःख दूर कर रहा हूँ; दूसरोंको सुख पहुँचा रहा हूँ। उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा करनेपर वे स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। परन्तु उसके अन्तःकरणमें किंचिन्मात्र भी विषमता नहीं आती।"

"अपनेमें कोई विशेषता भी नहीं देखते। उनका स्वभाव ही दूसरोंका दुःख दूर करनेका, उनको सुख पहुँचानेका होता है।


भक्तके शरीरमें पीड़ा होती है, तो वह उसको सह सकता है और उसके द्वारा उस पीड़ाकी उपेक्षा भी हो सकती है; परन्तु दूसरेके शरीरमें पीड़ा हो तो उसको वह सह नहीं सकता। कारण कि जिसकी सर्वत्र भगवद्बुद्धि है, उस भक्तके अन्तःकरणमें तो पीड़ा सहनेकी शक्ति है पर दूसरोंके अन्तःकरणमें पीड़ा सहनेकी वैसी सामर्थ्य नहीं है। अतः उनके द्वारा दूसरोंके शरीरोंकी पीड़ा दूर करनेमें विशेष तत्परता होती है। जैसे, इन्द्रने बिना किसी अपराधके दधीचि ऋषिका सिर काट दिया। पीछे अश्विनीकुमारोंने उनको पुनः जिला दिया। परन्तु जब इन्द्रका काम पड़ा, तब दधीचिने अपना शरीर छोड़कर उनको (वज्र बनानेके लिये) अपनी हड्डियाँ दे दीं !


यहाँ शंका हो सकती है कि अपने शरीरके दुःखकी तो उपेक्षा होती है और दूसरोंके दुःखकी उपेक्षा नहीं होती - यह तो विषमता हो गयी! यह समता कहाँ रही ? इसका समाधान है कि वास्तवमें यह विषमता समताकी जनक है, समताको प्राप्त करानेवाली है। यह विषमता समतासे भी ऊँचे दर्जेकी चीज है। साधक साधन-अवस्थामें ऐसी विषमता करता है, तो सिद्ध-अवस्थामें भी उसकी ऐसी ही 'स योगी परमो मतः ' - उसकी दृष्टिमें सिवाय परमात्माके कुछ नहीं रहा। वह नित्ययोग (परमात्माके नित्यसम्बन्ध) और नित्यसमतामें स्थित रहता है। कारण कि सर्वत्र भगवद्बुद्धि होनेसे उसका परमात्मासे कभी वियोग होता ही नहीं और वह सभी अवस्थाओं तथा परिस्थितियोंमें एकरूप ही रहता है। अतः वह मुझे परमयोगी मान्य है।"

"परिशिष्ट भाव - जैसे साधारण मनुष्य शरीरमें अपनेको देखता है, शरीरके किसी भी अंगकी पीड़ा न चाहकर, किसी भी अंगसे द्वेष न करके सब अंगोंको समानरूपसे अपना मानता है, ऐसे ही भक्त सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपने अंशी भगवान् को देखता है और सबका दुःख दूर करने तथा सुख पहुँचानेकी समानरूपसे स्वाभाविक चेष्टा करता है। वह वस्तु, योग्यता और सामर्थ्यको अपनी न मानकर भगवान् की मानता है। जैसे गंगाजलसे गंगाका पूजन किया जाय, दीपकसे सूर्यका पूजन किया जाय, ऐसे ही भक्त भगवान् की वस्तुको भगवान् की सेवामें अर्पित


करता है- 'त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये'।


जैसे शरीरके सब अंगोंसे यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी उनमें आत्मबुद्धि एक ही रहती है तथा उन अंगोंकी पीड़ा दूर करने तथा उनको सुख पहुँचानेकी चेष्टा भी समान ही रहती है, ऐसे ही 'जैसा देव, वैसी पूजा' के अनुसार ब्राह्मण और चाण्डाल, साधु और कसाई, गाय और कुत्ता आदि सबसे शास्त्रमर्यादाके अनुसार यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी भक्तकी भगवद्बुद्धिमें तथा उनका दुःख दूर करने और उनको सुख पहुँचानेकी चेष्टामें कोई अन्तर नहीं आता।


जैसे भक्त सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्माके साथ भगवान् की एकता मानता है (इसी अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक), ऐसे ही वह सब शरीरोंकी भी अपने शरीरके साथ एकता मानता है। इसलिये वह दूसरेके दुःखसे दुःखी और सुखसे सुखी होता है- 'पर दुख दुख सुख सुख देखे पर' (मानस, उत्तर० ३८। १)। वह अपने शरीरके सुख- दुःखकी तरह सबके सुख-दुःखको अपना ही सुख-दुःख समझता है। "

"दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेका तात्पर्य खुद दुःखी होना नहीं है, प्रत्युत दूसरेका दुःख दूर करनेकी चेष्टा करना है। इसी तरह खुद सुखी होनेके लिये दूसरेका दुःख दूर नहीं करना है, प्रत्युत करुणा करके दूसरेको सुखी करनेकी चेष्टा करना है। तात्पर्य है कि खुद सुखका भोग नहीं करना है, प्रत्युत 'दूसरेका दुःख दूर हो गया, वह सुखी हो गया' - इसको लेकर प्रसन्न होना है। 


आँख और पैरका भेद इतना है कि आँखोंसे देखते हैं और पैरोंसे चलते हैं; आँख ज्ञानेन्द्रिय है और पैर कर्मेन्द्रिय है। इतना भेद होते हुए भी अभिन्नता इतनी है कि काँटा पैरमें लगता है, आँसू आँखोंमें आ जाते हैं और मिट्टी आँखमें पड़ती है, लड़खड़ाते पैर हैं! तात्पर्य है कि हम शरीरको संसारसे और संसारको शरीरसे अलग नहीं कर सकते। इसलिये अगर हम शरीरकी परवाह करते हैं तो वैसे ही संसारकी भी परवाह करें और अगर संसारकी बेपरवाह करते हैं तो वैसे ही शरीरकी भी बेपरवाह करें। दोनों बातोंमें चाहे कोई मान लें, इसीमें ईमानदारी है !


सम्बन्ध-जिस समताकी प्राप्ति सांख्ययोग और कर्मयोगके द्वारा होती है, उसी समताकी प्राप्ति ध्यानयोगके द्वारा भी होती है - इसको भगवान् ने दसवें श्लोकसे उनतीसवें श्लोकतक बताया। अब अर्जुन ध्यानयोगसे प्राप्त समताको लेकर आगेके दो श्लोकोंमें अपनी मान्यता प्रकट करते हैं।"

"कल के एपिसोड में हम जानेंगे अध्याय 6, श्लोक 33 के बारे में, जहाँ अर्जुन अपने संदेह व्यक्त करते हैं और भगवान श्रीकृष्ण उन्हें समाधान प्रदान करते हैं। जुड़े रहिए इस ज्ञानमय यात्रा में!


तो दोस्तों, आज का श्लोक हमें यह सिखाता है कि आत्मा की समानता को समझें और सभी के प्रति करुणा का भाव रखें। अगर आपको यह वीडियो पसंद आया हो तो इसे लाइक करें, शेयर करें, और हमारे चैनल को सब्सक्राइब करें। कल फिर मिलेंगे एक नए श्लोक के साथ। धन्यवाद!"

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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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