ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 33 - सीखें आत्मा की शक्ति

 


"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका भगवद गीता की अद्भुत यात्रा में, जहाँ हम अध्याय 6 के श्लोक 33 का रहस्य समझेंगे। आज हम जानेंगे कि कैसे भगवान कृष्ण अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हैं और आत्मा की स्थिरता के महत्व को समझाते हैं। तो चलिए शुरू करते हैं!


पिछले एपिसोड में, हमने अध्याय 6 श्लोक 32 पर चर्चा की थी, जहाँ भगवान कृष्ण ने बताया था कि सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखने वाला ही सच्चा योगी है। अगर आपने वह वीडियो नहीं देखा है, तो उसे जरूर देखें।


आज का श्लोक 33 अर्जुन की उस उलझन को दर्शाता है जहाँ वे योग और अभ्यास की कठिनाई को लेकर भगवान कृष्ण से मार्गदर्शन मांगते हैं। यह श्लोक हमें बताता है कि साधना के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को कैसे पार किया जा सकता है।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 33"

"मनकी चंचलताके कारण अर्जुनका समत्वयोगकी स्थिरताको और मनके निग्रहको अत्यन्त कठिन मानना ।


(श्लोक-३३)


अर्जुन उवाच


योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥


उच्चारण की विधि - यः, अयम्, योगः, त्वया, प्रोक्तः, साम्येन, मधुसूदन, एतस्य, अहम्, न, पश्यामि, चञ्चलत्वात्, स्थितिम्, स्थिराम् ॥ ३३ ॥


शब्दार्थ - मधुसूदन अर्थात् हे मधुसूदन !, यः अर्थात् जो, अयम् अर्थात् यह, योगः अर्थात् योग, त्वया अर्थात् आपने, साम्येन अर्थात् समभावसे, प्रोक्तः अर्थात् कहा है (मनके), चञ्चलत्वात् अर्थात् चंचल होनेसे, अहम् अर्थात् मैं, एतस्य अर्थात् इसकी, स्थिराम् अर्थात् नित्य, स्थितिम् अर्थात् स्थितिको, न अर्थात् नहीं, पश्यामि अर्थात् देखता हूँ।


अर्थ - अर्जुन बोले—हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभावसे कहा है, मनके चञ्चल होनेसे मैं इसकी नित्य स्थितिको नहीं देखता हूँ ॥ ३३॥"

व्याख्या [मनुष्यके कल्याणके लिये भगवान् ने गीतामें खास बात बतायी कि सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्ति- अप्राप्तिको लेकर चित्तमें समता रहनी चाहिये। इस समतासे मनुष्यका कल्याण होता है। अर्जुन पापोंसे डरते थे तो उनके लिये भगवान् ने कहा कि 'जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर तुम युद्ध करो, फिर तुम्हारेको पाप नहीं लगेगा' (गीता-दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक)। जैसे दुनियामें बहुत-से पाप होते रहते हैं, पर वे पाप हमें नहीं लगते; क्योंकि उन पापोंमें हमारी विषम-बुद्धि नहीं होती, प्रत्युत समबुद्धि रहती है। ऐसे ही समबुद्धिपूर्वक सांसारिक काम करनेसे कर्मोंसे बन्धन नहीं होता। इसी भावसे भगवान् ने इस अध्यायके आरम्भमें कहा है कि जो कर्मफलका आश्रय न लेकर कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी और योगी है। इसी कर्मफल-त्यागकी सिद्धि भगवान् ने 'समता' बतायी (छठे अध्यायका नवाँ श्लोक)। इस समताकी प्राप्तिके लिये भगवान् ने दसवें श्लोकसे बत्तीसवें श्लोकतक ध्यानयोगका वर्णन किया। इसी ध्यानयोगके वर्णनका लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ अपनी मान्यता प्रकट करते हैं।]

"योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन' - यहाँ अर्जुनने जो अपनी मान्यता बतायी है, वह पूर्वश्लोकको लेकर नहीं है, प्रत्युत ध्यानके साधनको लेकर है। कारण कि बत्तीसवाँ श्लोक ध्यानयोगद्वारा सिद्ध पुरुषका है और सिद्ध पुरुषकी समता स्वतः होती है। इसलिये यहाँ 'यः' पदसे इस प्रकरणसे पहले कहे हुए योग (समता) का संकेत है और 'अयम्' पदसे दसवें श्लोकसे अट्ठाईसवें श्लोकतक कहे हुए ध्यानयोगके साधनका संकेत है।


'एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्'-इन पदोंसे अर्जुनका यह आशय मालूम देता है कि कर्मयोगसे तो समताकी प्राप्ति सुगम है, पर यहाँ जिस ध्यानयोगसे समताकी प्राप्ति बतायी है, मनकी चंचलताके कारण उस ध्यानमें स्थिर स्थिति रहना मुझे बड़ा कठिन दिखायी देता है। तात्पर्य है कि जबतक मनकी चंचलताका नाश नहीं होगा, तबतक ध्यानयोग सिद्ध नहीं होगा और ध्यानयोग सिद्ध हुए बिना समताकी प्राप्ति नहीं होगी।


सम्बन्ध-जिस चंचलताके कारण अर्जुन अपने मनकी दृढ़ स्थिति नहीं देखते, उस चंचलताका आगेके श्लोकमें उदाहरणसहित स्पष्ट वर्णन करते हैं।"

"कल के एपिसोड में, हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 के श्लोक 34 पर, जहाँ अर्जुन आत्मा के चंचल स्वभाव पर अपने विचार रखते हैं। जानिए भगवान कृष्ण का दिव्य उत्तर।


दोस्तों, भगवद गीता के इस ज्ञान से हमें आत्मा की शक्ति और योग के महत्व को समझने का अवसर मिलता है। अगर आपको यह वीडियो पसंद आया हो, तो लाइक करें, सब्सक्राइब करें, और अपने विचार हमारे साथ साझा करें। कल मिलते हैं एक और दिव्य ज्ञान के साथ। धन्यवाद!"

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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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