ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 34 - आत्मनियंत्रण और ध्यान का महत्व

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार दोस्तों! श्रीमद्भगवद गीता के दिव्य ज्ञान से सजी इस श्रृंखला में आपका स्वागत है। आज हम अध्याय 6 के श्लोक 34 पर चर्चा करेंगे, जहां भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को आत्मनियंत्रण और ध्यान के महत्व का पाठ पढ़ाते हैं। आइए, इस दिव्य ज्ञान को समझें और अपने जीवन में उतारें।


पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 के श्लोक 33 पर चर्चा की थी, जहां अर्जुन ने भगवान से आत्म-संयम के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों पर सवाल पूछा था। अगर आपने वह वीडियो नहीं देखा है, तो ज़रूर देखें।


आज के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ध्यान और आत्मनियंत्रण के माध्यम से जीवन में संतुलन और शांति प्राप्त करने का रहस्य बता रहे हैं। चलिए, श्लोक 34 के इस अमृत ज्ञान को विस्तार से समझते हैं।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 34"

"(श्लोक-३४)


चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥


उच्चारण की विधि - चञ्चलम्, हि, मनः, कृष्ण, प्रमाथि, बलवत्, दृढम्, तस्य, अहम्, निग्रहम्, मन्ये, वायोः, इव, सुदुष्करम् ॥ ३४॥


शब्दार्थ - हि अर्थात् क्योंकि, कृष्ण अर्थात् हे श्रीकृष्ण ! (यह), मनः अर्थात् मन, चञ्चलम् अर्थात् बड़ा चंचल, प्रमाथि अर्थात् प्रमथन स्वभाववाला, दृढम् अर्थात् बड़ा दृढ़ (और), बलवत् अर्थात् बलवान् है, अतः अर्थात् इसलिये, तस्य अर्थात् उसका, निग्रहम् अर्थात् वशमें करना, अहम् अर्थात् मैं, वायोः अर्थात् वायुको रोकनेकी, इव अर्थात् भाँति, सुदुष्करम् अर्थात् अत्यन्त दुष्कर, मन्ये अर्थात् मानता हूँ।


अर्थ - क्योंकि हे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा चञ्चल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बलवान् है। इसलिये उसका वशमें करना मैं वायुको रोकनेकी भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ ॥ ३४ ॥"

"व्याख्या- 'चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम्'- यहाँ भगवान् को 'कृष्ण' सम्बोधन देकर अर्जुन मानो यह कह रहे हैं कि हे नाथ! आप ही कृपा करके इस मनको खींचकर अपनेमें लगा लें, तो यह मन लग सकता है। मेरेसे तो इसका वशमें होना बड़ा कठिन है! क्योंकि यह मन बड़ा ही चंचल है। चंचलताके साथ- साथ यह 'प्रमाथि' भी है अर्थात् यह साधकको अपनी स्थितिसे विचलित कर देता है। यह बड़ा जिद्दी और बलवान् भी है।


भगवान् ने 'काम' (कामना) के रहनेके पाँच स्थान बताये हैं- इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, विषय और स्वयं (गीता - तीसरे अध्यायका चालीसवाँ तथा चौंतीसवाँ और दूसरे अध्यायका उनसठवाँ श्लोक) । वास्तवमें काम स्वयंमें अर्थात् चिज्जड़-ग्रन्थिमें रहता है और इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा विषयोंमें इसकी प्रतीति होती है। काम जबतक स्वयंसे निवृत्त नहीं होता, तबतक यह काम समय- समयपर इन्द्रियों आदिमें प्रतीत होता रहता है। पर जब यह स्वयंसे निवृत्त हो जाता है, तब इन्द्रियों आदिमें भी यह नहीं रहता। इससे यह सिद्ध होता है कि जबतक स्वयंमें काम रहता है, तबतक मन साधकको व्यथित करता रहता है। अतः यहाँ मनको 'प्रमाथि' बताया गया है। ऐसे ही स्वयंमें काम रहनेके कारण इन्द्रियाँ साधकके मनको व्यथित करती रहती हैं। इसलिये दूसरे अध्यायके साठवें श्लोकमें इन्द्रियोंको भी प्रमाथि बताया गया है - 'इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः'। तात्पर्य यह हुआ कि जब कामना मन और इन्द्रियोंमें आती है, तब वह साधकको महान् व्यथित कर देती है, जिससे साधक अपनी स्थितिपर नहीं रह पाता।"

"उस कामके स्वयंमें रहनेके कारण मनका पदार्थोंके प्रति गाढ़ खिंचाव रहता है। इससे मन किसी तरह भी उनकी ओर जानेको छोड़ता नहीं, हठ कर लेता है; अतः मनको दृढ़ कहा है। मनकी यह दृढ़ता बहुत बलवती होती है; अतः मनको 'बलवत्' कहा है। तात्पर्य है कि मन बड़ा बलवान् है, जो कि साधकको जबर्दस्ती विषयोंमें ले जाता है। शास्त्रोंने तो यहाँतक कह दिया है कि मन ही मनुष्योंके मोक्ष और बन्धनमें कारण है- 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।' परन्तु मनमें यह प्रमथनशीलता, दृढ़ता और बलवत्ता तभीतक रहती है, जबतक साधक अपनेमेंसे कामको सर्वथा निकाल नहीं देता। जब साधक स्वयं कामरहित हो जाता है, तब पदार्थोंका, विषयोंका कितना ही संसर्ग होनेपर भी साधकपर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ता। फिर मनकी प्रमथनशीलता आदि नष्ट हो जाती है।


मनकी चंचलता भी तभीतक बाधक होती है, जबतक स्वयंमें कुछ भी कामका अंश रहता है। कामका अंश सर्वथा निवृत्त होनेपर मनकी चंचलता किंचिन्मात्र भी बाधक नहीं होती। शास्त्रकारोंने कहा है-


देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि । यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥


(सरस्वतीरहस्योपनिषद् ३१)


अर्थात् देहाभिमान (जडके साथ मैं-पन) सर्वथा मिट जानेपर जब परमात्मतत्त्वका बोध हो जाता है, तब जहाँ- जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ परमात्मतत्त्वका अनुभव होता है अर्थात् उसकी अखण्ड समाधि (सहज समाधि) रहती है।


'तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्' - इस चंचल, प्रमाथि, दृढ़ और बलवान् मनका निग्रह करना बड़ा कठिन है। "

"जैसे आकाशमें विचरण करते हुए वायुको कोई मुट्ठीमें नहीं पकड़ सकता, ऐसे ही इस मनको कोई पकड़ नहीं सकता। अतः इसका निग्रह करनेको मैं महान् दुष्कर मानता हूँ।


परिशिष्ट भाव - भगवान् ने उनतीसवें श्लोकमें स्वरूपका ध्यान करनेवाले साधकका अनुभव बताया और तीसवेंसे बत्तीसवें श्लोकोंमें सगुण-साकार भगवान् का ध्यान करनेवाले साधकका अनुभव बताया। इन श्लोकोंमें भगवान् का आशय यह था कि सबमें आत्मदर्शन अथवा सबमें भगवद्दर्शन करना ही ध्यानयोगका अन्तिम फल है। ज्ञानके संस्कारवाले ध्यानयोगी सबमें आत्माको और भक्तिके संस्कारवाले ध्यानयोगी सबमें भगवान् को देखते हैं। सबमें आत्माको देखना 'आत्मज्ञान' है और सबमें भगवान् को देखना 'परमात्मज्ञान' है। आत्मज्ञानमें विवेककी और परमात्मज्ञानमें श्रद्धा-विश्वासकी मुख्यता है, मनकी स्थिरताकी मुख्यता नहीं है। परन्तु अर्जुनके भीतर दसवेंसे अट्ठाईसवें श्लोकतक कहे ध्यानयोगका संस्कार बैठा था; अतः उन्होंने आत्मज्ञान अथवा परमात्मज्ञान न होनेमें मनकी चंचलताको हेतु मान लिया। उनकी दृष्टि ध्यानयोगीके भीतरके ज्ञान या भक्तिके संस्कारकी तरफ नहीं गयी, प्रत्युत मनकी चंचलताकी तरफ गयी। अतः उन्होंने मनकी चंचलताको बाधक मान लिया। 


सम्बन्ध-अब आगेके श्लोकमें भगवान् अर्जुनकी मान्यताका अनुमोदन करते हुए मनके निग्रहके उपाय बताते हैं।"

"दोस्तों, कल के वीडियो में हम अध्याय 6 के श्लोक 35 पर चर्चा करेंगे, जिसमें श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्न का गहराई से उत्तर देते हैं और आत्मनियंत्रण की शक्ति का महत्व समझाते हैं।


अगर आपको हमारा यह प्रयास पसंद आया हो, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करें, और चैनल को सब्सक्राइब करें। अपनी राय और सवाल हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं। कल मिलते हैं नए श्लोक के साथ। जय श्री कृष्ण!"

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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