ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 35 - आत्मा की विजय की ओर एक कदम
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका 'गीता के ज्ञान' के एक और विशेष एपिसोड में। आज हम भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए अध्याय 6, श्लोक 35 के गूढ़ संदेश को समझेंगे। इस श्लोक में जीवन की चुनौतियों का सामना आत्मसंयम और धैर्य से करने की अद्भुत शक्ति छिपी है। तो चलिए, इस ज्ञान यात्रा को आगे बढ़ाते हैं।
पिछले एपिसोड में, हमने चर्चा की थी अध्याय 6 के श्लोक 34 की। उसमें हमने मन को वश में करने और ध्यान के महत्व को समझा। अगर आपने वो एपिसोड नहीं देखा है, तो अभी जाकर देखें।
आज के श्लोक में भगवान कृष्ण अर्जुन को यह बता रहे हैं कि धैर्य और आत्मसंयम ही किसी भी चुनौती को पार करने का मार्ग है। यह श्लोक हमारे जीवन को नई दृष्टि से देखने में सहायक है।"
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 35"
"अभ्यास और वैराग्यसे मन वशमें होनेका कथन ।
(श्लोक-३५)
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
उच्चारण की विधि - असंशयम्, महाबाहो, मनः, दुर्निग्रहम्, चलम्, अभ्यासेन, तु, कौन्तेय, वैराग्येण, च, गृह्यते ॥ ३५ ॥
इस प्रकार अर्जुनके पूछनेपर श्रीभगवान् बोले-
शब्दार्थ - महाबाहो अर्थात् हे महाबाहो !, असंशयम् अर्थात् निःसन्देह, मनः अर्थात् मन, चलम् अर्थात् चंचल (और), दुर्निग्रहम् अर्थात् कठिनतासे वशमें होनेवाला है, तु अर्थात् परंतु, कौन्तेय अर्थात् हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! (यह), अभ्यासेन अर्थात् अभ्यास, च अर्थात् और, वैराग्येण अर्थात् वैराग्यसे, गृह्यते अर्थात् वशमें होता है।
अर्थ - श्रीभगवान् बोले – हे महाबाहो ! निःसन्देह मन चञ्चल और कठिनतासे वशमें होनेवाला है; परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास * और वैराग्यसे वशमें होता है ॥ ३५ ॥"
"व्याख्या-'असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्'- यहाँ 'महाबाहो' सम्बोधनका तात्पर्य शूरवीरता बतानेमें है अर्थात् अभ्यास करते हुए कभी उकताना नहीं चाहिये। अपनेमें धैर्यपूर्वक वैसी ही शूरवीरता रखनी चाहिये। अर्जुनने पहले चंचलताके कारण मनका निग्रह करना बड़ा कठिन बताया। उसी बातपर भगवान् कहते हैं कि तुम जो कहते हो, वह एकदम ठीक बात है, निःसन्दिग्ध बात है; क्योंकि मन बड़ा चंचल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है।
'अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते' - अर्जुनकी माता कुन्ती बहुत विवेकवती तथा भोगोंसे विरक्त रहनेवाली थीं। कुन्तीने भगवान् श्रीकृष्णसे विपत्तिका वरदान माँगा था*।
* विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो । भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥ (श्रीमद्भा० १।८।२५)
'हे जगद्गुरो ! हमारे जीवनमें सर्वदा पद-पदपर विपत्तियाँ आती रहें, जिससे हमें पुनः संसारकी प्राप्ति न करानेवाले आपके दुर्लभ दर्शन मिलते रहें।'
ऐसा वरदान माँगनेवाला इतिहासमें बहुत कम मिलता है। अतः यहाँ 'कौन्तेय' सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनको कुन्ती माताकी याद दिलाते हैं कि जैसे तुम्हारी माता कुन्ती बड़ी विरक्त है, ऐसे ही तुम भी संसारसे विरक्त होकर परमात्मामें लगो अर्थात् मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगाओ। मनको बार-बार ध्येयमें लगानेका नाम 'अभ्यास' है। इस अभ्यासकी सिद्धि समय लगानेसे होती है। समय भी निरन्तर लगाया जाय, रोजाना लगाया जाय। कभी अभ्यास किया, कभी नहीं किया- ऐसा नहीं हो। तात्पर्य है कि अभ्यास निरन्तर होना चाहिये और अपने ध्येयमें महत्त्व तथा आदर-बुद्धि होनी चाहिये। इस तरह अभ्यास करनेसे अभ्यास दृढ़ हो जाता है।"
"अभ्यासके दो भेद हैं- (१) अपना जो लक्ष्य, ध्येय है, उसमें मनोवृत्तिको लगाये और दूसरी वृत्ति आ जाय अर्थात् दूसरा कुछ भी चिन्तन आ जाय, उसकी उपेक्षा कर दे, उससे उदासीन हो जाय।
(२) जहाँ-जहाँ मन चला जाय, वहाँ-वहाँ ही अपने लक्ष्यको, इष्टको देखे।
उपर्युक्त दो साधनोंके सिवाय मन लगानेके कई उपाय हैं; जैसे-
(१) जब साधक ध्यान करनेके लिये बैठे, तब सबसे पहले दो-चार श्वास बाहर फेंककर ऐसी भावना करे कि मैंने मनसे संसारको सर्वथा निकाल दिया, अब मेरा मन संसारका चिन्तन नहीं करेगा, भगवान् का ही चिन्तन करेगा और चिन्तनमें जो कुछ भी आयेगा, वह भगवान् का ही स्वरूप होगा। भगवान् के सिवाय मेरे मनमें दूसरी बात आ ही नहीं सकती। अतः भगवान् का स्वरूप वही है, जो मनमें आ जाय और मनमें जो आ जाय, वही भगवान् का स्वरूप है- यह 'वासुदेवः सर्वम्' का सिद्धान्त है। ऐसा होनेपर मन भगवान् में ही लगेगा; और लगेगा ही कहाँ ?
(२) भगवान् के नामका जप करे, पर जपमें दो बातोंका खयाल रखे - एक तो नामके उच्चारणमें समय खाली न जाने दे अर्थात् 'रा....म....रा....म' इस तरह नामका भले ही धीरे-धीरे उच्चारण करे, पर बीचमें समय खाली न जाने दे और दूसरे, नामको सुने बिना न जाने दे अर्थात् जपके साथ-साथ उसको सुने भी।
(३) जिस नामका उच्चारण किया जाय, मनसे उस नामकी निगरानी रखे अर्थात् उस नामको अंगुली अथवा मालासे न गिनकर मनसे ही नामका उच्चारण करे और मनसे ही नामकी गिनती करे।
(४) एक नामका तो वाणीसे उच्चारण करे और दूसरे नामका मनसे जप करे; जैसे- वाणीसे तो 'राम-राम-राम' का उच्चारण करे और मनसे 'कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण' का जप करे।
(५) जैसे राग-रागिनीके साथ बोलकर नामका कीर्तन करते हैं, ऐसे ही राग-रागिनीके साथ मनसे नामका कीर्तन करे।"
"(६) चरणोंसे लेकर मुकुटतक और मुकुटसे लेकर चरणोंतक भगवान् के स्वरूपका चिन्तन करे।
(७) भगवान् मेरे सामने खड़े हैं- ऐसा समझकर भगवान् के स्वरूपका चिन्तन करे। भगवान् के दाहिने चरणकी पाँच अंगुलियोंपर मनसे ही पाँच नाम लिख दे। अंगुलियोंके ऊपरका जो भाग है, उसपर लम्बाईमें तीन नाम लिख दे। चरणोंकी पिण्डीका जो आरम्भ है, उस पिण्डीकी सन्धिपर दो नामोंके कड़े बना दे। फिर पिण्डीपर लम्बाईमें तीन नाम लिख दे। घुटनेके नीचे और ऊपर एक-एक नामका गोल कड़ा बना दे अर्थात् गोलाकार नाम लिख दे। ऊरु (जंघा) पर लम्बाईमें तीन नाम लिख दे। आधी (दाहिने तरफकी) कमरमें दो नामोंकी करधनी बना दे। तीन नाम पसलीपर लिख दे। दो नाम कन्धेपर और तीन नाम बाजूपर (भुजाके ऊपरके भागपर) लिख दे। कोहनीके ऊपर और नीचे दो-दो नामोंका कड़ा बना दे। फिर तीन नाम (कोहनीके नीचे) पहुँचासे ऊपरके भागपर लिख दे। पहुँचामें दो नामोंका कड़ा बना दे तथा पाँच अंगुलियोंपर पाँच नाम लिख दे। गलेमें चार नामोंका आधा हार और कानमें दो नामोंका कुण्डल बना दे। मुकुटके दाहिने आधे भागपर छः नाम लिख दे अर्थात् नीचेके भागपर दो नामोंका कड़ा, मध्यभागपर दो नामोंका कड़ा और ऊपरके भागपर दो नामोंका कड़ा बना दे। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान् के दाहिने अंगमें चरणसे लेकर मुकुटतक चौवन नाम अथवा मन्त्र आने चाहिये और बायें अंगमें मुकुटसे लेकर चरणतक चौवन नाम अथवा मन्त्र आने चाहिये। इससे भगवान् की एक परिक्रमा हो जाती है, भगवान् के सम्पूर्ण अंगोंका चिन्तन हो जाता है और एक सौ आठ नामोंकी एक माला भी हो जाती है। प्रतिदिन ऐसी कम-से-कम एक माला करनी चाहिये। इससे अधिक करना चाहें, तो अधिक भी कर सकते हैं। इस तरह अभ्यास करनेके अनेक रूप, अनेक तरीके हैं। ऐसे तरीके साधक स्वयं भी सोच सकता है।"
"अभ्यासकी सहायताके लिये 'वैराग्य' की जरूरत है। कारण कि संसारके भोगोंसे राग जितना हटेगा, मन उतना परमात्मामें लगेगा। संसारका राग सर्वथा हटनेपर मनमें संसारका रागपूर्वक चिन्तन नहीं होगा। अतः पुराने संस्कारोंके कारण कभी कोई स्फुरणा हो भी जाय, तो उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात् उसमें न राग करे और न द्वेष करे। फिर वह स्फुरणा अपने-आप मिट जायगी। इस तरह अभ्यास और वैराग्यसे मनका निग्रह हो जाता है, मन पकड़ा जाता है।
वैराग्य होनेके कई उपाय हैं; जैसे-
१- संसार प्रतिक्षण बदलता है और स्वरूप कभी भी तथा किसी भी क्षण बदलता नहीं। अतः संसार हमारे साथ नहीं है और हम संसारके साथ नहीं हैं। जैसे, बाल्यावस्था, युवावस्था हमारे साथ नहीं रही, परिस्थिति हमारे साथ नहीं रही, आदि। ऐसा विचार करनेपर संसारसे वैराग्य होता है।
२-अपने कहलानेवाले जितने कुटुम्बी, सम्बन्धी हैं, वे हमारेसे अनुकूलताकी इच्छा रखते हैं तो अपनी शक्ति, सामर्थ्य, योग्यता, समझके अनुसार उनकी न्याययुक्त इच्छा पूरी कर दे और परिश्रम करके उनकी सेवा कर दे; परन्तु उनसे अपनी अनुकूलताकी तथा कुछ लेनेकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दे। इस तरह अपनी सामर्थ्यके अनुसार वस्तु देनेसे और परिश्रम करके सेवा करनेसे पुराना राग मिट जाता है और उनसे कुछ भी न चाहनेसे नया राग पैदा नहीं होता। इससे स्वाभाविक संसारसे वैराग्य हो जाता है।
३-जितने भी दोष, पाप, दुःख पैदा होते हैं, वे सभी संसारके रागसे ही पैदा होते हैं और जितना सुख, शान्ति मिलती है, वह सब राग-रहित होनेसे ही मिलती है। ऐसा विचार करनेसे वैराग्य हो ही जाता है।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें अभ्यास और वैराग्यद्वारा मनके निग्रहकी बात कहकर अब आगेके श्लोकमें भगवान् ध्यानयोगकी प्राप्तिमें अन्वय-व्यतिरेकसे अपना मत बताते हैं।"
"कल के एपिसोड में, हम अध्याय 6 के श्लोक 36 पर चर्चा करेंगे। इसमें भगवान श्रीकृष्ण यह बताएंगे कि साधना और समर्पण के बिना आत्मा की विजय संभव नहीं है।
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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