ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 37 - ध्यान और आत्म-साक्षात्कार

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार दोस्तों!

भगवद्गीता के अध्याय 6 का ज्ञान आज फिर लेकर आए हैं। क्या आप जानते हैं कि योग का पथ असफल हो जाए तो साधक का क्या होता है? आज हम इन सवालों के जवाब भगवान कृष्ण के श्लोक 37 से जानेंगे। चलिए इस अद्भुत यात्रा की शुरुआत करते हैं। पिछले एपिसोड में हमने ध्यान की महिमा और आत्मा के अद्वितीय गुणों को समझा। यदि आपने वह वीडियो नहीं देखा है, तो ज़रूर देखें। लिंक नीचे दिया गया है। आज हम श्लोक 37 पर चर्चा करेंगे। भगवान कृष्ण यहां यह समझा रहे हैं कि यदि साधक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचता, तो भी उसका प्रयास व्यर्थ नहीं होता।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 37"

"योगभ्रष्ट पुरुषकी गतिके सम्बन्धमें अर्जुनका प्रश्न और उसके उभयभ्रष्ट होनेकी शंका।


(श्लोक-३७)


अर्जुन उवाच


अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ 


उच्चारण की विधि - अयतिः, श्रद्धया, उपेतः, योगात्, चलितमानसः, अप्राप्य, योगसंसिद्धिम्, काम्, गतिम्, कृष्ण, गच्छति ॥ ३७॥


शब्दार्थ - कृष्ण अर्थात् हे श्रीकृष्ण!, श्रद्धया उपेतः अर्थात् जो योगमें श्रद्धा रखनेवाला है किंतु, अयतिः अर्थात् संयमी नहीं है (इस कारण = अन्तकालमें), योगात् अर्थात् जिसका मन योगसे, चलितमानसः अर्थात् विचलित हो गया है (ऐसा साधक योगी), योगसंसिद्धिम् अर्थात् योगकी सिद्धिको अर्थात् भगवत् साक्षात्कारको, अप्राप्य अर्थात् न प्राप्त होकर, काम् अर्थात् किस, गतिम् अर्थात् गतिको, गच्छति अर्थात् प्राप्त होता है।


अर्थ - अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण ! जो योगमें श्रद्धा रखनेवाला है; किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकालमें योगसे विचलित हो गया है, ऐसा साधक योगकी सिद्धिको अर्थात् भगवत्साक्षात्कारको न प्राप्त होकर किस गतिको प्राप्त होता है ॥ ३७॥"

"व्याख्या-'अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः '- जिसकी साधनमें अर्थात् जप, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदिमें रुचि है, श्रद्धा है और उनको करता भी है, पर अन्तःकरण और बहिःकरण वशमें न होनेसे साधनमें शिथिलता है, तत्परता नहीं है। ऐसा साधक अन्तसमयमें संसारमें राग रहनेसे, विषयोंका चिन्तन होनेसे अपने साधनसे विचलित हो जाय, अपने ध्येयपर स्थिर न रहे तो फिर उसकी क्या गति होती है ?


'अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति' - विषयासक्ति, असावधानीके कारण अन्तकालमें जिसका मन विचलित हो गया अर्थात् साधनासे हट गया और इस कारण उसको योगकी संसिद्धि - परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई तो फिर वह किस गतिको प्राप्त होता है ?


तात्पर्य है कि उसने पाप करना तो सर्वथा छोड़ दिया था; अतः वह नरकोंमें तो जा सकता नहीं और स्वर्गकी कामना न होनेसे स्वर्गमें भी जा सकता नहीं तथा श्रद्धापूर्वक साधनमें लगा हुआ होनेसे उसका पुनर्जन्म भी हो सकता नहीं। परन्तु अन्तसमयमें परमात्माकी स्मृति न रहनेसे, दूसरा चिन्तन होनेसे उसको परमात्माकी प्राप्ति भी नहीं हुई, तो फिर उसकी क्या गति होगी? वह कहाँ जायगा ?"

"कृष्ण' सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप सम्पूर्ण प्राणियोंको खींचनेवाले हैं और उन प्राणियोंकी गति- आगतिको जाननेवाले हैं तथा इन गतियोंके विधायक हैं। अतः मैं आपसे पूछता हूँ कि योगसे विचलित हुए साधकको आप किधर खींचेंगे ? उसको आप कौन-सी गति देंगे ?


परिशिष्ट भाव-करणसापेक्ष साधनमें मनको साथ लेकर स्वरूपमें स्थिति होती है- 'यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते' (गीता ६ । १८) । अतः मनके साथ सम्बन्ध रहनेसे विचलितमना होकर योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती है। करणको अपना माननेसे ही करणसापेक्ष साधन होता है। ध्यानयोगी मन (करण)-को अपना मानकर उसको परमात्मामें लगाता है। मन लगानेसे ही वह योगभ्रष्ट होता है। अतः योगभ्रष्ट होनेमें करणसापेक्षता कारण है। यह करणसापेक्षता कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनों ही साधनोंमें नहीं है।


ध्यानयोगीका पुनर्जन्म होता है - मनके विचलित होनेसे अर्थात् अपने साधनसे भ्रष्ट होनेसे, पर कर्मयोगी अथवा ज्ञानयोगीका पुनर्जन्म होता है- सांसारिक आसक्ति रहनेसे। भक्तियोगमें भगवान् का आश्रय रहनेसे भगवान् अपने भक्तकी विशेष रक्षा करते हैं- 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' (गीता ९। २२), 'मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि' (गीता १८। ५८) ।"

"कल हम श्लोक 38 पर चर्चा करेंगे, जहाँ भगवान कृष्ण असफल साधक के भविष्य और उसकी संभावनाओं पर प्रकाश डालेंगे।


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प्रश्न: क्या आप अपने जीवन में इस श्लोक को लागू कर सकते हैं? नीचे कमेंट में बताएं।

कल मिलते हैं। तब तक 'हरि ओम।"

दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||


क्या आप जीवन की कठिनाइयों से जूझ रहे हैं? श्रीमद्भगवद्गीता में आपकी सभी समस्याओं का समाधान छुपा है। इस वीडियो में जानिए कैसे भगवद्गीता के अध्याय और श्लोक आपकी समस्याओं का समाधान दे सकते हैं। चाहे वो डर हो, लालच, क्रोध, आलस्य, या शांति की तलाश—हर समस्या का उत्तर यहाँ मिलेगा।

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