ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 38 - आत्म-संयम और ध्यान की असफलता

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार दोस्तों!

नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहाँ हम भगवद गीता के गहरे अर्थों को सरलता से समझाने की कोशिश करते हैं। आज के एपिसोड में हम बात करेंगे अध्याय 6 के श्लोक 38 पर, जो आत्म-संयम और अध्यात्मिक सफलता पर केंद्रित है। तो चलिए, शुरुआत करते हैं।  पिछली वीडियो में हमने चर्चा की थी अध्याय 6 श्लोक 37 की, जिसमें भगवान कृष्ण ने अध्यात्मिक साधना में असफल होने वाले व्यक्ति के भविष्य पर प्रकाश डाला। अगर आपने वो वीडियो नहीं देखी है, तो अभी जाकर देखें। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 श्लोक 38 की, जिसमें भगवान कृष्ण आत्म-संयम और ध्यान में असफल होने पर व्यक्ति के अगले जन्म की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं। आइए, इस श्लोक को समझें और जानें कि यह हमारे जीवन में कैसे लागू होता है। अगली वीडियो में हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 श्लोक 39 की, जो अध्यात्मिक ज्ञान की गहराइयों को और स्पष्ट करता है। जुड़े रहिए और हमारे साथ इस ज्ञान की यात्रा में आगे बढ़िए।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 38"

"(श्लोक-३८)


कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्-छिन्नाभ्रमिव नश्यति । अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ 


उच्चारण की विधि - कच्चित्, न, उभयविभ्रष्टः, छिन्नाभ्रम्, इव, नश्यति, अप्रतिष्ठः, महाबाहो, विमूढः, ब्रह्मणः, पथि ॥ ३८ ॥


शब्दार्थ - महाबाहो अर्थात् हे महाबाहो !, कच्चित् अर्थात् क्या (वह), ब्रह्मणः अर्थात् भगवत्प्राप्तिके, पथि अर्थात् मार्गमें, विमूढः अर्थात् मोहित (और), अप्रतिष्ठः अर्थात् आश्रयरहित पुरुष, छिन्नाभ्रम् अर्थात् छिन्न-भिन्न बादलकी, इव अर्थात् भाँति, उभयविभ्रष्टः अर्थात् दोनों ओरसे भ्रष्ट होकर, न नश्यति अर्थात् नष्ट तो नहीं हो जाता।


अर्थ - हे महाबाहो ! क्या वह भगवत्प्राप्तिके मार्गमें मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादलकी भाँति दोनों ओरसे भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता ? ॥ ३८ ॥"

"व्याख्या [अर्जुनने पूर्वोक्त श्लोकमें 'कां गतिं कृष्ण गच्छति' कहकर जो बात पूछी थी, उसीका इस श्लोकमें खुलासा पूछते हैं।]


'अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ' - वह सांसारिक प्रतिष्ठा (स्थिति) से तो जानकर रहित हुआ है अर्थात् उसने संसारके सुख-आराम, आदर-सत्कार, यश- प्रतिष्ठा आदिकी कामना छोड़ दी है, इनको प्राप्त करनेका उसका उद्देश्य ही नहीं रहा है। इस तरह संसारका आश्रय छोड़कर वह परमात्मप्राप्तिके मार्गपर चला; पर जीवित- अवस्थामें परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई और अन्तसमयमें साधनसे विचलित हो गया अर्थात् परमात्माकी स्मृति नहीं रही।


'कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति' - ऐसा वह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ अर्थात् सांसारिक और पारमार्थिक-दोनों उन्नतियोंसे रहित हुआ साधक छिन्न- भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता ? तात्पर्य है कि जैसे किसी बादलके टुकड़ेने अपने बादलको तो छोड़ दिया और दूसरे बादलतक वह पहुँचा नहीं, वायुके कारण बीचमें ही छिन्न-भिन्न हो गया। ऐसे ही साधकने संसारके आश्रयको तो छोड़ दिया और अन्तसमयमें परमात्माकी स्मृति नहीं रही, फिर वह नष्ट तो नहीं हो जाता ? उसका पतन तो नहीं हो जाता ?


बादलका दृष्टान्त यहाँ पूरा नहीं बैठता। कारण कि वह बादलका टुकड़ा जिस बादलसे चला, वह बादल और जिसके पास जा रहा था, वह बादल तथा वह स्वयं (बादलका टुकड़ा)- ये तीनों एक ही जातिके हैं अर्थात् तीनों ही जड़ हैं। "

"परन्तु जिस साधकने संसारको छोड़ा, वह संसार और जिसकी प्राप्तिके लिये चला वह परमात्मा तथा वह स्वयं (साधक) - ये तीनों एक जातिके नहीं हैं।  इन तीनोंमें संसार जड़ है और परमात्मा तथा स्वयं चेतन हैं। इसलिये 'पहला आश्रय छोड़ दिया और दूसरा प्राप्त नहीं हुआ'- इस विषयमें ही उपर्युक्त दृष्टान्त ठीक बैठता है।


इस श्लोकमें अर्जुनके प्रश्नका आशय यह है कि साक्षात् परमात्माका अंश होनेसे जीवका अभाव तो कभी हो ही नहीं सकता। अगर इसके भीतर संसारका उद्देश्य होता, संसारका आश्रय होता, तो यह स्वर्ग आदि लोकोंमें अथवा नरकोंमें तथा पशु-पक्षी आदि आसुरी योनियोंमें चला जाता, पर रहता तो संसारमें ही है। उसने संसारका आश्रय छोड़ दिया और उसका उद्देश्य केवल परमात्मप्राप्ति हो गया, पर प्राणोंके रहते-रहते परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई और अन्तकालमें किसी कारणसे उस उद्देश्यके अनुसार साधनमें स्थिति भी नहीं रही, परमात्मचिन्तन भी नहीं रहा, तो वह वहाँसे भी भ्रष्ट हो गया। ऐसा साधक किस गतिको जायगा ?


विशेष बात


अगर इस श्लोकमें 'परमात्माकी प्राप्तिसे और साधनसे भ्रष्ट (च्युत) हुआ'- ऐसा अर्थ लिया जाय, तो ऐसा कहना यहाँ बन ही नहीं सकता। कारण कि आगे जो बादलका दृष्टान्त दिया है, वह उपर्युक्त अर्थके साथ ठीक नहीं बैठता। बादलका टुकड़ा एक बादलको छोड़कर दूसरे बादलकी तरफ चला, पर दूसरे बादलतक पहुँचनेसे पहले बीचमें ही वायुसे छिन्न-भिन्न हो गया। "

"इस दृष्टान्तमें स्वयं बादलके टुकड़ेने ही पहले बादलको छोड़ा है अर्थात् अपनी पहली स्थितिको छोड़ा है और आगे दूसरे बादलतक पहुँचा नहीं, तभी वह उभयभ्रष्ट हुआ है। परन्तु साधकको तो अभी परमात्माकी प्राप्ति हुई ही नहीं, फिर उसको परमात्माकी प्राप्तिसे भ्रष्ट (च्युत) होना कैसे कहा जाय ?


दूसरी बात, साध्यकी प्राप्ति होनेपर साधक साध्यसे कभी च्युत हो ही नहीं सकता अर्थात् किसी भी परिस्थितिमें वह साध्यसे अलग नहीं हो सकता, उसको छोड़ नहीं सकता। अतः उसको साध्यसे च्युत कहना बनता ही नहीं। हाँ, अन्तसमयमें स्थिति न रहनेसे, परमात्माकी स्मृति न रहनेसे उसको 'साधनभ्रष्ट' तो कह सकते हैं, पर 'उभयभ्रष्ट' नहीं कह सकते। अतः यहाँ बादलके दृष्टान्तके अनुसार वही उभयभ्रष्ट लेना युक्तिसंगत बैठता है, जिसने संसारके आश्रयको जानकर ही अपनी ओरसे छोड़ दिया और परमात्माकी प्राप्तिके लिये चला, पर अन्तसमयमें किसी कारणसे परमात्माकी याद नहीं रही, साधनसे विचलितमना हो गया। इस तरह संसार और साधन-दोनोंमें उसकी स्थिति न रहनेसे ही वह उभयभ्रष्ट हुआ है। अर्जुनने भी सैंतीसवें श्लोकमें 'योगाच्चलितमानसः' कहा है और इस (अड़तीसवें) श्लोकमें 'अप्रतिष्ठः', 'विमूढो ब्रह्मणः पथि' और 'छिन्नाभ्रमिव' कहा है। इसका तात्पर्य यही है कि उसने संसारको छोड़ दिया और परमात्माकी प्राप्तिके साधनसे विचलित हो गया, मोहित हो गया।


सम्बन्ध-पूर्वोक्त सन्देहको दूर करनेके लिये अर्जुन आगेके श्लोकमें भगवान् से प्रार्थना करते हैं।"

अगली वीडियो में हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 श्लोक 39 की, जो अध्यात्मिक ज्ञान की गहराइयों को और स्पष्ट करता है। जुड़े रहिए और हमारे साथ इस ज्ञान की यात्रा में आगे बढ़िए। दोस्तों, अगर आपको ये वीडियो पसंद आई हो, तो इसे लाइक करें, शेयर करें और हमारे चैनल को सब्सक्राइब करना ना भूलें। अपनी राय और सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें। कल के एपिसोड में फिर मिलते हैं।

दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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