ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 40 - जीवन बदलने वाला ज्ञान #BhagavadGita
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका ‘गीता ज्ञान’ चैनल पर, जहाँ हम श्रीमद्भगवद गीता के हर श्लोक को सरल और प्रेरणादायक तरीके से समझते हैं। आज का श्लोक है अध्याय 6 श्लोक 40। चलिए, जानें भगवान श्रीकृष्ण की अमूल्य शिक्षाएं। पिछले वीडियो में हमने जाना कि भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा की शांति और योग साधना के महत्व को कैसे समझाया। अगर आपने वो वीडियो नहीं देखा है, तो पहले उसे ज़रूर देखें। आज के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को एक महत्वपूर्ण संदेश दे रहे हैं – असफलता से डरने की बजाय अपने प्रयास पर भरोसा करें। चलिए इसे विस्तार से समझते हैं।
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 40"
"अर्जुनकी शंकाके उत्तरमें योगभ्रष्ट पुरुषकी दुर्गतिका निषेध ।
(श्लोक-४०)
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति ॥
उच्चारण की विधि - पार्थ, न, एव, इह, न, अमुत्र, विनाशः, तस्य, विद्यते, न, हि, कल्याणकृत्, कश्चित्, दुर्गतिम्, तात, गच्छति ॥ ४०॥
शब्दार्थ - पार्थ अर्थात् हे पार्थ !, तस्य अर्थात् उस पुरुषका, न अर्थात् न (तो), इह अर्थात् इस लोकमें, विनाशः अर्थात् विनाश, विद्यते अर्थात् होता है (और), न अर्थात् न, अमुत्र अर्थात् परलोकमें, एव अर्थात् ही, हि अर्थात् क्योंकि, तात अर्थात् हे प्यारे !, कल्याणकृत् अर्थात् आत्मोद्धारके लिये अर्थात् भगवत्प्राप्तिके लिये कर्म करनेवाला, कश्चित् अर्थात् कोई भी मनुष्य, दुर्गतिम् अर्थात् दुर्गतिको, न गच्छति अर्थात् प्राप्त नहीं होता।
अर्थ - श्रीभगवान् बोले- हे पार्थ ! उस पुरुषका न तो इस लोकमें नाश होता है और न परलोकमें ही। क्योंकि हे प्यारे ! आत्मोद्धारके लिये अर्थात् भगवत्प्राप्तिके लिये कर्म करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता ॥ ४० ॥"
"व्याख्या [जिसको अन्तकालमें परमात्माका स्मरण नहीं होता, उसका कहीं पतन तो नहीं हो जाता- इस बातको लेकर अर्जुनके हृदयमें बहुत व्याकुलता है। यह व्याकुलता भगवान् से छिपी नहीं है। अतः भगवान् अर्जुनके 'कां गतिं कृष्ण गच्छति' - इस प्रश्नका उत्तर देनेसे पहले ही अर्जुनके हृदयकी व्याकुलता दूर करते हैं।] 'पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते' - हे पृथानन्दन ! सच्चे हृदयसे साधन करनेवाले मनुष्यका न तो इस जन्ममें पतन होता है और न मरनेके बाद ही पतन होता है (गीता- छठे अध्यायके इकतालीसवेंसे पैंतालीसवें श्लोकतक) । तात्पर्य है कि उसकी योगमें जितनी स्थिति बन चुकी है, उससे नीचे वह नहीं गिरता। उसकी साधन सामग्री नष्ट नहीं होती। उसका पारमार्थिक उद्देश्य नहीं बदलता। जैसे अनादिकालसे वह जन्मता- मरता रहा है, ऐसे ही आगे भी जन्मता-मरता रहे-उसका यह पतन नहीं होता।
जैसे भरत मुनि भारतवर्षका राज्य छोड़कर एकान्तमें तप करते थे। वहाँ दयापरवश होकर वे हरिणके बच्चेमें आसक्त हो गये, जिससे दूसरे जन्ममें उनको हरिण बनना पड़ा। परन्तु उन्होंने जितना त्याग, तप किया था, उनकी जितनी साधनकी पूँजी इकट्ठी हुई थी, वह उस हरिणके जन्ममें भी नष्ट नहीं हुई। उनको हरिणके जन्ममें भी पूर्वजन्मकी बात याद थी, जो कि मनुष्यजन्ममें भी नहीं रहती। अतः वे (हरिण-जन्ममें) बचपनसे ही अपनी माँके साथ नहीं रहे। वे हरे पत्ते न खाकर सूखे पत्ते खाते थे। तात्पर्य यह है कि अपनी स्थितिसे न गिरनेके कारण हरिणके जन्ममें भी उनका पतन नहीं हुआ (श्रीमद्भागवत, पाँचवाँ स्कन्ध, सातवाँ-आठवाँ अध्याय)। "
"इसी तरहसे पहले मनुष्यजन्ममें जिनका स्वभाव सेवा करनेका, जप- ध्यान करनेका रहा है और विचार अपना उद्धार करनेका रहा है, वे किसी कारणवश अन्तसमयमें योगभ्रष्ट हो जायँ तथा इस लोकमें पशु-पक्षी भी बन जायँ, तो भी उनका वह अच्छा स्वभाव और सत्संस्कार नष्ट नहीं होते। ऐसे बहुत-से उदाहरण आते हैं कि कोई दूसरे जन्ममें हाथी, ऊँट आदि बन गये, पर उन योनियोंमें भी वे भगवान् की कथा सुनते थे। एक जगह कथा होती थी, तो एक काला कुत्ता आकर वहाँ बैठता और कथा सुनता। जब कीर्तन करते हुए कीर्तन-मण्डली घूमती, तो उस मण्डलीके साथ वह कुत्ता भी घूमता था। यह हमारी देखी हुई बात है।
'न हि कल्याणकृत्कश्चिदुर्गतिं तात गच्छति' - भगवान् ने इस श्लोकके पूर्वार्धमें अर्जुनके लिये 'पार्थ' सम्बोधन दिया, जो आत्मीय सम्बन्धका द्योतक है। अर्जुनके सब नामोंमें भगवान् को यह 'पार्थ' नाम बहुत प्यारा था। अब उत्तरार्धमें उससे भी अधिक प्यारभरे शब्दोंमें भगवान् कहते हैं कि 'हे तात ! कल्याणकारी कार्य करनेवालेकी दुर्गति नहीं होती।' यह 'तात' सम्बोधन गीताभरमें एक ही बार आया है, जो अत्यधिक प्यारका द्योतक है।
इस श्लोकमें भगवान् ने मात्र साधकके लिये बहुत आश्वासनकी बात कही है कि जो कल्याणकारी काम करनेवाला है अर्थात् किसी भी साधनसे सच्चे हृदयसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करना चाहता है, ऐसे किसी भी साधककी दुर्गति नहीं होती। उसकी दुर्गति नहीं होती - यह कहनेका तात्पर्य है कि जो मनुष्य कल्याणकारी कार्यमें लगा हुआ है अर्थात् जिसके लिये मनुष्य-शरीर मिला है, उस अपने असली काममें लगा हुआ है तथा सांसारिक भोग और संग्रहमें आसक्त नहीं है, वह चाहे किसी मार्गसे चले, उसकी दुर्गति नहीं होती।"
"कारण कि उसका ध्येय चिन्मय-तत्त्व मैं (परमात्मा) हूँ; अतः उसका पतन नहीं होता। उसकी रक्षा मैं करता ही रहता हूँ, फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है ?
मेरी दृष्टि स्वतः प्राणिमात्रके हितमें रहती है। जो मनुष्य मेरी तरफ चलता है, अपना परमहित करनेके लिये उद्योग करता है, वह मुझे बहुत प्यारा लगता है; क्योंकि वास्तवमें वह मेरा ही अंश है, संसारका नहीं। उसका वास्तविक सम्बन्ध मेरे साथ ही है। संसारके साथ उसका वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। उसने मेरे साथ इस वास्तविक सम्बन्धको, असली लक्ष्यको पहचान लिया, तो फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है? उसका किया हुआ साधन भी नष्ट कैसे हो सकता है ? हाँ, कभी-कभी देखनेमें वह मोहित हुआ-सा दीखता है, उसका साधन छूटा हुआ- सा दीखता है; परन्तु ऐसी परिस्थिति उसके अभिमानके कारण ही उसके सामने आती है। मैं भी उसको चेतानेके लिये, उसका अभिमान दूर करनेके लिये ऐसी घटना घटा देता हूँ, जिससे वह व्याकुल हो जाता है और मेरी तरफ तेजीसे चल पड़ता है। जैसे, गोपियोंका अभिमान (मद) देखकर मैं रासमें ही अन्तर्धान हो गया, तो सब गोपियाँ घबरा गयीं ! जब वे विशेष व्याकुल हो गयीं, तब मैं उन गोपियोंके समुदायके बीचमें ही प्रकट हो गया और उनके पूछनेपर मैंने कहा- 'मया परोक्षं भजता तिरोहितम्' (श्रीमद्भा० १०। ३२। २१) अर्थात् तुमलोगोंका भजन करता हुआ ही मैं अन्तर्धान हुआ था। तुमलोगोंकी याद और तुमलोगोंका हित मेरेसे छूटा नहीं है। इस प्रकार मेरे हृदयमें साधन करनेवालोंका बहुत बड़ा स्थान है। इसका कारण यह है कि अनन्त जन्मोंसे भूला हुआ यह प्राणी जब केवल मेरी तरफ लगता है, "
"तब वह मेरेको बहुत प्यारा लगता है; क्योंकि उसने अनेक योनियोंमें बहुत दुःख पाया है और अब वह सन्मार्गपर आ गया है। जैसे माता अपने छोटे बच्चेकी रक्षा, पालन और हित करती रहती है, ऐसे ही मैं उस साधकके साधन और उसके हितकी रक्षा करते हुए उसके साधनकी वृद्धि करता रहता हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि जिसके भीतर एक बार साधनके संस्कार पड़ गये हैं, वे संस्कार फिर कभी नष्ट नहीं होते। कारण कि उस परमात्माके लिये जो काम किया जाता है, वह 'सत्' हो जाता है- 'कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते' (गीता १७। २७) अर्थात् उसका अभाव नहीं होता- 'नाभावो विद्यते सतः' (गीता २। १६)। इसी बातको भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि कल्याणकारी काम करनेवाले किसी भी मनुष्यकी दुर्गति नहीं होती। उसके जितने सद्भाव बने हैं, जैसा स्वभाव बना है, वह प्राणी किसी कारणवशात् किसी भी योनिमें चला जाय अथवा किसी भी परिस्थितिमें पड़ जाय, तो भी वे सद्भाव उसका कल्याण करके ही छोड़ेंगे। अगर वह किसी कारणसे किसी नीच योनिमें भी चला जाय, तो वहाँ भी अपने सजातीय योनिवालोंकी अपेक्षा उसके स्वभावमें फर्क रहेगा।
१-जिसका स्वभाव अच्छा बन गया है, जिसके भीतर सद्भाव हैं, वह किसी नीच योनिमें साँप, बिच्छू आदि नहीं बन सकता। कारण कि उसका स्वभाव साँप, बिच्छू आदि योनियोंके अनुरूप नहीं है और वह उन योनियोंके अनुरूप काम भी नहीं कर सकता।
यहाँ शंका हो सकती है कि अजामिल-जैसा शुद्ध ब्राह्मण भी वेश्यागामी हो गया, बिल्वमंगल भी चिन्तामणि नामकी वेश्याके वशमें हो गये, तो इनका इस जीवित- अवस्थामें ही पतन कैसे हो गया ? इसका समाधान यह है कि लोगोंको तो उनका पतन हो गया- ऐसा दीखता है, "
"पर वास्तवमें उनका पतन नहीं हुआ है; क्योंकि अन्तमें उनका उद्धार ही हुआ है। अजामिलको लेनेके लिये भगवान् के पार्षद आये और बिल्वमंगल भगवान् के भक्त बन गये। इस प्रकार वे पहले भी सदाचारी थे और अन्तमें भी उनका उद्धार हो गया, केवल बीचमें ही उनकी दशा अच्छी नहीं रही। तात्पर्य यह हुआ कि किसी कुसंगसे, किसी विघ्न-बाधासे, किसी असावधानीसे उसके भाव और आचरण गिर सकते हैं और 'मैं कौन हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ, मुझे क्या करना चाहिये'- ऐसी विस्मृति होकर वह संसारके प्रवाहमें बह सकता है। परन्तु पहलेकी साधनावस्थामें वह जितना साधन कर चुका है, उसका संसारके साथ जितना सम्बन्ध टूट चुका है, उतनी पूँजी तो उसकी वैसी-की-वैसी ही रहती है अर्थात् वह कभी किसी अवस्थामें छूटती नहीं, प्रत्युत उसके भीतर सुरक्षित रहती है। उसको जब कभी अच्छा संग मिलता है अथवा कोई बड़ी आफत आती है तो वह भीतरका भाव प्रकट हो जाता है और वह भगवान् की ओर तेजीसे लग जाता है।
२-बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं।
(मानस १।३।५)
हाँ, साधनमें बाधा पड़ जाना, भाव और आचरणोंका गिरना तथा परमात्मप्राप्तिमें देरी लगना - इस दृष्टिसे तो उसका पतन हुआ ही है। अतः उपर्युक्त उदाहरणोंसे साधकको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि हमें हर समय सावधान रहना है, जिससे हम कहीं कुसंगमें न पड़ जायँ, कहीं विषयोंके वशीभूत होकर अपना साधन न छोड़ दें और कहीं विपरीत कामोंमें न चले जायँ।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने अर्जुनको आश्वासन दिया कि किसी भी साधकका पतन नहीं होता और वह दुर्गतिमें नहीं जाता। अब भगवान् अर्जुनद्वारा सैंतीसवें श्लोकमें किये गये प्रश्नके अनुसार योगभ्रष्टकी गतिका वर्णन करते हैं।"
अगले वीडियो में हम जानेंगे कि भगवान श्रीकृष्ण अध्याय 6 के श्लोक 41 में आत्मा और पुनर्जन्म के बारे में क्या कहते हैं। इसे मिस न करें! अगर यह वीडियो आपको अच्छा लगा हो तो इसे लाइक और शेयर करें। अपने विचार नीचे कमेंट में ज़रूर बताएं। हमारे चैनल को सब्सक्राइब करें और बेल आइकन दबाएं ताकि अगले वीडियो का नोटिफिकेशन आपको सबसे पहले मिले। धन्यवाद!
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