ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 43 - पूर्वजन्म में अर्जित भक्ति का प्रभाव
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
जय श्रीकृष्ण दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहाँ हम रोज़ भगवद गीता के श्लोकों का गहराई से अध्ययन करते हैं। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6, श्लोक 43 की। क्या आप जानना चाहते हैं कि पूर्वजन्म का प्रभाव हमारे जीवन में कैसे पड़ता है? तो आइए, इस श्लोक का गहराई से अध्ययन करें। पिछले एपिसोड में हमने श्लोक 42 पर चर्चा की थी, जहाँ भगवान ने बताया था कि कैसे उच्च कर्म वाले लोग भक्ति के पथ पर बढ़ते हैं। आज के श्लोक में, भगवान श्रीकृष्ण हमें यह सिखा रहे हैं कि पिछले जन्म के संस्कार किस प्रकार हमारी आध्यात्मिक यात्रा को प्रभावित करते हैं।
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 43"
"(श्लोक-४३)
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् । यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥
उच्चारण की विधि - तत्र, तम्, बुद्धिसंयोगम्, लभते, पौर्वदेहिकम्, यतते, च, ततः, भूयः, संसिद्धौ, कुरुनन्दन ॥ ४३॥
शब्दार्थ - तत्र अर्थात् वहाँ, तम् अर्थात् उस, पौर्वदेहिकम् अर्थात् पहले शरीरमें संग्रह किये हुए, बुद्धिसंयोगम् अर्थात् बुद्धिके संयोगको अर्थात् समबुद्धि रूपयोगके संस्कारोंको (अनायास ही), लभते अर्थात् प्राप्त हो जाता है, च अर्थात् और, कुरुनन्दन अर्थात् हे कुरुनन्दन !, ततः अर्थात् उसके प्रभावसे (वह), भूयः अर्थात् फिर, संसिद्धौ अर्थात् परमात्माकी प्राप्तिरूप सिद्धिके लिये (पहलेसे भी बढ़कर), यतते अर्थात् प्रयत्न करता है।
अर्थ - वहाँ उस पहले शरीरमें संग्रह किये हुए बुद्धि-संयोगको अर्थात् समबुद्धिरूप योगके संस्कारोंको अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन ! उसके प्रभावसे वह फिर परमात्माकी प्राप्तिरूप सिद्धिके लिये पहलेसे भी बढ़कर प्रयत्न करता है॥ ४३॥"
"व्याख्या-'तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्'- तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंके कुलमें जन्म होनेके बाद उस वैराग्यवान् साधककी क्या दशा होती है ? इस बातको बतानेके लिये यहाँ 'तत्र' पद आया है।
'पौर्वदेहिकम्' तथा 'बुद्धिसंयोगम्' पदोंका तात्पर्य है कि संसारसे विरक्त उस साधकको स्वर्ग आदि लोकोंमें नहीं जाना पड़ता, उसका तो सीधे योगियोंके कुलमें जन्म होता है। वहाँ उसको अनायास ही पूर्वजन्मकी साधन- सामग्री मिल जाती है। जैसे, किसीको रास्तेपर चलते- चलते नींद आने लगी और वह वहीं किनारेपर सो गया। अब जब वह सोकर उठेगा, तो उतना रास्ता उसका तय किया हुआ ही रहेगा; अथवा किसीने व्याकरणका प्रकरण पढ़ा और बीचमें कई वर्ष पढ़ना छूट गया। जब वह फिरसे पढ़ने लगता है, तो उसका पहले पढ़ा हुआ प्रकरण बहुत जल्दी तैयार हो जाता है, याद हो जाता है। ऐसे ही पूर्वजन्ममें उसका जितना साधन हो चुका है, जितने अच्छे संस्कार पड़ चुके हैं, वे सभी इस जन्ममें प्राप्त हो जाते हैं, जाग्रत् हो जाते हैं।
'यतते च ततो भूयः संसिद्धौ' - एक तो वहाँ उसको पूर्वजन्मकृत बुद्धिसंयोग मिल जाता है और वहाँका संग अच्छा होनेसे साधनकी अच्छी बातें मिल जाती हैं, साधनकी युक्तियाँ मिल जाती हैं। "
"ज्यों-ज्यों नयी युक्तियाँ मिलती हैं, त्यों-त्यों उसका साधनमें उत्साह बढ़ता है। इस तरह वह सिद्धिके लिये विशेष तत्परतासे यत्न करता है। अगर इस प्रकरणका अर्थ ऐसा लिया जाय कि ये दोनों ही प्रकारके योगभ्रष्ट पहले स्वर्गादि लोकोंमें जाते हैं।
उनमेंसे जिसमें भोगोंकी वासना रही है, वह तो शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है, और जिसमें भोगोंकी वासना नहीं है, वह योगियोंके कुलमें जन्म लेता है, तो प्रकरणके पदोंपर विचार करनेसे यह बात ठीक नहीं बैठती। कारण कि ऐसा अर्थ लेनेसे 'योगियोंके' कुलमें जन्म लेनेवालेको 'पौर्वदेहिक' बुद्धिसंयोग अर्थात् पूर्वजन्मकृत साधन सामग्री मिल जाती है- यह कहना नहीं बनेगा। यहाँ 'पौर्वदेहिक' कहना तभी बनेगा, जब बीचमें दूसरे शरीरका व्यवधान न हो। अगर ऐसा मानें कि स्वर्गादि लोकोंमें जाकर फिर वह योगियोंके कुलमें जन्म लेता है, तो उसको 'पूर्वाभ्यास' कह सकते हैं (जैसा कि श्रीमानोंके घर जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टके लिये आगेके श्लोकमें कहा है), पर 'पौर्वदेहिक' नहीं कह सकते। कारण कि उसमें स्वर्गादिका व्यवधान पड़ जायगा अऔर स्वर्गादि लोकोंके देहको पौर्वदेहिक बुद्धिसंयोग नहीं कह सकते; क्योंकि उन लोकोंमें भोग-सामग्रीकी बहुलता होनेसे वहाँ साधन बननेका प्रश्न ही नहीं है। "
"अतः वे दोनों योगभ्रष्ट स्वर्गादिमें जाकर आते हैं- यह कहना प्रकरणके अनुसार ठीक नहीं बैठता। दूसरी बात, जिसमें भोगोंकी वासना है, उसका तो स्वर्ग आदिमें जाना ठीक है; परन्तु जिसमें भोगोंकी वासना नहीं है और जो अन्तसमयमें किसी कारणवश साधनसे विचलित हो गया है, ऐसे साधकको स्वर्ग आदिमें भेजना तो उसको दण्ड देना है, जो कि सर्वथा अनुचित है।
परिशिष्ट भाव - पारमार्थिक उन्नति 'स्व' की है और सांसारिक उन्नति 'पर' की है। इसलिये सांसारिक पूँजी तो नष्ट हो जाती है, पर पारमार्थिक पूँजी (साधन) योगभ्रष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होती। पारमार्थिक उन्नति ढक सकती है, पर मिटती नहीं और समय पाकर प्रकट हो जाती है।
पूर्वजन्ममें किये साधनके जो संस्कार बुद्धिमें बैठे हुए हैं, उनको यहाँ 'बुद्धिसंयोग' कहा गया है।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने यह बताया कि तत्त्वज्ञ योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवालेको पूर्वजन्मकृत बुद्धिसंयोग प्राप्त हो जाता है और वह साधनमें तत्परतासे लग जाता है। अब शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टकी क्या दशा होती है- इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं ।"
कल के एपिसोड में हम जानेंगे अध्याय 6, श्लोक 44 का महत्व, जहाँ श्रीकृष्ण यह समझाएंगे कि कैसे भक्ति हमें मुक्ति की ओर ले जाती है। आपका समय देने के लिए धन्यवाद। वीडियो को लाइक और शेयर करना न भूलें। सब्सक्राइब करें और बेल आइकन दबाएं ताकि आप हर नए वीडियो की सूचना पा सकें। जय श्रीकृष्ण!
दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
Comments
Post a Comment