ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 45 - आत्म-संयम का रहस्य #BhagavadGita
"|| श्री हरि बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहां हम भगवद गीता के श्लोकों को सरल भाषा में समझते हैं। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6, श्लोक 45 पर। यह श्लोक हमें आत्म-संयम और साधना का गूढ़ संदेश देता है। वीडियो के अंत में जानिए कुछ प्रेरणादायक बातें। आइए, शुरू करते हैं। पिछले वीडियो में हमने जाना कि आत्मसंयम से जीवन में शांति कैसे पाई जा सकती है। आज के श्लोक में हम यह समझेंगे कि संयमित व्यक्ति कैसे आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ सकता है। आज का श्लोक हमें संयम और साधना की महत्ता के बारे में सिखाता है। भगवान कृष्ण अर्जुन को यह बता रहे हैं कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए अनुशासन और अभ्यास कितना महत्वपूर्ण है।
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 45"
"योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टको परमगति प्राप्त होनेका कथन ।
(श्लोक-४५)
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः । अनेकजन्मसंसिद्धस्-ततो याति परां गतिम् ॥
उच्चारण की विधि - प्रयत्नात्, यतमानः, तु, योगी, संशुद्धकिल्बिषः, अनेकजन्मसंसिद्धः, ततः, याति, पराम्, गतिम् ॥ ४५ ॥
शब्दार्थ - तु अर्थात् परंतु, प्रयत्नात् अर्थात् प्रयत्नपूर्वक, यतमानः अर्थात् अभ्यास करनेवाला, योगी अर्थात् योगी (तो), अनेकजन्मसंसिद्धः अर्थात् पिछले अनेक जन्मोंके संस्कार बलसे इसी जन्ममें संसिद्ध होकर, संशुद्धकिल्बिषः अर्थात् सम्पूर्ण पापोंसे रहित हो, ततः अर्थात् फिर तत्काल ही, पराम् गतिम् अर्थात् परमगतिको, याति अर्थात् प्राप्त हो जाता है।
अर्थ - परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाला योगी तो पिछले अनेक जन्मोंके संस्कारबलसे इसी जन्ममें संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापोंसे रहित हो फिर तत्काल ही परमगतिको प्राप्त हो जाता है ॥ ४५॥"
"व्याख्या [वैराग्यवान् योगभ्रष्ट तो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगियोंके कुलमें जन्म लेने और वहाँ विशेषतासे यत्न करनेके कारण सुगमतासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है। परन्तु श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट परमात्माको कैसे प्राप्त होता है ? इसका वर्णन इस श्लोकमें करते हैं ।]
'तु' - इस पदका तात्पर्य है कि योगका जिज्ञासु भी जब वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है, उनसे ऊँचा उठ जाता है, तब जो योगमें लगा हुआ है और तत्परतासे यत्न करता है, वह वेदोंसे ऊँचा उठ जाय और परमगतिको प्राप्त हो जाय, इसमें तो सन्देह ही क्या है!
'योगी' - जो परमात्मतत्त्वको, समताको चाहता है और राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंमें नहीं फँसता, वह योगी है।
'प्रयत्नाद्यतमानः ' - प्रयत्नपूर्वक यत्न करनेका तात्पर्य है कि उसके भीतर परमात्माकी तरफ चलनेकी जो उत्कण्ठा है, लगन है, उत्साह है, तत्परता है, वह दिन- प्रतिदिन बढ़ती ही रहती है। साधनमें उसकी निरन्तर सजगता रहती है।
श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट पूर्वाभ्यासके कारण परमात्माकी तरफ खिंचता है और वर्तमानमें भोगोंके संगसे संसारकी तरफ खिंचता है। अगर वह प्रयत्नपूर्वक शूरवीरतासे भोगोंका त्याग कर दे, तो फिर वह परमात्माको प्राप्त कर लेगा। कारण कि जब योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है, तो फिर जो तत्परतासे साधनमें लग जाता है, उसका तो कहना ही क्या है ! जैसे निषिद्ध आचरणमें लगा हुआ पुरुष एक बार चोट खानेपर फिर विशेष जोरसे परमात्मामें लग जाता है, ऐसे ही योगभ्रष्ट भी श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेपर विशेष जोरसे परमात्मामें लग जाता है।"
"संशुद्धकिल्बिषः ' - उसके अन्तःकरणके सब दोष, सब पाप नष्ट हो गये हैं अर्थात् परमात्माकी तरफ लगन होनेसे उसके भीतर भोग, संग्रह, मान, बड़ाई आदिकी इच्छा सर्वथा मिट गयी है।
जो प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है, उसके प्रयत्नसे ही यह मालूम होता है कि उसके सब पाप नष्ट हो चुके हैं।
'अनेकजन्मसंसिद्धः - पहले मनुष्यजन्ममें योगके लिये यत्न करनेसे शुद्धि हुइर्, फिर अन्तसमयमें योगसे विचलित होकर स्वर्गादि लोकोंमें गया तथा वहाँ भोगोंसे अरुचि होनेसे शुद्धि हुई और फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेकर परमात्मप्राप्तिके लिये तत्परतापूर्वक यत्न करनेसे शुद्धि हुई। इस प्रकार तीन जन्मोंमें शुद्ध होना ही अनेक जन्मसंसिद्ध होना है।
१-'अनेकजन्म' का अर्थ है- 'न एकजन्म इति अनेकजन्म' अर्थात् एकसे अधिक जन्म। उपर्युक्त योगीके अनेक जन्म हो ही गये हैं। 'संसिद्धः' पदमें भूतकालका 'क्त' प्रत्यय होनेसे इसका अर्थ है- वह योगी अनेक जन्मोंमें संसिद्ध (शुद्ध) हो चुका है।
२-ऐसे ही वैराग्यवान् योगभ्रष्टके पहले मनुष्यजन्ममें संसारसे विरक्त होनेसे शुद्धि हुई और फिर यहाँ योगियोंके कुलमें जन्म लेकर परमात्मप्राप्तिके लिये तत्परतापूर्वक यत्न करनेसे शुद्धि हुई। इस प्रकार दो जन्मोंमें शुद्ध होना उसका अनेक जन्म संसिद्ध होना है।
'ततो याति परां गतिम् ' - इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जिसको प्राप्त होनेपर उससे बढ़कर कोई भी लाभ माननेमें नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर भयंकर-से-भयंकर दुःख भी विचलित नहीं कर सकता (गीता - छठे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक) - ऐसे आत्यन्तिक सुखको वह प्राप्त हो जाता है।"
"मार्मिक बात
वास्तवमें देखा जाय तो मनुष्यमात्र अनेक जन्म-संसिद्ध है। कारण कि इस मनुष्यशरीरके पहले अगर वह स्वर्गादि लोकोंमें गया है, तो वहाँ शुभ कर्मोंका फल भोगनेसे उसके स्वर्गप्रापक पुण्य समाप्त हो गये और वह पुण्योंसे शुद्ध हो गया। अगर वह नरकोंमें गया है, तो वहाँ नारकीय यातना भोगनेसे उसके नरकप्रापक पाप समाप्त हो गये और वह पापोंसे शुद्ध हो गया। अगर वह चौरासी लाख योनियोंमें गया है, तो वहाँ उस-उस योनिके रूपमें अशुभ कर्मोंका, पापोंका फल भोगनेसे उसके मनुष्येतर योनिप्रापक पाप कट गये और वह शुद्ध हो गया *।
* जीव इस मनुष्यजन्ममें ही अपने उद्धारके लिये मिले हुए अवसरका दुरुपयोग करके अर्थात् पाप, अन्याय करके अशुद्ध होता है। स्वर्ग, नरक तथा अन्य योनियोंमें इस प्राणीकी शुद्धि-ही-शुद्धि होती है, अशुद्धि होती ही नहीं। इस प्रकार यह जीव अनेक जन्मोंमें पुण्यों और पापोंसे शुद्ध हुआ है। यह शुद्ध होना ही इसका 'संसिद्ध' होना है।
दूसरी बात, मनुष्यमात्र प्रयत्नपूर्वक यत्न करके परम- गतिको प्राप्त कर सकता है, अपना कल्याण कर सकता है। कारण कि भगवान् ने यह अन्तिम जन्म इस मनुष्यको केवल अपना कल्याण करनेके लिये ही दिया है। अगर यह मनुष्य अपना कल्याण करनेका अधिकारी नहीं होता, तो भगवान् इसको मनुष्यजन्म ही क्यों देते ? अब जब मनुष्यशरीर दिया है, तो यह मुक्तिका पात्र है ही। अतः मनुष्यमात्रको अपने उद्धारके लिये तत्परतापूर्वक यत्न करना चाहिये।
सम्बन्ध-योगभ्रष्टका इस लोक और परलोकमें पतन नहीं होता; योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है- यह जो भगवान् ने महिमा कही है, यह महिमा भ्रष्ट होनेकी नहीं है, प्रत्युत योगकी है। अतः अब आगेके श्लोकमें उसी योगकी महिमा कहते हैं।"
कल के वीडियो में हम अध्याय 6 के श्लोक 46 का गहन अध्ययन करेंगे, जिसमें भगवान कृष्ण योगियों के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। वीडियो देखने के लिए धन्यवाद। अगर आपको यह जानकारी उपयोगी लगी हो तो लाइक और शेयर जरूर करें। अपने विचार कमेंट में लिखें और चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें। अगले वीडियो में फिर मिलेंगे, धन्यवाद।
दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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